हमारे भारत में आरक्षण के सम्बन्ध में सर्वप्रथम भारतीय संविधान के अनुच्छेद ३४० के अधीन प्रथम आयोग का गठन २९ जनवरी १९५३ को तत्कालीन राष्ट्रपति के आदेश पर "काका कालेकर आयोग" नाम से हुआ। इस आयोग ने ३० मार्च १९५५ को अपनी रिपोर्ट सरकार के समक्ष प्रस्तुत की, जिसमें उनके द्वारा १८२ प्रश्नों की सूची संलग्न की गई। इस हेतु उनके द्वारा प्रत्यक्ष साक्ष्यों को देश के विभिन्न भागों में जाकर एकत्रित किया गया। पिछड़े वर्गों के उत्थान हेतु इस आयोग की सिफारिशों में व्यापक संभावनाएं निहित थी। लेकिन सरकार ने इनकी सिफारिशों में समाज के उचित वर्गीकरण और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की निष्पक्ष परख और मानदंड के विस्तृत ब्यौरे न होने का उल्लेख करते हुए ख़ारिज कर दिया। इसके बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री ने २१ मार्च १९७९ को वी पी मंडल की अध्यक्षता में "मंडल आयोग" नाम से दूसरा आयोग गठित किया। जिसमें उनके साथ ५ अन्य सदस्य आर आर भोले, दीवान मोहनलाल, एम आर नायक एवं के सुब्रह्मण्यम व्यक्तियोँ को अवैतनिक आधार पर अंशकालिक नियुक्ति दी गयी। मंडल आयोग ने आरक्षण की सिफारिश करते समय विधान के विधिक रूप को भी सामने रखते हुए बताया कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा पिछड़े वर्गों के लिए कुल आरक्षण ५० प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। भारत सरकार ने १३ अगस्त १९९० को मंडल आयोग की सिफारिशों को इसकी संभावनाओं के ओर ध्यान न देते हुए इसे स्वीकार कर कार्यालय आदेश जारी कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप भयंकर रूप में जनाक्रोश से सरकार की नींद उड़ गई। अनेक राज्यों में प्रदर्शन, जन-विद्रोह के विस्फोट हुए, यहाँ तक कि कई छात्रों ने आत्मदाह करके इतिहास को भी कलंकित कर दिया। इस आयोग की ११ सिफारिशों में से ३ प्रमुख सिफारिश सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक पिछड़ापन को सरकार ने स्वीकार कर लिया। जिसमें आरक्षण व्यक्ति की दयनीय आर्थिक स्तर को ध्यान में रखकर जातिगत आधार पर लागू किया गया, जिसके विरोध स्वरूप आज भी देश के कोने-कोने से आवाज उठायी जाती रही है।
हमारे देश में अनुसूचित जाति, जनजाति एवं पिछड़े वर्ग को आरक्षण देकर उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति को मजबूत कर उन्हें मुख्य धारा में लाते हुए एक पंक्ति में लाने की थी। जिसमें दलित और पिछड़े वर्ग के बच्चों को प्रत्यक्ष रूप से आर्थिक सहायता देना परोक्ष रूप से उनके लिए सरकारी नौकरी और चुनाओं में स्थान आरक्षित कर उनकी आर्थिक दशा को सुधारने की रही है। लेकिन आज आजादी के कई दशक बीत जाने के बाद भी इनकी स्थिति जस के तस बनी है। यदि इस आरक्षण के लाभ पर गहराई से विचार किया जाय तो यह ढोल का पोल ही साबित होगा। इस दिशा में जो रचनात्मक कार्य होने चाहिए थे, वे नगण्य ही है। आर्थिक हो या शैक्षिक स्तर आज भी आरक्षण का लाभ कुछ गिने-चुने लोग ही उठा पाते हैं, बाकी की स्थिति वही ढाक के तीन पात जैसी है। आज देश में सभी वर्ग अपनी-अपनी जातियों के लिए आरक्षण की मांग कर रहे हैं। अब तो सामान्य वर्ग को भी आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया जाने लगा है। लेकिन इसे यदि वोट बैंक के लिए मुद्दा माना जाय तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
आज यदि देश में आरक्षण की आवश्यकता है तो वह आर्थिक रूप से पिछड़े परिवार के योग्य उम्मीदवारों को दिए जाने की होनी चाहिए, जहाँ कोई जाति बंधन नहीं होना चाहिए। यदि आरक्षण के नाम पर अयोग्य व्यक्तियोँ को आगे लाने का प्रयास किया जाता रहेगा तो इससे प्रतिभावान व्यक्तिर्यों का स्वाभिमान डगमगाएगा और वे निरंतर दूसरे देश में जाने के लिए मजबूर होते रहेंगे। सच्चे अर्थों में देखा जाय तो आरक्षण से किसी का भला नहीं होने वाला है। यदि पिछड़े वर्ग या दलित वर्ग के योग्य उम्मीदवार अपनी योग्यता के बल पर उच्च वर्ग के साथ प्रतिस्पर्धा के साथ आगे बढ़ने का साहस करें तो वे भी डॉ.भीमराव अम्बेडकर जैसे शिखर पुरुष बन सकते हैं, वर्ना वे राजनीतिक कठपुतली बनकर झंडे-डंडे उठाते हुए अपने हाथ-पैर पटकते रहेंगे और इस आरक्षण रुपी नाटक में जीवन भर अपना किरदार निभाते चले जाएंगे।