मन के समंदर में
हिलोरें मारता
उफनता सिमटता
पांव पसारता
तुम्हारा प्यार
किसी वटवृक्ष सा
धीरे धीरे
बढ़ता , विस्तार लेता
जड़े फैलाता
बाँहों में भरता
तुम्हारा प्यार
किसी बंद किताब सा
धीरे धीरे
खुलता हुआ
साँसों में
घुलता हुआ
तुम्हारा प्यार
कभी छलकती शराब सा
महकती बयार सा
चढ़ते खुमार सा
निकलते गुबार सा
तुम्हारा प्यार
मैं मूक तट सी
निहारती तुम्हें
सवांरती तुम्हें
स्वीकारती तुम्हें
आते जाते लम्हों में
पुकारती तुम्हें
चाहती तुम्हें
और चाहती
सिर्फ तुम्हारा प्यार
मालुम हैं
तुम्हारी मुस्कान में
मेरे होंठ हसते हैं
तुम्हारे सपने मेरे .
दो नैनों में बसते हैं
हॉं यही इश्क है
थोड़ी सी बेचैनी है
थोड़ा सा इंतजार है
थोड़ी उल्फत है
बहुत सारा प्यार है।
मौलिक एवं स्वरचित
अरुणिमा दिनेश ठाकुर
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