महादान
अपने जीवन की कठिनाइयों से जूझते-जूझते अंत में निराश हो एक सूरदास एक महात्मा की शरण में जा पहुंचा। उनके चरणों को अपने आंसुओं से भिगोते हुए वह कहने लगा,
"महामना, मुझे इस विकलांगता से मुक्ति का कोई उपाय बताइये, वरना मैं इस अंधकारमय जीवन को समाप्त कर दूंगा।"
महात्मा ने उस दुखी प्राणी पर एक दयामयी दृष्टि डाली और मुस्कुराते हुए कहा,
"जीवन का अंत करना तो पाप होगा।"
"पाप तो मैं अब भी कर ही रहा हूं। शास्त्रों में कहा गया है-पापाय परपीडनम्। मेरी कठिनाइयां देख कर मेरे बंधु-बांधव दुःखी न होते होंगे।"
"हां, यह तो है।"
" इसीलिये महामना, यदि आप के पास कोई उपाय हो तो बताइये वरना मैं इस जीवन को समाप्त कर इस पापमय जीवन से मुक्त हो जाने का निश्चय कर चुका हूं।
"एक उपाय है, महादान।"
"महादान? वह क्या है, और कैसे किया जाता है?"
"उसकी खोज तुम्हें स्वयं करनी होगी। तुम जब इसे कर लोगे, उसी क्षण से तुम्हारे सभी कष्ट दूर हो जायेंगे।"
सूरदास उस समय महात्मा को प्रणाम कर वहां से चला गया। उसके जाने के बाद संयोग से तभी वहां उसी तरह का निराश एक अपंग आ पहुंचा। उसकी भी महात्मा से वैसी ही वार्तालाप हुई जैसी कि कुछ देर पहले सूरदास के साथ हुई थी। उसे भी महात्मा ने महादान का उपाय सुझाया।
महादान क्या है और कैसे किया जाता है, जानने के लिये सूरदास और अपंग इधर-उधर बहुत भटके लेकिन उन्हें इसके बारे में कहीं भी, किसी से भी कुछ पता नहीं चल पाया। इस तरह भटकते-भटकते एक दिन दोनों की एक दूसरे से भेंट हो गई। दोनों दुखी प्राणियों ने जब अपनी-अपनी कहानी एक-दूसरे को सुनाई तो दोनों इस नतीजे पर पहुंचे कि उस महात्मा ने उन्हें मूर्ख बनाया है। अब क्या था, वे दोनों अपने पूर्व निश्चय के अनुसार प्राण त्यागने को तैयार थे।
दोनों ने निश्चय किया कि नदी की ऊंची कगार से छलांग लगा कर प्राण त्यागना सबसे अधिक सुविधाजनक रहेगा। लेकिन इसमें कुछ कठिनाइयां भी थीं। ऊंची कगार तक पहुंचने के लिए खड़ी चढ़ाई पार करनी थी जब कि अपंग को सीधे रास्ते पर चलना भी दुष्कर होता था। उसी तरह नदी और उंची कगार के मार्ग का ज्ञान सूरदास को न था, इसलिए उसका वहां तक पहुंचना अत्यंत कठिन था। किन्तु अब वह दोनों प्राण त्यागने का दृढ़ निश्चय कर चुके थे, इसलिये वह दोनों एक दूसरे की मदद करते हुए नदी की ऊंची कगार की ओर चल पड़े। अपंग रास्ता बताता जा रहा था और सूरदास अपंग को पहियेदार ठेले पर बिठा कर ढकेल रहा था।
ऊंची कगार पर पहुंच कर वह दोनों जैसे ही नदी में छलांग लगाने को उद्यत हुए, महात्माजी वहां प्रकट हो गये,
"तुम दोनों महादान को समझ नहीं सके फिर भी महादानी बन गये और अब तुम्हारे कष्टों के दिन दूर होने को हैं।"
"हम समझे नहीं" , दोनों के मुख से एक साथ निकल पड़ा।
"भाई सूरदास तुमने अपने पांवों की सेवा इन अपंग भाई को दान में दी और अपंग भाई तुमने अपनी आंखों की सेवा इन सूरदास भाई को दान में दी, तभी तुम लोग यहां तक पहुंच सके। यह दान निःस्वार्थ था क्योंकि यहां पहुंच कर तुम्हारा प्राण त्यागने का निश्चय दृढ़ था। स्वयं कठिनाइयों का सामना करते हुए भी इस तरह किया गया निःस्वार्थ दान ही महादान है। जब तुम दोनों प्राण त्यागने के लिए महादान कर सकते हो तो निष्कंटक जीने के लिए महादान क्यों नहीं करते?"
महात्माजी की बात उन दोनों दुखी प्राणियों की समझ में आ गई और उसके बाद एक दूसरे की मदद करते हुए उनका सहज जीवन गुजरने लगा। अब से जो भी दुखी, जीवन से निराश मनुष्य महात्मा जी की शरण में आता, वह उसे महादान का मंत्र दे कर उन दोनों महादानियों के पास उसका रहस्य जानने के लिए भेजने लगे। इस प्रकार उनकी प्रेरणा से अनेक लोगों का जीवन सुधरने लगा।
***