हमारे भारतीय समाज में दीपावली के ग्यारह दिन बाद देवउठनी एकादशी (तुलसी विवाह) मनाने की सुदीर्घ परंपरा है। इस विषय में अलग-अलग क्षेत्रों में इसे मनाये जाने के पीछे अपनी-अपनी मान्यताएं व लोक कथाएं प्रचलित हैं। मुझे याद है हमारे पहाड़ी प्रदेश में इसे ही दीपावली का त्यौहार माना गया है। क्योँकि मान्यता है कि भगवान श्रीराम के लंका विजय के बाद अयोध्या वापस आने की खबर सूदूर पहाड़ में निवासरत लोगों को ग्यारह दिन बाद मिली, इसलिए जनमानस ने इस दिन को दीपोत्सव के रूप में हर्षोल्लास से मनाने का निश्चय किया, जिसे 'इगास' से जाना जाता है। इसके बाद ही यहाँ छोटी दीपावली से लेकर गोवर्धन पूजा तक मनाने की परंपरा है। यहाँ इस दिन लोग दीए जलाते हैं, गौ पूजन के साथ अपने ईष्ट और कुलदेवी-देवता का पूजन हैं। नयी उड़द की दाल के पकौड़े और गैथ की दाल से भरी रोटी बनाते हैं। सूर्यास्त होते ही हर घर के द्वार पर जब ढोल दमाऊ बजता है तो लोग पूजा शुरू करते हैं। पूजा समाप्ति के बाद सब लोग ढोल-दमाऊ के साथ कुलदेवी या देवता के मंदिर जाकर वहां पर नृत्य और चीड़ की राल और बेल से बने भैला (एक तरह की मशाल) से खेलते हैं। रात के १२ बजते ही सब घरों से इकट्ठा किया सतनाजा (सात अनाज) गांव की चारों दिशा की सीमाओं पर रखा जाता है, जो दिशाबंधनी कहलाती है और मां काली की भेंट होती है। आज बढ़ते बाजारवाद तथा क्षेत्रीय लोगों की उदासीनता और पलायन के कारण यह पर्व धीरे-धीरे लुप्त होने वाले त्यौहारों की श्रेणी में है, जिसे उत्तराखण्ड राज्य सरकार ने इसे राज्य का मुख्य त्यौहार का दर्जा देकर इस अवसर पर सरकारी अवकाश की घोषणा कर इसे विलुप्त होने से बचाने का सराहनीय प्रयास किया है।
ये तो रही हमारे उत्तराखंड के पहाड़ों की एकादशी 'इगास' की बात। अब जरा शहर में मनाये जाने वाले देवउठनी एकादशी (तुलसी विवाह) की ओर रुख करते हैं। दीपावली के ११वें दिन देवउठनी एकादशी को 'तुलसी विवाह' के रूप में मनाए जाने की परंपरा है। इस विषय में हमारे धार्मिक ग्रंथों में मान्यता है कि तुलसी (पौधा) पूर्व जन्म में एक वृंदा नाम की लड़की थी, जिसका जन्म राक्षस कुल में हुआ था। वह बचपन से ही भगवान विष्णु की भक्त थी। जो बड़े प्रेम और भक्ति भाव से भगवान की पूजा-अर्चना किया करती थी। बड़ी होने पर उसके माता-पिता ने उसका विवाह राक्षस कुल के दानवराज, जो समुद्र से उत्पन्न हुआ था, जलंधर से कर दिया। वह बड़ी ही पतिव्रता और पति की सेवा करने वाली स्त्री थी। एक बार जब देवताओं और दानवों में युद्ध हुआ तब जलंधर के युद्ध पर जाते समय उसने जलंधर से कहा कि वह तब उनकी विजय के लिए पूजा-अनुष्ठान करती रहेगी, जब तक वे वापस नहीं आ जाते। उसके पूजा-अनुष्ठान के प्रभाव से देवता जलंधर को पराजित नहीं कर पाए तो वे वे विवश होकर विष्णु जी के पास गये और उन्होंने भगवान से प्रार्थना की, जिस पर भगवान श्रीहरि ने उन्हें कहा कि वृंदा उनकी परम भक्त है, इसलिए वे साथ छल नहीं कर सकते हैं। लेकिन जब देवताओं ने उनसे बार-बार कोई दूसरा उपाय के लिए विनय की तो वे जलंधर का ही रूप धारण कर वृंदा के महल में पँहुच गये। जिन्हें अपना पति समझ वृंदा पूजा छोड़कर उठ खड़ी हुए और उसने जैसे ही उनके चरण छुए उनका संकल्प टूट गया, जिससे युद्ध में देवताओ ने जलंधर को मारकर उसका सिर धड़ से अलग कर दिया, जो वृंदा के महल में उसके सामने गिरा तो वह समझ गयी कि उनके साथ छल हुआ है। उन्होंने जब जलंधर के रूप धारण किये नारायण से इस विषय में पूछा तो वे मौन रहे, जिस पर वृंदा ने भगवान को पत्थर बनने का श्राप दे दिया, जिससे वे पत्थर के हो गये। यह देखकर जब देवत और माँ लक्ष्मी जी विलाप करने लगी तो वृंदा ने अपने सतीत्व के बल पर अपने पति का सिर अपने हाथों में लेकर अपने को भस्म कर दिया। उसके भस्म होते ही उसकी राख से एक पौधा निकला, जिसे तब भगवान विष्णु जी ने तुलसी नाम दिया है और अपने पत्थर बने रूप को शालिग्राम कहते हुए यह कहते हुए कि आज से तुलसी जी के साथ ही उनकी पूजा की जाएगी और वे बिना तुलसी जी के भोग स्वीकार नहीं करेंगे। मान्यता है कि तभी से तुलसी जी कि पूजा के साथ ही उनका विवाह शालिग्राम जी के साथ कार्तिक मास में किये जाने की परंपरा चली आ रही है, जिसे देव-उठावनी एकादशी (तुलसी विवाह) के रूप में मनाया जाता है !
हमारे हिंदू धर्म ग्रंथों में कार्तिक शुक्ल एकादशी को देव जागरण, देवउठनी ग्यारस या देव प्रबोधिनी एकादशी पर्व माना गया है। इसी दिन से श्रीहरि भगवान विष्णु के अपनी चार माह की योगनिद्रा से जागने पर मांगलिक कार्यों का शुभारंभ होता है। पदम पुराण में देवोत्थान एकादशी व्रत के फल को बुद्धिमान,शांति प्रदाता व संततिदायक बताते हुए एक हज़ार अश्वमेघ यज्ञ और सौ राजसूय यज्ञ के बराबर माना गया है। इसलिए इस दिन विष्णु स्तुति,शालिग्राम व तुलसी महिमा का पाठ व व्रत रखते हुए भक्तगण भगवान श्रीहरि विष्णु को जगाने के लिए इन मंत्रों का उच्चारण करते हैं -
"उत्तिष्ठ गोविन्द त्यज निद्रां जगत्पतये।
त्वयि सुप्ते जगन्नाथ जगत् सुप्तं भवेदिदम्॥
उत्थिते चेष्टते सर्वमुत्तिष्ठोत्तिष्ठ माधव।
गतामेघा वियच्चैव निर्मलं निर्मलादिशः॥
शारदानि च पुष्पाणि गृहाण मम केशव।"