याद आते है आपको ? वो बचपन के दिन जब हमारा व्यक्तित्व हमारे मां बाप और हम बना रहे होते हैं । हम शब्द मैने इसलिये प्रयोग किया क्योकि मिट्टी के बरतन के निर्माण मे मिट्टी का भी अपना योगदान होता है । मुझे तो आजकल रह रहकर याद आते हैं । तो चलते हैं बचपन की ओर ....
मै एक गोलू मोलू सा मां बाप का पहला बच्चा छ: सात साल की उम्र से चीजो को अपने हिसाब से परखने लगा था । पिता स्नेह के साथ अपना सारा अभिभावकत्व लादे दे रहे थे जिससे कबसे उनसे दूर और मां के ज्यादा करीब होता गया पता ही नहीं चला । बचपन यूं भी अपनी मां को सर्वश्रेष्ठ समझता है मै तो ज्यादा ही सिमट गया था उसके आँचल मे । याद आता है और अब बडो का हास्य विनोद समझ मे आता है कि जब वो अक्सर पूछा करते थे कि किससे शादी करोगे तो मै रौब झाडता की मां से सब फिस्स से हंस पडते मां भी हंसती पर गर्व और भाव विभोर होकर खुद पर थोडा इतराती भी होगी ।
पिता के अनुशासन के दबाव और मां के प्रेम और सीखो ने कब अन्तरिमुखी करना शुरू कर दिया पता ही नहीं चला । शायद इसका बडा कारण मां की ये सीख आत्मसात करना था कि सच बोलो सच के साथ रहो बच्चे ने बचपने मे आत्मसात कर लिया पर बडे बडे भी सच से भागते हैं । बच्चे के सच को और सच के साथ रहने की जिद को कोई समझ नही पाता था यद्यपि वो बालसुलभ झूठ भी बोलता रहा होगा पर लोग बाग उसके सच से शायद इतना घबराने लगे थे कि छंटुआ बना दिया था कुछ अछूत सा ।
याद आता है बचपन का एक शैतानी वाकया हम नये खरीदे अपने मकान मे शिफ्ट हुये थे , मै हम उम्र और अपने से थोडा बडे बच्चो का भी लीडर बन चुका था , क्योकि कुछ हिस्टपुष्ट था । हम कई बच्चे खेल खेल मे एक बंगले मे पहुंच गये भरी दोपहरी चारो ओर सन्नाटा और उस बंगले के फुलवारी मे पके टमाटरो से लदे खूबसूरत पौधे फूलो से ज्यादा आकर्षक लगे । सबने मिलकर चोरी की टमाटर दावत उडाई और कुछ ने घरो के लिये जेबो मे भी भरे मैने भी वाह वाही पाने के लोभ से दो चार टमाटर जेबो मे भर लिये । घर पहुंचकर मां से शाबासी की उम्मीद मे टमाटर विजय गाथा की शेखियां बघारी पर परिणाम उम्मीद के उलट दो तीन थप्पड और घसीटकर टमाटर सहित उस बंगले तक ले जाने के रूप मे सामने आया । मां ने बंगले के नौकर से मालकिन को बुलवाया और टमाटर सौंपते हुये मेरी चैर्यगाथा और अपना माफीनामा पेश किया । मै शर्म से गडा जा रहा था पर उस बंगलेवाली दम्भी किसी लाट साहब की पत्नी ने हम निम्नमध्यम वर्गीयो को हिकारत की नजरो से देखते हुये मां की सराहना करने की बजाय मुझको चोर और उसकी क्यारिया उजाडने वाला महाशैतान साबित करने के लिये कटुवचन ही बोले । मां का आहत मन और आहत हो उठा दर्प ने क्रोध को और सुलगा दिया नीगिन सी बल खाती मुझे घसीटते पीटते घर लाई पडोसियो ने क्या हुआ क्या हुआ पूछा तो मां ने सब बच्चो की चौर्यगाथा सुना डाली । मै सहमा कि अब सभी दोस्त पिटेगे और मै विलेन बन जाउगां सब मुझसे कट्टी कर लेगें । पर घोर आश्चर्य मेरे दोस्त या तो बडे बुद्धिमान थे या उनके अभिभावक ज्यादा होशियार और धूर्त । सबने अपने बच्चो की सफाई दी कि वे लोग तो ऐसा कुछ नही लाये थे जरूर केवल मेरी शरारत होगी और उनके बच्चे बेचारे मेरे साथ चेरी का टमाटर एकाद खा लिये होगें पर घर तो नही लाये थे । मां और सुलग उठी दो और सार्वजनिक रूप से भी लगाया लज्जा और अपमान से गडा मै भुक्का फाडता घर मे भाग आया और खूब सिसका । पर मै आश्चर्य मे था कि दोस्तो ने घर वालो से टमाटर कैसे छ्पाकर रखा होगा लाये तो सभी थे और अब मजे से चुपके चुपके खा भी रहे होगें मार भी नही पडी पर मेरे घर मे तो कोई जगह ही ऐसी नही थी कि मां की नजरो से छिपाकर रख पाता और छिपाकर रखने के बजाय मैने तो चोरी का डंका पीटा था मां से लेकिन बालमन ने सोच लिया कि दोस्तो ने दगा किया है मुझसे तो छिपाकर रखने का आइडिया ही किसी ने नही बांटा नही तो मै उधर ही सब खा लेता । बाद मे पता चला कि कोई छिपाकर नही रखा था बल्कि सब्जियो मे खाया था वैसे भी उन दिनो गर्मियो मे टमाटर बहुत कम नजर आता जो बाजार मे दिखता वो सोने के भाव और निम्नमध्यम वर्ग की पहुंच से दूर लग्जरी आईटम होता था । मुझे तो अपनी मां एकदम बेवकूफ और घमण्डी लगी दुर्लभ टमाटर की सब्जी खाने खिलाने व शाबासी की बजाय मेरा बैंड बजाया और सार्वजनिक बेइज्जती भी की । बाल सुलभ मन बगावत पे उतर गया और अपनी लीडरी भी बचाये रखनी थी तो बाल मन्डली मे एक दिन उद्घघोषणा किया कि डिप्टी के बंगले की टमाटर चोरी जारी रहेगी और सारे पके कच्चे टमाटर हम लेगे यही उस नकचढी से हमारा बदला होगा जिसका जितना मन हो खाये और घर ले जाये पर शर्त ये है कि मेरे घर पे खबर नही होनी चाहिये ना मै घर ले जाउगां । सब खुश हो गये । बाल डकैती मौका ताडकर डाला गया और मैडम के सारे टमाटरो को तहस नहस करते हुये छककर टमाटरो की दावत उडी । चुकी मेरी मां बेवकुफी कर चुकी थी इसलिये फर्स्ट हैन्ड मैडम का ध्यान मेरी ओर गया होगा पर वो हमे कहां खोजती और पाती हम चोरो की मन्डली ने तो उधर का रूख ही कई दिनो तक नही किया । तो ये याददाश्त मे पहली बगावत थी बंगले वाली से भी बदला लिया और मां को हवा तक नही लगने दी बालमन खूब सन्तुष्ट हुआ कि मां को पता ही नही चलने दिया बडी साव बनती थी अब क्या बिगाडेगी मेरा चोरी भी की और हवा भी न लगा । अब मै खुद को बडा सवाशेर आँकने लगा था दोस्तो पर भी लीडरशिप और दरियादिली का रौबगालिब हुआ ।
पर एक बच्चा अब बिगडने लगा था । ....
अजीब हैं ये यादें भी जब इनके पिटारे मे उतरो तो इतनी तेजी से फ्लैश आने लगते हैं कि आगे -पीछे की बाते सब गड्ड-मड्ड होने लगता है । बहरहाल मुझ बच्चे के बिगडाव के कई कारक थे , जिनमे प्रमुख था पिताजी का प्रमोशन होकर पास के जिले मे तबादला हो जाना । अब छुट्टी के दिनो को छोडकर शेष दिन वे भोर मे निकल जाते और रात को घर लौटते । बचपन मे जिला अस्पताल का बजने वाला घन्टा हमारा टाईम टेबल निर्धारित करता था । जाडे मे रात आठ बजे और गर्मियो और बरसात के दिनो मे रात नौ बजे सोने का समय होता । पिताजी से बहुत कम आमना सामना होता जब वे छुट्टी के दिन घर होते तो मै अति शरीफ बच्चा होता ।
परिवार मे मेरे अलावा कब मेरा छोटा भाई आकर मेरा हिस्सेदार बन चुका था मुझे पता ही नहीं चला केवल तीन साल ही तो छोटा था मुझसे । शायद मेरी माँ के दूध मे कुछ तासीर ही ऐसी थी कि हम सभी भाई बहन हमउम्र दूसरे बच्चो के बनिस्बत ज्यादा तगडे और गोलू मोलू हुआ करते थे । खैर उस भाई का आना याद नही पर कई घटनाये उसके साथ की यादो के पिटारे मे टिमटिमाती हैं ।
मेरा वो छोटा भाई जो बाद मे मंझला कहलाया मुझसे ज्यादा चालाक , नटखट पर कम बुद्धिमान मेरा बाबू मेरा खिलौना और मेरा प्रतिद्वन्दी मेरे जेहन मे स्थापित हो चुका था ।
याद आता है जब हम अपने घर की बजाय अभी किराये के मकान मे ही थे । उस मकान का फर्श कुछ ऊँचा था ।तीन चार सीढिया उतरकर गली के फर्श पर आते थे उन सीढियो के बीच मे एक चिकनी फिसलन भरी रचना बनी थी जिसे हम बच्चे बिछलौवा कहते थे , जैसा आजकल लोग बाग अपनी बाईक वगैरह चढाने उतारने के लिये बनवाते हैं कुछ वैसी ही लेकिन तब साईकिलो का ही जमाना था । बहरहाल वो बिछलौवा हम बच्चो के फिसल-फिसलकर , सरक -सरक कर नीचे उतरने और फिर सीढियो से चढकर फिर सरकने के खेल का औजार और बैठने का प्रिय अड्डा था । एक बार हमारे मकान मालिक का भतीजा विनय जो बालक ही था पर मुझसे उम्र मे दो तीन वर्ष बडा और अवस्थानुसार तगडा भी था , मै और मझला तीनो बिछलौवा पर खेल खेलकर उब चुके थे फिर उसके के ऊपरी भाग के इर्द गिर्द हम तीनो बैठे थे । विनय मझले को अनायास ही छेडने और परेशान करने लगा । शुरू मे तो मै कुछ नहीं बोला क्योकि मझले से अन्दर ही अन्दर मेरी खटपट चल रही थी ।
उस खटपट की मुख्य वजह ये थी कि हम लोगो को सुबह सुबह दातुअन आदि करके फ्रेश होने के बाद माँ कुछ ना कुछ खाने को देती थी जिसे हमारे भोजपूरिया गंवई भाषा मे हम मुंह मे डालने का आईटम कहते थे । और वो प्राय: बाजार का सामान तबकी दुर्लभ चीजे बिस्किट , जलेबी , बून्दी नमकीन या मां द्वारा बना ब्रेड पकौडा या कोई अन्य चटपटी चीज हुआ करता था । तो होता ये था कि मै फ्रेश होकर मां के पास कुछ मुहं मे डालने के लिये मागंने रसोईघर मे पहुंचता ।मां किसी बरतन मे कुछ खाने को दूसरे खाली बरतन के साथ ,इस निर्द्श के साथ देती कि बाबू के साथ बांटकर मुंह मे डाल लो (खा लो ) , उस समय प्राय: पिताजी बाबू / मझले को अपने पास लिये बरामदे मे बैठे रहते उनका दुलरूआ जो था उस पर उनका दुलार दिखाना या मां का ज्यादा केयरिगं होना मेरे बालमन मे जलन का एक कारण था , उस समय ये समझ कहां थी कि उसे आवश्यकता भी ज्यादा थी आखिर वो तकरीबन तीन साल का बच्चा ही तो था पर मै भी तो छ: साल का ही सही पर बच्चा ही था । खैर जलन से ज्यादा बडी वजह अन्दरूनी खटपट की ये थी कि जब वो मुंह डलौवा लेकर पिताजी के पास मझले को देने पहुंचता तो पिताजी दोनो को लगभग आधा आधा बांटकर दे देते । मै अकेले रहा था कोई हिस्सेदार नही था आदत पड गई थी स्वाद ले लेकर आराम से खाने की ।इधर मझला जिसके मुहं मे दांत भी मुझसे कम रहे होगें फटा फट अपना हिस्सा गप कर जाता पता नहीं कमबख्त चबाता चुभलता भी था या ऐसे ही निगल जाता था । खैर तो वो अपना भाग चट खतम कर मेरे हिस्से मे से मुझसे मागंने लगता मै नजरे चुराने लगता और अपना बचा भाग तेजी से खाने की कोशिश करता , तब वो निनियाते हुये ( बनावटी रूलाई रोते हुये -भोजपुरी भाषा का अपना ही रस है ) पिताजी से सिफारिश मुझसे दिलवाने के लिये करता । पिताजी वात्सल्य रस का कुछ देर आनन्द लेने हेतु बहंटियाने ( जान बूझकर भी नजरन्दाज करने ) के बाद मुझे पोटते ( पोटना -पुचकार कर बेवकूफ बनाकर अपनी बात मनवाना ) कि दे दो तुम्हारा बाबू है ना बडा होकर तुम्हारा लक्षमण , सेवक बनेगा मां से और मंगवाता हूं वगैरह वगैरह मै मन ही मन भुन भुनाता सेवक क्या खाक बनेगा अपना चट करके मेरा हिस्सा भी ले लेता है । मै पिताजी से डरता तो बहुत था पर बालमन अन्दर ही अन्दर विद्रोह करता रहता । उनके पोटने से कम प्रभावित होता और तेजी से खाने की कोशिश मे लग जाता फिर पिताजी का आदेशात्मक स्वर गूंजता कि अब बाबू को दे दो और मां से दोनो भाइयो के लिये और मागं लाओ । अब कोई चारा न बचता मन ही मन कोसते हुये बचा खुचा बाबू को देकर उसका खाली बरतन उठाकर माँ के पास पहुंचता कि पिताजी ने और देने को कहा है ।ऐसा लगभग रोज का किस्सा था । तब समझ मे नही आता था आज जानता हूं कि माँ बाप सब जानते व समझते थे परवरिश और वात्सल्य आनन्द स्नेह वर्षा का उनका अपना तरीका था | खैर तो दुबारा जब मै लेकर चलता तो मकान के अन्दर से बाहर बरामदे तक आने के रास्ते मे एक गैलरी पडती थी जो बच्चो के लिये लम्बी ही कही जाएगी । तो मै उस गलियारे मे पहुंचकर एकान्त पाता और रूककर थमककर चलता हुआ दुबारा ला रहे व्यजंन मे से अपने हक के लिये बेईमानी करता हर बार पहली मर्तबा तो ईमानदारी से जो कुछ मिलता पिताजी के पास समूचा ले जाकर बंटवारा करता पर मझले के चटपट चट करने से पार ना पा पाने के कारण दूसरी मर्तबा मे गैलरी मे ही इस तेजी से कि ज्यादा देर ना हो और किसी को शक ना हो जितना खा सकता खा लेता । फिर अपनी जाने मे शराफत ओढकर पिताजी को सब सौंपकर आधा लेता । यादो के पिटारे मे दो चार मर्तबे की घटनाये ही है पर शायद ये रोज का किस्सा था , जो मझले से हमारी अन्दरूनी खटपट का बडा कारण था ।
तो पुन: लौटते है उस बिछलौवा वाले अड्डे पर । शुरू की तटस्थता के बाद जब मझला मुझसे बचाने की उम्मीद करके अपनी तोतली जबान मे विनय से बचाने की फरियाद करने लगा कि भैया ये मार रहा है । तब मेरा भातृप्रेम अपनत्व कुछ जगा मैने विनय को मना किया कि भैया अब रहने दो मझला रो रहा है उसे तगं ना करो । पर विनय बाबू तो अपने जोम (बडे और तगडे होने का घमन्ड ) मे थे मेरी उपेक्षा कर छेड छाड सताना जारी रखा । मझले का रोना बढ गया और वो कातर नजरो से मुझसे रक्षा की उम्मीद से निरीह सा मुझे देखने लगा । विनय की
हेकडी ने और भाई की फरियाद ने खटपट वटपट सब पर धूल डाल दिया और मेरा क्रोध सीमा पार कर गया । मै आपा खो बैठा बाबू को उनसे अलग कर गोद मे उठा थोडी दूर बरामदे मे बैठा दौडता हुआ सीढिया उतरा और बिछलौवा के नीचे जहां ऊपर मुझे तिरस्कृत नजरो से देखते शेखी और शान से विनय भैया बैठे थे । मैने चट उनकी टागें पकडी और उन्हे बिछलौवा पर नीचे खींचा , अप्रत्याशित रूप से मुझे अतिआक्रमक देख विनय बाबू के होश शायद फाख्ता हो गये । उन्होने अपनी टागें छुडाकर खडा होने की कोशिश की परन्तु या तो क्रोध ने मेरी ताकत बढा दी थी या हडबडाहट मे वे कमजोर पड गये थे , वो बैलेन्स ना रख सके और गिर पडे । मैने उन्हे घसीटते हुये बिछलौवा पर से पूरा नीचे तक खैंच फेंका । उनके सर मे शायद गिरने से या घसीटकर मेरे नीचे फेंकने से तेज चोट लगी थी । मुझसे लडने के बजाय वे रोते हुये या यूं कहे कि भेंभियाते हुये घर के अन्दर दौड गये । अब मेरा सारा क्रोध हवा हो चुका था मझला भी सहमकर चुप हो चुका था कि अब तो मुझे माँ से मार पडेगी । मेरे माँ की ये बडी कमी थी कि जब कोई झूठी या सच्ची शिकायत( भोजपुरी मे उसे ओरहन कहते हैं ) लगाता तो वो मेरी सफाई कम सुनती पीटती ज्यादा थी । ओरहन नाकाबिले बर्दाश्त था उसके लिये । इघर विनय भैया घर के अन्दर गये उधर मै मझले को बालबुद्धि से तरह तरह से समझाने लगा क्योकि अब उसकी पीडा का प्रदर्शन ही मुझे मां के कहर से बचा सकता था । खैर अन्दर से मां की पुकार हुई मै गुड्डू को लेकर भारी मन से अन्दर पहुंचा जहां सुबकते हुये विनय बाबू अपनी चाची की आड मे खडे थे मेरी मां के अलावा पास पडोस की दो चार महिलाये और थी , दरअसल वो खाली समय महिला मन्डली के मीटिगं और गप्पबाजी का था । मै तो अन्दर ही अन्दर और गडा जा रहा था कि सबके सामने मां पिटाई करेगी । मेरी मां जरा भी लिहाज नही करती कहीं भी मुझे पीटने लगती थी । खैर मुकदमे की पुकार हो चुकी थी और मुलजिम पेश था । क्यो मारा विनय को ? मैने घिघियाकर सफाई दी कि पहले उन्होने मझले को बुरी तरह मारा । अब मुख्य गवाह यानि मझले के बयान पर सब निर्भर हो गया । मैने बडी उम्मीदो से उसकी ओर देखा कि मेरा सिखाया पढाया सब याद है ना । लेकिन घोर आश्चर्य मझला तो मेरी उम्मीदो से ज्यादा चतुर और तेज निकला वो शमा बाँधा कि मै हीरो और विनय बाबू विलेन बन गये । उसने बुक्का फाडकर रोते हुये अपनी तोतली जबान मे हिचकिया भरते हुये कहा कि विनय भैया उसको बिलावजह केवल रूलाने के लिये खूब मार रहे थे भैया यानि कि मै तो उसे छुडाने मे लगा था उसी क्रम मे मैने उन्हे बिछलौवा पर खींचा था वो गिर पडे थे गिरने से उन्हे चोट लगी थी भैया ने मारा नही था । मझले की बातो और सुबकने ने वो शमा बाँधा कि महिला मन्डली का फैसला मेरे पक्ष मे आया कि वे बडे है छोटो को सताना नही चाहिये वगैरह वगैरह । मै तो खैर मना रहा था कि पिटाई से बचा । बहरहाल हमे इस निर्देश के साथ कि जाओ खेलो आपस मे झगडना नही मुकदमा बर्खास्त हुआ ।
मै तो चुप हो चुके मझले के दुबारा जीवन्त रोने और बातो से इतना प्रभावित हुआ कि मन मे पडे सारे गिले शिकवे हवा हो गये । उस पर खूब प्रेम उमडा मेरा पक्का बाबू लगा । कई दिनो तक हम दोनो भाई बगैर झगडे के रहे । मेरा हिस्सा वो खा लेता तो मै मन ही मन शिकवा रखने की बजाय उदारता दिखाते हुये अपने मे से और भी देने की कोशिश करता । मझला भी कभी कभी मेरे पसन्दीदा चीजो को अपने मे से मुझे निकालकर देता । इस तरह प्रेम और प्रतिद्वन्दिता मे लगे हम बडे होते रहे । .......
क्रमश: जारी