कभी स्कूल में संस्कृत की पुस्तक में विद्या रुपी धन के महत्ता के बारे गुरूजी एक श्लोक का खूब रट्टवाते थे कि-
"न चौर्यहार्यं न च राजहार्यं न भ्रातृभाज्यं न च भारकारि।
व्यये कृते वर्धते एव नित्यं विद्याधनं सर्वधनप्रधानम्॥"
अर्थात विद्या रुपी धन को न तो कोई चोर चुरा सकता है, न कोई राजा छीन सकता है, न भाईयों में बाँटा जा सकता है, न वह कभी बोझ लगता है। यह ऐसा धन है जो खर्च करने से हमेशा बढ़ता चला जाता है, क्योँकि यह ज्ञान रुपी धन सभी धनों का प्रधान होता है। तब इस शिक्षा रुपी धन की महिमा को समझने की इतनी ही समझ विकसित थी कि गुरूजी जिसे बार-बार रटवाते हैं, वह परीक्षा में जरूर आता है, इसलिए इसे पढ़कर हमें अच्छे से अच्छे अंक लाने हैं, इसलिए रट्टा लगाते रहते थे। तब स्कूल में आज के तरह कोचिंग जैसा शब्द भी दूर-दूर तक सुनाये भी नहीं दिया करता था। स्कूल में गुरूजी होते थे जो इस बात को भलीभांति समझते थे कि शिक्षा के बिना विद्यार्थी का सर्वांगीण विकास संभव नहीं है, इसलिए वे अपना सम्पूर्ण ध्यान आज की तरह पैसे बनाने के स्थान पर केवल शिक्षा पर केंद्रित किया करते थे। शिक्षा शिक्षा को कभी व्यापार न समझे, इसे 'मालविकाग्रिमित्रम' नाटक में महाकवि कालिदास ने बहुत सरल ढंग से चेताते हुए कहा है कि-
“लब्धास्पदोऽस्मीति विवादभीरोस्तितिक्षमाणस्य परेण निन्दाम्।
यस्यागमः केवल जीविकायां तं ज्ञानपण्यं वाणिजं वदन्ति।। "
- अर्थात जो अध्यापक या शिक्षक नौकरी पा लेने पर अपने मूल उद्देश्य से दूर भागता है, दूसरों के अंगुली उठाने पर चुप रह जाता है और केवल पेट पालने के लिए विद्या पढ़ाता है, ऐसा व्यक्ति शिक्षक नहीं वरन् ज्ञान बेचने वाला बनिया कहलाता है। लेकिन आज ज्ञान से पेट भरने वालों की संख्या सबसे ऊपर आ गयी है। स्वतंत्रता के पश्चात् जिस तीव्र गति से विद्यालयों की संख्या बढ़ी उस अनुपात में शिक्षा का स्तर ऊँचा होने के बजाय नीचे गिरना गंभीर चिन्ता का विषय है। शिक्षक को राष्ट्र का निर्माता और उसकी संस्कृति का संरक्षक माना जाता है, जो शिक्षा द्वारा छात्र-छात्राओं को सुसंस्कृतवान बनाकर उनके अज्ञान रूपी अंधकार को दूर कर देश को श्रेष्ठ नागरिक बनाने में अपनी अहम् भूमिका निभाते हैं। वे केवल बच्चों को न केवल साक्षर बनाते हैं, बल्कि अपने उपदेश के माध्यम से उनके ज्ञान का तीसरा नेत्र भी खोलते हैं, जिससे उनमें भला-बुरा, हित-अहित सोचने की शक्ति उत्पन्न होती है।
आधुनिक समय में शिक्षा हमारे सामने एक बहुत बड़े व्यवसाय के रूप में अपने पाँव पसार रही है। इसका बाजारीकरण धड़ल्ले से हो रहा है, जहाँ स्कूल-कॉलेज के शिक्षक, व्याख्याता से लेकर निजी कोचिंग सेंटर में पढ़ाने वाले व्यक्ति घर, गली-कूंचे, मोहल्ले से लेकर बाजारों में आसानी से मिल रहे हैं। जगह-जगह आधुनिक सुविधाओं के चकाचौंध से युक्त कोचिंग खुलते जा रहे हैं, जहाँ शिक्षा की सरेआम बोली लगाकर बेची जा रही है। इसका सबसे अधिक निजी संस्थाएं भरपूर लाभ उठा रहे हैं। शिक्षा का बाजारीकरण के बारे में बहुत दूर न जाते हुए मैं आपको हमारी बात बताती हूँ। अभी मेरा बेटा ११वीं में हैं और वह आईआईटी एडवांस प्रवेश परीक्षा की तैयारी कर रहा है, जिसके लिए हमने उसे एमपी नगर जो कि भोपाल का कोचिंग हब है, वहां एक कोचिंग में इस विषयक कोचिंग लगाई हैं। अब चूंकि कोचिंग का समय सुबह १० से ४ बजे हैं, इसलिए स्कूल डमी कराना पड़ा। अब स्कूल तो बच्चे को जाना नहीं पड़ता लेकिन निर्धारित फीस उतनी ही देनी पड़ती हैं। इस बारे में कोचिंग सेंटरों ने भी डमी क्लासेज के लिए स्कूलों से टाईअप किया हुआ है। इस तरह लगभग सभी मेडिकल हो या इंजीनियरिंग कोचिंग संस्थान में आज शिक्षा का व्यापार पैसा कमाने का सबसे बड़ा साधन बना हुआ है। शिक्षा की आड़ में यह पैसा कमाने का धंधा शिक्षा व्यवस्था को अंदर ही अंदर दीमक की तरह खोखला करता जा रहा है।