54 बरस में भारत कहां से कहां पहुंच गया। 1963 में पहली बार इसरो को साइकिल के कैरियर में राकेट बांधकर नारियल के पेडो के बीच थुबा लांचिग स्टेशन पहुंचना पड़ा था। आज दुनिया भर के सौ से ज्यादा सैटेलाइट को एक साथ लांच करने की स्थिति में भारत के वै ज्ञान िक आ चुके हैं। अंतरिक्ष देखना छोड दें तो जमीन पर खडी साइकिल की स्थिति में कोई बदलाव आया नहीं है। 1981 में बैलगाडी पर सैटेलाइट लादकर इसरो लाया गया था और देश का मौजूदा सच साइकिल और बैलगाडी से आगे क्यों बढ नहीं पा रहा है। इसे जानने से पहले राजनीति क तौर पर सत्ता के लिये नेताओ के लालच को ही परख लें। जो किसान मजदूर और गरीबी के राग से आगे निकल नहीं पा रहे हैं। यानी 2017 में भी बात गरीबों की होगी, किसानों की होगी, मजदूरों की होगी, भूखों की होगी।
यानी बैलगाडी पर सवार देश के 80 फीसदी लोगों की रफ्तार साइकिल से तेज हो नहीं पा रही है। इस सच को जानने के लिये यूपी चुनाव को नहीं बल्कि सत्ता संभाले सरकारों के सच को ही जान लें। तमिननाडु की सरकार दो रुपये के भोजन के वादे पर टिकी है। छत्तीसगढ़ की सरकार दो रुपये चावल देने पर टिकी है। उडीसा की सरकार मुफ्त राशन देने पर टिकी है। पंजाब, राजस्थान, मद्यप्रदेश, बंगाल की सरकारें दो जून के मुफ्त जुगाड़ कराने पर टिकी है।
यानी जो राजनीतिक सत्ता भूख मिटाने की लड़ाई लड़ रही है। जिस देश में वोट का मतलब गरीबी मुफलिसी के दर्द को उभार कर पेट भरने का सुकून दिलाने भर का सपना बीते 50 बरस से हर चुनाव में दिखाया जा रहा हो। वहां अंतरिक्ष की दौड को अगर पीएम अपनी सफलता मान लें और आगरा लखनऊ सड़क पर लडाकू विमान उतार कर सीएम खुश हो जाये तो इसका मतलब निकलेगा क्या
ये संयोग हो सकता है कि 1963 में साइकिल पर रॉकेट लाया गया तब नेहरु ने देश को साइकिल युग से बाहर निकालने का ख्वाब देश को दिखाया था और 2017 में साइकिल की लडाई देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस भी यूपी में लड़ रही है और जिक्र किसान का ही हो रहा है। यानी चाहे अनचाहे जिक्र बैलगाडी पर सवार देश का ही हो रहा है।
तो आईये जरा ये भी देख लें कि सैटेलाइट की उडान से इतर भारतीय समाज अभी भी बैलगाड़ी पर सवार क्यों है। क्योंकि सच तो यही है कि बैलगाडी आज भी किसानी की जरुरत है। देश में एक करोड़ चालीस लाख बैलगाडी आज भी खेतों में चलती है। बाजार से खेत तक किसान सामान बैलगाडी से ही लाता है। लकडी की इस बैलगाडी की कीमत है 10 से 14 हजार रुपये और लकड़ी के पहिये तो 10 हजार और टायर के पहिये तो 12 से 14 हजार।
देश के किसानों का हालात इतनी जर्जर है कि ट्रैक्टर खरीदने की स्थिति में भी देश के 88 फिसदी किसान नहीं है। प्रतिदिन 600 रुपये ट्रैक्टर किराये पर मिलते हैं, जिसे लेने की स्थिति में भी किसान नहीं होता। तो क्या वाकई देश बैलगाड़ी युग से आगे निकल नहीं पा रहा है और 1981 में जब इसरो के वैज्ञानिक बैलगाड़ी पर सैटेलाइट लाद कर पहुंचे थे तो दुनियाभर में चाहे ये तस्वीर भारत की आर्थिक जर्जरता को बता रही थी। अब वैज्ञानिकों की सफलता के आईने में क्या पीएम,
सीएम को भी सफल माना जा सकता है। क्योंकि बैलगाड़ी पर सवार हिन्दुस्तान का सच यही है कि 21 करोड किसान-मजदूर की औसत आय प्रतिदिन की 40 रुपये है। 12 करोड मनरेगा के मजदूरों को 5 लाख तालाब खोदने हैं। पढ़े लिखे रजिस्टर्ड बेरोजगार 18 करोड़ पार कर चुके हैं। लेकिन मुश्किल तो सत्ता पाने के लिये रैलियों का सपना या सत्ता का आंख मूंद कर सपनो में जीना। .... जारी है........