सामान्यतः एक मनुष्य को सामान्य जीवन जीने के लिए रोटी, कपडा और मकान की आवश्यकता पड़ती है। जहाँ बहुत से लोगों का जीवन संघर्ष इन्हीं तीन आवश्यकताओं की पूर्ति के इर्द-गिर्द घूमता रहता है। हर मनुष्य की इच्छा होती है कि उसके पास भी खाने के लिए रोटी, पहनने के लिए कपड़े और रहने के लिए मकान हों। लेकिन बहुत से लोगों का पूरा जीवनकाल इन्हीं तीन आवश्यकताओं की पूर्ति में खप जाता है, उनकी आखिरी इच्छा तब यहीं धरी के धरी रह जाती हैं, जब वे न तो अच्छा खाना न पहनना और नहीं मकान बना पाते हैं। ऐसे लोग भले ही अपनी कुछ मानवीय सांसारिक इच्छा पूर्ण करने में कुछ हद तक सफल होते होंगे लेकिन उनकी आखिरी इच्छा यहीं दफ़्न होकर रह जाती हैं।
इसके विपरीत दूसरी तरफ ऐसे लोग होते हैं जो अपने बुद्धि कौशल, पराक्रम और इच्छा शक्ति के बलबूते अपनी आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सक्षम होते ही सांसारिक सुख-सुविधाओं के चक्कर में पड़कर उनकी इच्छा प्राप्ति के लिए "बिनु श्रम तुम्ह जानब सब सोऊ। नित नव नेह राम पद होऊ॥" को भुलाकर "जो इच्छा करिहहु मन माहीं। हरि प्रसाद कछु दुर्लभ नाहीं॥" के मर्म को अनदेखा कर 'हरि प्रसाद' मानकर उनकी पूर्ति के लिए तन-मन और धन से जुटे रहते हैं। ऐसे लोगों की इच्छाओं का सामान्य चेतना के रहते कभी अंत नहीं होता। क्योँकि इच्छाओं का स्त्रोत मन को माना गया है, जो बिन पैंदे का लोटे की तरह होता है, जिसमें कितना ही इच्छा-पूर्ति के जल से भरा जाए, वह खाली रहेगा। एक के बाद नित नई इच्छाएं जाग्रत होने से मनुष्य जीवनभर इच्छाओं के भंवर जाल में फंसा रहता है। जहाँ उसकी आखिरी इच्छा यहीं धरी के धरी रह जाती हैं।
हमारे धर्म शास्त्रोँ के अनुसार मान्यता है कि मनुष्य जब अपनी आयु पूर्ण कर अंतिम समय में इस लोक से उस लोक की ओर गमन करता है तो उस समय उसके मन में जो सबसे अधिक इच्छा जिस चीज की रहेगी,वह उसी योनि में जन्म लेता है, उसे मुक्ति नहीं मिलती हैं। इस बारे में एक सत्संग के दौरान सुना एक रोचक प्रसंग याद आ रहा है। एक बार नारद जी भगवान श्रीहरि को साथ लेकर साधु भेष में पृथ्वी पर पधारे और उन्हें एक बूढ़ी माँ की झोपड़ी में ले गए। जहाँ उसकी एक गाय के अलावा और कुछ भी न था। दोनों ने जैसे ही भिक्षा के लिये आवाज लगायी तो बूढ़ी माँ ख़ुशी-ख़ुशी बाहर आयी और उसने दोनों को बड़े आदर से आसन देकर बिठाया और उनके लिए पीने के लिए दूध लायी। उसने निवेदन किया कि उसके पास यही है, इसलिए वे उसे ही स्वीकार करें। भगवान ने बड़े प्रेम से उसे स्वीकार किया तो नारद जी ने भगवान से कहा कि प्रभु! यह आपकी परम भक्त है, फिर भी इसकी देखो कैसी दुर्दशा है। इसलिए आप इसे कोई ऐसा वरदान दीजिये, जिससे इनका जीवन आराम से बीतने लगे। इस पर भगवान ने थोड़ा सोच-विचार किया और उसे उसकी गाय को मरने का अभिशाप दे दिया, जिसे सुनकर नारद जी को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने इसका रहस्य जानना चाहा, जिस पर श्रीहरि ने उन्हें समझाया कि चूंकि यह बूढ़ी माँ उनका भजन-कीर्तन करती है, जो मेरी शरण में आना चाहती है। अब इसकी मृत्यु के कुछ ही दिन शेष है, इसलिए मृत्यु के समय इसे उसकी गाय की चिन्ता सतायेगी कि उसके बाद उसका क्या होगा तो वह मेरा ध्यान नहीं लगा सकेगी और मेरे धाम को न आकर गाय की योनि में चली जायेगी।