ऑफिस से थक हार कर
जब शाम को घर जाता हूँ,
मुस्कुरा देती है वह
और मैं संवर जाता हूँ।
जानता हूँ मृग मरीचिका
सी हैं जिंदगी हमारी
फिर भी पानी की तलाश
में उधर जाता हूँ।
जूझ लेता हूँ परेशानियों से
अक्सर अकेला सिर्फ
उसकी सवाल करती
आँखों से डर जाता हूँ।
जब भी वह थक कर
मेरे काँधे पर सर रखती है
ना जाने क्यों मैं टूट
कर बिखर जाता हूँ।
चाहता हूँ देना उसको
जीवन के सुख सारे
चादर छोटी पड़ जाती है
पैर नहीं फैला पाता हूँ। '
उसकी मासूमियत
दुखा देती है दिल को
बाकी गम सारे तो
सह जाता हूँ मैं
थक गया हूँ चलते चलते,
ना जाने जाना
किधर है, ना जाने
किधर जाता हूँ।