निकली एक रोज़ मैं ख्वाहिशों के बाज़ार में ,
एक शीशा दिखा खूबसूरत सा,
मचल के पूछा मैंने क्या है इसकी ख़ासियत !
दुकानदार ने बोला ,
ये दिखाता है तुम्हारा अक्स !
जितना साफ़ रखोगे उतनी साफ़ चलेगी ज़िन्दगी !!
मन में सोचा, एक शीशा ही तो है,
पोंछ दूँगी रोज़ , कम से कम ज़िन्दगी तो चलेगी साफ़ I
शान से लायी और टाँग दिया एक कोने में ,
रोज़ पोंछा कि शायद इससे साफ़ चले ज़िन्दगी ।
एक सुबह उठी तो देखा धुंधला था शीशा,
साफ करने की कोशिश में पोंछते पोंछते
एक रोज बीच से चिटक गया मेरा अक्स I
खूब चाहा कि अब ना टूटे ये,
पर ज़िन्दगी अच्छी चले इस ख्वाहिश में
पोंछती हूँ रोज।
पर धीरे धीरे धुंधलाता जा रहा है मेरा अक्स।
चिटकता जा रहा है वो शीशा ।
आजकल जोड़ रही हूँ,
धुँधले टुकड़ों को ,
पोंछती हूँ रोज़ उस चिटके शीशे को
इस ख़्वाहिश के साथ कि कभी तो
दिखे मेरा अक्स पूरा साफ़ |
पर पता है -
अब बाज़ार में धुंधले शीशे ही आते हैं ,
धुंधले ही बिकते हैं,
और धुंधले ही सज़ते हैं !
और हम चमकाने की ख्वाहिश में
हर पल
तोड़ते जा रहें हैं
टुकड़ो में अपने अक्स को।
मौलिक एवं स्वरचित
अरुणिमा दिनेश ठाकुर