अन्दर आसुओं का इक सैलाब बह जाता है
जब कोई आंसूं आँखों के अंदर रह जाता है..
भटकते रहे दूर सहराओं मे रात भर
इक मेरा मुकद्दर है की उसे घर का पता नहीं आता है...
कब बदला है चांद दरिया के इशारे पर
इक आईना है जो तेरा अक्स ढूँढता नजर आता है...
गलती से जब भी खोला हो पिंजरा किसी ने
घर का परिंदा बस मुंडेर तक जाता है..
जिंदगी मे इत्तफाक मुझे गंवारा नहीं दोस्त
जिनसे नजरे नहीं मिलती मैं उनसे दिल मिल नहीं पाता है...
वो पूछता है मुझसे की मोहब्बत बची कहाँ है
मेरा जवाब खामोश नजर आता है....
कौन पूछता है रात के अंधेरे मे घर किसका
जिसको मिला ठीक, नहीं तो मुसाफिर हो जाता है....
अन्दर आसुओं का इक सैलाब बह जाता है
जब कोई आंसूं आँखों के अंदर रह जाता है......