मन के बंद दरवाजे को तुम खुलने दो,
मन की पीड़ा को बाहर निकलने दो,
भरा है मन में जो आक्रोश,
उस पर प्यार की ठंडी छांव पड़ने दो,
बंद चीजें अपने अंदर सड़न पैदा करती हैं,
मन की भावनाओं को क़ैद न करो,
उन्हें खुली फिजाओं में सांस लेने दो,
दरवाजे चाहे मन के हों,या घर के,
बंद रहने से अपनी ताकत खो देते हैं,,
फिर जब खुलते हैं तो चरमरा कर टूट जाते हैं,
इसलिए कभी किसी भी वस्तु को क़ैद न करों,
जब वह आज़ाद होंगी तो क़यामत ढा देती हैं,
भावनाएं कलुषित विचार का सागर बन जाएंगी,
फिर आक्रोशित होकर विनाशक बन जाएंगी,
हर रिश्ते की मर्यादा तोड़कर बह जाएंगी,
चीजें टूटकर मिट्टी में मिल जाएगी,
दरवाजे खुलने के लिए होते हैं,
बंद रहने वाली वस्तु का विनाश,
होकर रहता है उसे कोई रोक नहीं सकता,
इसलिए घर हो या मन,
दोनों को खुला रहने दो,
वरना वक्त से पहले ही काल में समा जाएंगी।।
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डॉ कंचन शुक्ला
स्वरचित मौलिक
31/3/2021