मेरा दिल, मेरा दिमाग, मेरा वजूद
सब बटा है टुकड़ों में ।
एक टुकड़ा जो मैं
बाबुल के आंगन में छोड़ कर आई हूँ।
दिल और दिमाग दोनों ही वही
गुड़िया की अलमारी में छोड़ कर आई हूँ
मेरा स्वतंत्र वजूद जो मैं वहीं कहीं
अलगनी पर टांग आई हूँ।
एक टुकड़ा जो आज
बच्चों के साथ रहता है
बच्चों के स्कूल बैग में,
कभी बच्चों की साइकिल में
बस उनके साथ ही घूमता रहता है
दिमाग जो सब्जी काटते काटते भी
उनका प्रोजेक्ट तैयार करता है
वजूद जो उनकी खुशी में
खुद की खुशी ढूंढता है ।
एक टुकड़ा जो है
सहेलियों और दोस्तों के पास
जिससे आज भी मिलता है
जीवन का स्पंदन प्यार की उष्मा और
जीवित होने का एहसास और
मेरा एक टुकड़ा वजूद महक जाता है ।
एक टुकड़ा जो रहता है
हमेशा इनके साथ
इनकी शर्ट के बटन पर या
हाथ की घड़ी पर घड़ी की सुइयों के साथ
सास ससुर की दवाइयों पर
एक टुकड़ा वजूद जो हर पल
व्यस्त रहता है
गृहस्ती की गणित में जूझता रहता है
एक टुकड़ा जो आज भी दफन है
उस गुलाब के फूल के साथ
किसी पुरानी किताब में
दिमाग जो जब भी खाली होता हैं
सोचता है उसी के बारे में
मेरा वजूद जो दिखता है आज भी
उसकी इंतजार करती आँखों में ।
अक्सर सोचती हूँ
मैं टूटे टुकड़ों से बनी हूँ
या टूट गई हूँ अनेको टुकड़ों में।
क्या टुकड़ा टुकड़ा वजूद ही
अब मेरी पहचान हैं।
या हर नारी टूटे टुकड़ों की एक
शानदार कलाकृति हैं,
इसलिए बेमिसाल हैं।
माैलिक एंव स्वरचित
✍️ अरुणिमा दिनेश ठाकुर ©️