धर्म को मानव की आत्मा, आध्यात्मिक अवस्थाओं का परीक्षक, निरीक्षक, विद्या और संस्कृति का वाहक माना जाता है, जो जीवन को चलाने वाले श्रेष्ठ सिद्धांतों का समूह है। आधुनिक विचारकों का मत है कि जहाँ विज्ञान की सीमा समाप्त हो जाती है, वहां धर्म की सीमा प्रारम्भ होती हैं। धर्म का क्षेत्र व्यापक है। यह व्यक्ति का सहज स्वभाव और कर्त्तव्य है। मानव जीवन धर्म के मौलिक सिद्धांतोँ पर टिका है। संसार में कोई भी धर्म का व्यक्ति क्यों न हो वह जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त धार्मिक सिद्धांतोँ को मानता है। यह उसके समग्र जीवन को प्रभावित करता है। जब कोई निजी स्वार्थ को प्राप्त करने के लिए निजी आस्था और निजी कर्मकांड को दूसरों पर थोपने के लिए धर्म का सहारा लेता है तो आपसी सद्भाव बिगड़ता है। सत्य पर सभी धर्मों का अधिकार होता है और सभी धर्म सत्य के अनुगामी होते हैं। जब सत्य पर एक धर्म अपना ही अधिकार मानने लगता है तो आपसी सद्भाव का माहौल ख़राब होता है।
अंतर धार्मिक सद्भाव तभी संभव है जब कोई भी व्यक्ति अपने सम्रदाय को श्रेष्ठ और दूसरे के सम्प्रदाय को निम्न न समझे। 'जियो और जीने जीने दो' की भावना रखते हुए एक दूसरे के धर्म का सम्मान करें और धर्मान्तरण न करें। धर्म को राजनीति से अलग रखना चाहिए, ताकि वह राजनीति का अखाड़ा न बने। हर धर्म के व्यक्ति को चाहिए कि वह सभी धर्म के व्यक्तियोँ के साथ समान व्यवहार करें, उसे ऊँच-नीच, जात-पात की नज़र से देखकर व्यवहार न करें। धार्मिक सद्भाव बना रहे इसके लिए हर व्यक्ति को अपने धर्म से पहले यह समझना जरुरी है कि संसार में 'मानवता' से बढ़कर कोई धर्म नहीं है। इसलिए उन्हें आपसी धार्मिक मतभेदों के बावजूद एक दूसरे के साथ रहते हुए आपसी सहयोग करते हुए संवाद जारी रखना चाहिए। एक दूसरे की आस्था और विश्वास हमेशा सम्मान करना चाहिए।