कलकल बहती
नदी की जलधारा
और साथ में थे
धूप में चमकते रेत के कण
लगता है जैसे कि प्रेयसी नदी ने
स्वीकार कर लिया साथी पत्थरों को
या नदी ने अब विवाह कर लिया पत्थरों से
और जब नहीं साथ ले जा पाई
अपने प्रेमी को
जब नहीं बदल पाई पत्थरों को पानी में
तो तोड़ने लगी
हर पल उनका आत्माभिमान
और
पत्थर भी नदी को ना बदल पाए
उन्होंने बदलना चाहा नदी को
रोकना चाहा उसके वेग को
पर कौन वेगवती को रोक सकता है
और नदी भी पत्थरों के
प्रेमपाश में बंध कर
कब तक खुद को समेटती
नहीं हो सकता था ऐसा
तभी तो नदी ने चुना आसान सा रास्ता
पत्थरों को तोड़ने का
हर लहर का कटाक्ष
पत्थरों पर वार पर वार
आखिर कब तक सहते पत्थर
धीरे-धीरे टूटने लगे
सुनहरे कणों में
जब भी शांत बहती नदी में
होती कुछ हलचल
सुनहरे कण चमकने लगते इंद्रधनुषी रंगों में
और खत्म होते ही उथल-पुथल
समा जाते वे कण
नदी की अतल गहराई में
सपनों की तरह
सपने भी सुनहरे ही होते हैं
परिस्थितियों के बहाव में टूट कर बिखर जाते हैं
सुनहले कणों में
घने गहरे अंधकार में
जहां ना होते रंग और रोशनी
ना कोई आस का सवेरा
बस होता खुद का ही
'स्वयं' बिखरा हुआ कणों में।
मौलिक एवं स्वरचित
✍️ अरुणिमा दिनेश ठाकुर ©️