एक बार,
काम निकला,
मैं भी पहुंचा,
दफ्तर के अंदर,
चारों तरफ देखा,
किसी ने न पूछा,
मन में सोच,
शायद कोई उठाएगा प्रश्न,
क्यों और कैसे,
लेकिन यहां सब जैसे के तैसे।
मैं परेशान,
आखिर एक काउंटर पे रूका,
सामने वाले ने,
गर्दन उठाकर भी नहीं देखा,
मैं खांसा,
शायद आए कोई प्रतिक्रिया,
चुपचाप हाथ उठाया,
और आगे जाने को कहलाया,
उसपे बहुत गुस्सा आया,
लेकिन हारकर आगे कदम बढ़ाय।
परेशानी में इजाफा पाया,
सीट पे कोई नहीं पाया,
फिर लौटा,
बोला श्रीमान,
वहां तो कोई नहीं दिखता,
जबाव आता,
क्या कोई आफ़त आ गई,
रूको कुछ न कुछ,
निकलेगा निदान।
बहुत छटपटाया,
मजबूर होकर,
वहीं डेरा जमाया,
आखिर एक सफेद धारी आ गये,
सारे दफ्तर वाले,
सकपका गये,
उनके गन मैन ने,
हमें धक्का लगाया,
और सफेद धारी को आगे पहुंचाया,
हम परेशान,
लगे सुगबुगाने,
तभी पीछे से आई आबाज,
अरे भाई! प्रधानजी हैं,
इनका तो पहले आना बनता है,
इनके सर पर ही,
सबका खाना पीना चलता है।