हे शिव ! मैंने "वरा" है तुम्हें,
तुम्हारे शिवत्व के लिए ।
निशंकता, निःस्पृहता, निश्चलता के लिए।
पर शायद तुम विचलित होते हो
आकाँक्षाओं, अपेक्षाओं से।
मानती हूँ, शिखर से देखो तो
सांसारिकता क्षुण्ण सी लगती है।
पर क्या करूँ -
मैं तो अभी खड़ी हूँ रास्ते में
सशंक, सप्रेम ।
और वहाँ से तुम - दूर दिखते हो।
पर विश्वास रखो।
मेरी क्षमता पर। मैं राह में ही हूँ।
कभी यूँ ही ,
कभी यूँ ही साथ चलते चलते ,
मैं लड़खड़ा जाऊँ -
और थाम लो तुम
अपनी बाँहों में ।
कभी यूँ ही -
भीगी पलकों से मैं ,,
तुम्हें देखूँ
और तुम धीरे से,
मेरे आँसू गिरा दो ।
कहते हैं ये रिश्ता ही ऐसा है ,
एक रोये तो दर्द दूसरे को होता है ।
तो आओ ऐसा करें !
ये इतना सारा प्यार जो छुपा है,
उसे बाहर निकालें I
कुछ पास रखें, कुछ बाँट डालें ।
क्यूंकि प्यार आगे चलने की, जीने की ताकत देता है ।
फिर भी आज मन व्यथित है,
काफ़ी कुछ परेशान ;
तुम पूछते हो,
क्यूँ सोचती हो !
कैसे समझाऊँ!
मन आहत होता है,
जब कलुष सा आता है रिश्तों में,
जब बच्चे सा मन लिए आप बढ़ते हो किसी की ओर,
सोचते हो आपका प्यार, आपकी पवित्रता
शायद राहत दे उन्हें आज की तपिश से !
पर पता चलता है कि -
सब पके हुए हैं,
कच्चे तो तुम हो !
सब जानते हैं क्या सही है,
ग़लत तो तुम हो !
जब समाज की धारणाओं को मैं ग़लत साबित करने निकलती हूँ!
ख़ुद खड़ी हो जाती हैं -
मुँह खोल के अपनी सत्यता सिद्ध करने को !
पर मैं हार नहीं मानती !
क्यूँकि तुम मेरे साथ हो !
तुम्हारी आँखों का विश्वास
मुझे ताक़त देता है
एक नयी शुरुआत की !
जो मुझे कभी खड़ा नहीं करेगा
किसी सीता की जगह !
क्यूँकि ‘शिव की शिवा को
कभी प्रमाण नहीं देना पड़ा ।
मौलिक एवं स्वरचित
✍️ अरुणिमा दिनेश ठाकुर ©️