माँ धरती का रूप,
पिता आकाश हुआ करता है ।
माँ आस्था की धूप ,
पिता विश्वास हुआ करता है ।
माँ के उपकारों का कोई
मोल चुका ना पाया l
और पिता की कठिन साधना
कोई समझ ना पाया I
माँ है अक्षर शब्द,
पिता आख्यान हुआ करता है।
माँ गीता का पाठ,
पिता व्याख्यान हुआ करता है।
सतत अभावों पीड़ाओं में
मर्यादित रहता है ।
सुत हित गृह सुख त्याग,
पिता निर्वासन दुख सहता है I
माँ पावन अनुभूति ,
पिता अस्तित्व हुआ करता है ।
माँ है सहज प्रतीत ,
पिता व्यक्तित्व हुआ करता है ।
कैसा भी हो पुत्र ,
पिता के उर में रहा समाया ।
पिता मगन मन देखा करता ,
सुत में अपनी छाया I
पाकर सुत सानिध्य, पिता
धनवान हुआ करता है ।
माँ है श्रद्धा भक्ति ,
पिता भगवान हुआ करता है I
जीवन की अटपट राहों पर
उंगली पकड़ चलाता I
उन्नति के उन्नत शिखरों पर
बाहें थाम चढ़ाता I
सुत माँ का दृग बिंदु,
पिता का उर बन्धु हुआ करता है।
माँ की ममता और
पिता की समता कहीं नहीं है।
मात -पिता से बढ़कर
जग की कोई छाँव नहीं है I
माँ शीतल चंद्रिका,
पिता दिनमान हुआ करता है ।
माँ वंशी की तान
पिता घनश्याम हुआ करता है।
माँ धरती का रूप,
पिता आकाश हुआ करता है ।
मौलिक एंव स्वरचित
अरुणिमा दिनेश ठाकुर ✍️
पढ़ने के लिए आभार