"कोस-कोस पर बदले पानी
चार कोस पर बदले पानी "
घर की मिट्टी में खेले हम,
परदेस के दिन अब देख रहे।
अब तक जीते थे अपनों के संग,
अब दुनिया परायी देख रहे।
जो अपनापन मिलता अपनों के संग,
परदेस कहां मिल पायेगा।
जो प्रेम बंधुत्व पाया हमने,
उसका अहसास कहां मिल पायेगा।
भारत की मिट्टी से प्यार हमें,
हर देश दूर तक मिलता है।
पर दुनिया के झूठे चरित्र देख,
हमको सदा डर लगता है।
परदेस में बन जाते कुछ अपने,
वह बात नहीं जो अपनों में।
जो सच मिलता देखने को,
वह बात नहीं यहां सपनों में।
जिस मिट्टी में जन्म लिया,
उस मिट्टी की महक नहीं मिल पाती।
अपनी जन्मभूमि की यादें,
परदेस सदा हमें सताती।
जिस उपवन में हमने देखा,
खिलते फूलों की वादियों को।
उस महक के हम गुलाम सदा,
नहीं भूलेंगे उन सदियों को।
जहां दर्द के सदा सहभागी थे,
यहां हम अकेलेपन में जीते।
पेट की खातिर हम अपनों से,
परदेस में रहकर जीवन जीते।