पिता होते हैं वट वृक्ष,
जिसमें फल नहीं आते हैं ।
पर उनकी घनी शीतल छाया
ज़िंदगी की कड़ी धूप में
बहुत याद आती हैं।
जिस पर बसेरा होता है
छोटे-छोटे पक्षियों का ।
उनके जाने के बाद वीरान हो जाता है
पूरा शहर ।
वह अक्सर दिख जाते हैं
मेरी यादों में,
काले चश्मे के
बड़े से फ्रेम के उस पार से
झाँकती आँखें
जैसे सब कुछ जानते हों।
दोनों हाथ बाँधे कुर्सी पर
पैरों को साधे बैठे
आप जैसे हो चेतना के सागर में
पूरी तरह निमग्न
हमारी हर बात पर मुस्कुराते
हौले से "हूँ" कहकर सिर हिलाते
जैसे कि दुनिया की हर मनचाही चीज
आपने कर दी हो हमारे नाम
घर के अंदर तो कभी बाहर
कभी जाड़े की ठिठुरती सर्द रात में
गाँव से, खेतों से आते
खुद ठिठुरते काँपते
पर हमें रजाई ओढ़ाते ।
गर्मी की दोपहर में तपती लू में
गमछे से मुँह बांध कर हमारे लिए
कुल्फी लाते
जैसे कि प्रण था
हमारे ख़्वाबों को कभी टूटने ना देंगे
कभी चुपके से हमे सहेजते
धीरे से समेटते
शांत से आप
जैसे हों हमारी परेशानियों का अंत ।
जैसे हों भगवान का आर्शीवाद।
मैलिक एंव स्वरचित
✍️अरूणिमा दिनेश ठाकुर ©️