शब्दनगरी के मेरे अजीज़ भाइयो/बहनों
…जिंदगी का सफर जितना सुहाना है उसके
रास्ते में उतने ही कांटे भी हैं पर मंजिल को हासिल करना हर पथिक का लक्ष्य होता है आगे देखिये प्रस्तुत रचना मे :-
1.
ज़ुल्म से जालिम के जब भी,
रूबरू होना पड़े ।
दोस्त,हमदम,रहनुमा का ,
साथ भी खोना पड़े।।
दूर हमशाया भी हो,
जो साथ रहता है सदा।
जिंदगी के सफ़र में,
मत हों निराश,ग़मज़दा।।
2.
टिमटिमाते दीप जब,
बुझने लगें होकर उदास।
घिर गया हो तम,
फ़िज़ाओं में तुम्हारे आस पास।।
हर तरफ हो घोर सन्नाटा,
अंधेरी रात सा।
आँसुवों की धार से ,
मौसम लगे बरसात सा।।
3.
ऎ"पथिक"तब'आस का दामन',
पकड़ यह ठान लो।
'धर्म'दिखलायेगा तुमको,
उचित पथ यह जान लो ।।
'धैर्य देगा जोश तुमको,
उस समय यह जान लो।
मुश्किले हालात में भी ,
अपना सीना तान लो ।।
4.
ज्यों,कर रहा हो दुवा कोई,
अपने हमदम के लिए।
त्यों,बढ़ रही मंज़िल तुम्हारे,
खैरमकदम के लिए।।
तब! ठोकरें खाकर भी तुम,
संभलो उठो चलते रहो।
खुद क़ारवां बन जायगा,
हिम्मत जवाँ करते रहो।।
बस मंज़िले मक़सूदपर,
चलते रहो,चलते रहो
और हिम्मते मरदां की पक्की,
दास्ताँ करते रहो।
चलते रहो ,चलते रहो,चलते रहो,चलते रहो
।....चलते रहो।।
शुक्रिया दोस्तों।