नई दिल्ली: संगीत में भारी भरकम साउंड को बेस कहते हैं. इसलिए गाना है बेबी को बेस पसंद है. वैसे अंग्रेजी में बेस की सही स्पेलिंग BASS है पर इसका उच्चारण BASE (बेस) है. कांग्रेस के चाणक्य प्रशांत किशोर ने इसी हिट गाने पर गठबंधन का नारा 'यूपी को ये साथ पसंद है' बनाया है. गाना तो अभी भी सुपर हिट है पर शायद गठबंधन उतना हिट नही जा रहा है.
बेस का मतलब आधार भी है. इसलिए दलितों की प्रमुख जाति, 'जाटव' को बहनजी का बेस वोट कहा जाता है. यानी मायावती के वोटबैंक का असली आधार जाटव है और उनके चुनाव का सारा गणित इसी बेस वोट पर खड़ा है. आएये इस बेस वोटबैंक के कुछ आंकड़े देखते हैं. यूपी में जाटव कुल दलित वोट के 56 फीसदी हैं और मायावती को ये वोट आँख बन्द करके मिलते हैं. लेकिन यूपी की 21 प्रतिशत दलित जनसँख्या में 16 प्रतिशत पासी, 6 -6 प्रतिशत धोबी और कोरी , 3 .3 प्रतिशत बाल्मीकि और 2 प्रतिशत खटीक जातियां भी हैं जो अक्सर बहनजी के साथ नही चलती हैं.
यानी लगभग 54 प्रतिशत दलित वोटर ,मायावती का अंध भक्त नही है. शायद इसलिए बहनजी ने कुछ साल पहले ब्राह्मण भाई चारा समितियां बनाई थीं और धीरे धीरे उसमे गैर जाटव दलित और गैर यादव ओबीसी को जोड़ना शुरू किया. उनका मकसद यूपी में अपने वोट बैंक को बढ़ाना था. इस रणनीति के तहत 2007 में वो कामयाब तो हुईं लेकिन सत्ता में आते ही उन्होंने सिर्फ अपने बेस वोट यानी जाटव को ही मलाई खाने दी. जाटव अफसर और जाटव ठेकेदार ही बहनजी की सत्ता के साझेदार बने. बाकी वोटरों की बहनजी ने सुध नही ली.
2014 में जब लोकसभा चुनाव आये तो बहनजी को सबसे बड़ा झटका तब लगा जब जाटव और कुछ सीटों पर मुसलमान छोड़कर, उनका सारा वोटबैंक मोदी की झोली में जा गिरा. पहली बार मायावती यूपी में सारी सीटें लड़ने के बावजूद एक भी सीट जीत नही पायी. दरअसल बेस वोट के अलावा बहनजी को सबने ख़ारिज किया, ठीक वैसे ही जैसे उन्होंने सत्ता पाते ही जाटव छोड़ सबको हाशिये पर रखा था.
बहनजी की सियासत की सबसे कमज़ोर कड़ी ये है कि वो खुद जिस जाटव जाति की हैं उस जाटव के अलावा उनका यूपी में कोई दूसरा बेस नही है. यही हाल मुलायम सिंह यादव का है. यादव वोट के अलावा मुलायम /अखिलेश का कोई दूसरा बेस वोट नही है. जीत के लिए मुलायम और मायावती दोनों अपने बेस वोट के साथ मुसलमानो को रिझाने की कोशिश करते हैं. और बाकी जातियों तक पहुँचने के लिए सीट वार टिकट देते हैं. यानी कुर्मी बाहुल इलाके में बेनी प्रसाद वर्मा और ठाकुर बाहुल्य इलाके में कोई अरविन्द सिंह या अरिदमन को साइकिल पर चढ़ाया जाता है.
मित्रों, यूपी का ज़मीनी सच ये है कि प्रदेश की दोनों बड़ी रीजनल पार्टियां, सपा-बसपा, आज अपने बेस वोट के जाल में ही उलझ गयी हैं. जिस जाति के सहारे ये सत्ता तक पहुंची थी उसी जाति के तन्त्र से अब मात खा रही हैं. सच यही है कि पिछले दो दशकों की सत्ता के बावजूद, बसपा 12 -13 प्रतिशत जाटव और सपा 8 -9 प्रतिशत यादव के अलावा दूसरी हिन्दू जातियों में अपना बेस वोट नही बड़ा सकी हैं. बहुजन या समाजवाद के नाम पर दोनों ने सिर्फ अपनी ही जाति को पाला पोसा और आगे बढ़ाया.
निसंदेह, मायावती 2017 में अखिलेश के लिए बड़ी चुनौती होती. वे, अखिलेश के लचर कानून-व्यवस्था वाले राज को भुना कर, चुनाव जीत भी सकती थीं. लेकिन यूपी में अलीगढ से गोरखपुर और सहारनपुर से वाराणसी तक के चुनावी सफर के बाद, मैं ये कह सकता हूँ, कि मायावती आज उतनी ताकतवर नही दिख रही जितनी 2007 में वो थीं.उनके संगठन में पहले जैसा दम नही दिख रहा और उनकी भाई चारा और ब्राह्मण समितियां भी पहले जैसी सक्रिय नही रहीं. वो रैलियां तो करती जा रही ही हैं लेकिन पहले जैसा उत्साह नही दिखता. और ओबीसी और सवर्ण जातियों को भूल, जिस 19 प्रतिशत मुस्लिम वोट पर उनकी निगाह गढ़ी थी वो खैरात सपा में भी बंट रही है.
एक लाइन में कहूँ, तो
बहनजी की विडम्बना ये है कि....
बहनजी को सिर्फ बेस पसंद है.