अभी-अभी हटी है
मुसीबत के काले बादलों की छाया
अभी-अभी आ गयी--
रिझाने, दमित इच्छाओं की रंगीन माया
लगता है कि अभी-अभी
ज़रा-सी गफ़लत में होगा चौपट किया-कराया
ठिकाने तलाश रही है चाटुकारों की भीड़
शंख फूँकने लगे नये-नये कुवलयापीड़
फिर से पहचान लो, वाद्यवृन्दों में पुरानी गमक और मीड़
दिखाई दे गये हैं गीध के शावकों को अपने नीड़
(1977 में रचित)