कुछ पल चुराकर रक्खे है ,
यादों की अलमारी में
खोलती हूँ, जीती हूँ, उन पलों को,
जब थक जाती हूँ ,
इस जीवन की आपाधापी में ।
कुछ पल गुड़िया गुड्डों के ,
कुछ ऊंची ऊंची पेंगों के,
नानी दादी की कहानी के,
कुछ मां की मीठी डॉटों के,
कुछ पल वह पेड़ पर चढ़कर,
कच्चे-पक्के फल खाने के,
कुछ पल सखियों संग हसने के,
कुछ लोगों की फरियादों के ,
कुछ पल वह छुप-छुप कर तकने के,
कुछ छुपकर ताके जाने के ,
कॉपी में बंद गुलाबों के ,
उनसे टकरा जाने के,
वह बिन बोले इजहारों के
आखों के मौन इशारे के ,
कुछ पल वह भी है समेट लिए
जिनको हम जी भी नहीं पाए,
वह कहते कहते रुक जाने के,
वह रीति रीति आखों के ,
वो लरजते लबो के थरथराने के ,
वो टूटे झूठे वादें के
वह प्यार के अधूरे एहसांसों के,
कुछ पल विदाई की बेला के ,
कुछ माँ पापा के आँसू के ,
कुछ सखियों संग ठिठोली के,
वह प्रिय मिलन के सपनों के,
कुछ प्रथम मिलन की यादों के ,
कुछ मातृत्व के एहसासों के,
सबको चुन चुन कर रक्खा हैं ,
मैंने यादों की अलमारी में ,
जब थक जाती हूं जीवन से,
फिर उनको मैं जी लेती हूँ,
ये पल नहीं अमृत बूँदें हैं
मैं वक्त बेवक्त पी लेती हूँ।
मौलिक एंव स्वरचित
अरुणिमा दिनेश ठाकुर