पिछले साल बड़ा शोर था
इस साल भी हैं
बड़ा डर हैं,
विश्वव्यापी महामारी का I
उससे बहुत सारे लोग मरे
इसलिए उसे विश्वव्यापी महामारी बताया गया
महामारियाँ तो और भी है भूख की,
गरीबी की, हिंसा की, हवस की
लोग तो इनसे भी मरते हैं
पर इन्हें तो महामारी ना बताया गया
इनसे तो हमें ना डराया गया
पर कोरोना से हमें खूब डराया गया
डर को खूब पुच्कारा गया दुलारा गया
विश्वव्यापी बनाया गया
सच कहें तो पिछले पूरे साल
हम डर से डरते रहे
हमें डर से डराया गया
डर जो बचपन से ही बैठा दिया जाता है
हमारे कच्चे मनों में
डर जिस के साए में जीती है नौजवान पीढ़ी
उसके सपनों, उसकी उमंगों, उसकी चाहतों को
एक ताख़ पर रखकर
एक अदद नौकरी ना मिल पाएगी
सिर्फ इस डर से पढ़ती है,
जीती है नौजवान पीढ़ी ।
माँ-बाप डरते हैं कि अगर नहीं मिली
उनके लाल को नौकरी तो ?
लोग तो अच्छे काम भी इसीलिए करते हैं
क्योंकि भगवान से डरते हैं।
पूजा भी इसीलिए करते हैं
कहीं भगवान नाराज हो गए तो?
माँ बाप डरते हैं बेटे को प्यार करने से
कहीं लाड़ प्यार में बिगड़ गया तो ?
बहू को मान सम्मान देने में
कहीं सिर पर चढ़ गई तो ?
बेटी को आजादी देने में
कल को क्या पता कैसा ससुराल मिलेगा?
क्या पता वहाँ यह सब चलेगा ?
क्या पता निभा पाएगी या नहीं ?
हम डरते हैं लोगों की दोस्ती से,
पता नहीं क्या मतलब होगा ?
क्यों लिख रही हूँ यह सब !
क्योंकि मुझे लगता है
कोरोनावायरस से बड़ी महामारी तो डर है
आज हम समाज को नहीं गढ़ रहे हैं
समाज को नहीं बदल पा रहे हैं
समाज, उसके डर के हिसाब से
अपने आप (स्वयं) को बदलते जा रहे हैं
हम डर से लड़ना नहीं चाहते
डर हमें स्वीकार है
यही डर से हमारी हार है
डर है सांप्रदायिकता का
बेईमानी का, नेतागिरी का,
रिश्वतखोरी का, कुप्रथाओं का
हम जीते हैं मर मर के ।
आखिर जीने की चाह में
हमने कोरोना से डरना छोड़ दिया
और लड़ना सीख लिया ।
जैसे कोरोना के खिलाफ एकजुट हुए
बगैर सोचे कि जाति क्या है, धर्म क्या है।
उससे लड़ने के हर संभव प्रयास किए।
चलिए हम फिर से हाथ बढ़ाएं
इस बार डर को हरायें.
एक डर मुक्त समाज बनाएँ।
14/01/2021
मौलिक एवं स्वरचित
✍️ अरुणिमा दिनेश ठाकुर ©️
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