कस्बा पर 6 जनवरी को बिजनेस अख़बारों पर एक पोस्ट किया था। इसमें केंद्रीय सांख्यिकी अधिकारी के डेटा की बात हुई थी कि नोटबंदी के कारणभारत की अनुमाति जीडीपी 7.6 फीसदी की जगह 7.1 फीसदी ही रहेगी। .5 फीसदी की गिरावट आएगी। 13 जनवरी के बिजनेस स्टैंडर्ड में एक और नया आंकड़ा आया है। सांख्यिकी मंत्रालय ने इंडेक्स आफ इंडस्ट्रियल प्रोडक्शन (IIP) का डेटा जारी करते हुए बताया है कि नोटबंदी के दौरान यानी नवंबर के महीने में औद्योगिक गतिविधियों में पिछले 13 महीने के अधिकतम स्तर पर पहुंच गई थीं। अक्तूबर में 1.8 फीसदी का संकुचन आया था। इकोनोमिक टाइम्स ने हेडलाइन में लिखा है कि नोटबंदी के बाद डबल चीयर। यानी दोहरी खुशी क्योंकि नवंबर में उत्पादन बढ़ा और दिसंबर में महंगाई कम हुई। किसान अपनी सब्ज़ी सड़कों पर फेंक गया। मंडियों में औने पौने दाम पर बेच गया। उसकी लागत निकली नहीं। महंगाई तो कम होगी ही जब ख़रीदार नहीं होंगे। इसे अखबार डबल चीयर्स बता रहा है।
बिजनेस अख़बारों को एक बार में बता देना चाहिए कि नोटबंदी के कारण मंदी आई है या नहीं। रोज़गार घटे हैं या नहीं। कभी एक पन्ने में बिजनेस घट रहा होता है तो दूसरे पन्ने पर उछालें मार रहा होता। पाठक समझे तो कैसे समझे।हेडलाइन पढ़कर तो आप खुश हो गए कि जो जानना था जान गए मगर इसी खबर के नीचे लिखा है कि अप्रैल से अक्तूबर के बीच इंडेक्स आफ इंडस्ट्रियल प्रोडक्शन मात्र 0.4 प्रतिशत ही बढ़ा था। समझ में नहीं आता है कि नवंबर और दिसंबर का रोना रो रहे हैं मगर ये आंकड़े बताते हैं कि इन दो महीनों से ज्यादा हालत पहले के सात महीनों में थी। जबकि 2015 के साल के अप्रैल और अक्तूबर क बीच इंडेक्स आफ इंडस्ट्रियल प्रोडक्शन 3.8 प्रतिशत था। 3.8 प्रतिशत से गिर कर 0.4 प्रतिशत पर आ जाना ज़रूर बड़ी घटना रही होगी जिसकी भनक सामान्य नागरिकों को लगी ही नहीं। क्या इसका असर नई नौकरियों पर भी पड़ा? क्या इस दौरान भी छंटनी हुई होगी? पूरी ख़बर को पढ़ेंगे तो एक से एक शर्तों के साथ उछाल या गिरावट की ख़बरों को देखने का दावा किया जाता है। ज़ाहिर है सामान्य पाठक को आर्थिक ख़बरों को पढ़ने का तरीका नहीं मालूम।
सरकार के आंकड़ों में हमेशा सबकुछ अच्छा होता है। फिर दूसरे आंकड़ों में हमेशा सबकुछ अच्छा नहीं होता है। एक सामान्य पाठक इन आर्थिक ख़बरों को किस तरह से समझे। ये एक बड़ी चुनौती है। लोग भी इन पर कम बात करते हैं क्योंकि उन्हें कम समझ आता है। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर की एक बड़ी संस्था ने दावा किया था कि राजस्व में पचास फीसदी से अधिक गिरावट है। 35 फीसदी नौकरियां गईं हैं मगर सरकार के आंकड़े में तो उछाल दिख रहा है। क्या मैन्युफैक्चरिंग मे गिरावट के बाद भी औद्योगिक उत्पादन का आंकड़ा बढ़ सकता है?
अगर सब अच्छा है तो फिर बिजनेस स्टैंडर्ड की एक और रिपोर्ट के अनुसार रेलवे को माल भाड़े में 7000 करोड़ का नुकसान क्यों हुआ है। शाइनी जैकब की रिपोर्ट कहती है कि 50 मिलिटन टन कोयले की ढुलाई कम होती है। क्या हम सामान्य पाठक यह समझते हैं कि कोयले की ढुलाई कम होने से अर्थव्यवस्था पर क्या असर पड़ता है। मूल रुप से रोज़गार के सृजन पर। जैकब बताती हैं कि इस दौरान सीमेंट की ढुलाई में भी गिरावट आई है। 2015 के अप्रैल से दिसंबर के बीच कोयले की ढुलाई 409 मिलियन टन हुई थी। 2016 के इन्हीं महीनों में 390 मिलियन टन हुई। 19 मिलियन टन तो कोई बड़ी संख्या नहीं लगती है मगर रेलवे को इन सबसे 7000 करोड़ की कमाई कम होती है। यह गिरावट तब आई है जब रेलवे माल ढुलाई में छूट भी दे रहा था।
आपको याद होगा कि नोटबंदी के तुरंत बाद CMIE नाम की संस्था ने बताया था कि इससे भारत की अर्थव्यवस्था को एक लाख करोड़ से ज़्यादा का नुकसान होगा। इनकी वेबसाइट है CMIE.COM , 12 जनवरी को महेश व्यास ने लिखा है कि 2016-7 में जीडीपी गिरकर 6 फीसदी पर आ जाएगी। इनके अनुसार आने वाले पांच वर्षों में ग्रोथ 187 बेसिस प्वाइंट के हिसाब से नीचे रहेगा। अब मैं 187 बेसिस प्वाइंट का मतलब नहीं जानता हूं। महेश व्यास का कहना है कि वे उम्मीद कर रहे हैं कि दीर्घकाल में नुकसान और गहरा होगा। अगले पांच साल तक भारत की अर्थव्यवस्था 6 फीसदी के आस पास ही रहेगी। अगर ये सही है तो बड़ी ही गंभीर बात है। इनका कहना है कि सितंबर 2017 से पहले रुपये की उपलब्धता का सकंट समाप्त नहीं होने वाला है।
भारतीय रिजर्व बैंक ने एक और डेटा जारी किया है। नोटबंदी के दौरान कार्ड से लेन-देन की संख्या काफी बढ़ी है। मगर जब देखा गया कि इनके ज़रिये ख़रीद में कितना उछाल आया है तो वो आंकड़ा बहुत उत्साह जनक नहीं है। मतलब यह हुआ कि लाखों लोग क्रेडिट या डेबिट कार्ड से ख़रीद रहे हैं मगर बहुत ज़्यादा ख़रीदारी नहीं कर रहे हैं। इसके कई कारण हो सकते हैं। उन्हें अपनी नौकरी के बने रहने पर भरोसा नहीं होगा, सैलरी कम हो गई होगी, या फिर कार्ड से ख़रीदारी के कम ही विकल्प होंगे। बहुत से लोग इस डर से भी नहीं कार्ड का इस्तमाल कर रहे होंगे कि कहीं आयकर विभाग को पता न चल जाए।
रिजर्व बैंक ने इस मामले में आंकड़े जारी किये हैं। बिजनेस स्टैंडर्ड में छपा है। अक्तूबर और नवंबर के बीच कार्ड के इस्तमाल में 45 फीसदी का उछाल आया लेकिन वैल्यू यानी इससे कितने लाख या करोड़ की ख़रीदारी हुई, उसमें मात्र 12 फ़ीसदी का ही उछाल आया। इसी तरह आंकड़े बताते हैं कि ई-वॉलेट( पे टीएम टाइप) के इस्तमाल में काफी उछाल आया मगर उस मात्रा में इनके ज़रिये ख़रीदारी नहीं हुई। ई वालेट के ज़रिये औसतन 240 रुपये की खरीदारी हुई या लेन-देन हुआ। डेबिट कार्ड के ज़रिये 1350 रुपये और क्रेडिट कार्ड से औसतन 2740 रुपये की लेन-देन हुई। यानी कार्ड या ई वॉलेट के इस्तमाल से बिजनेस को कोई बल नहीं मिला। अब आगे देखते हैं कि ये असर जारी रहता है या इसका बिजनेस को बहुत लाभ होता है। क्या कैशलेस इकोनोमी में ख़रीदारी कम हो जाती है? CMIE के आंकड़े तो यही बता रहे हैं कि उपभोग में काफी गिरावट है। अब ये कैशलेस के कारण है या किसी और कारण, कैसे पता चलेगा। इस तरह से अखबार पढ़कर खुद को जागरूक करने लगे तो पूरा दिन दो पेपर पढ़ने में चला जाएगा। इससे कहीं बेहतर है कि मूर्ख बने रहा जाए। ज़िंदाबाद मुर्दाबाद करते रहा जाए।
इस बीच बैंक आफ बड़ौदा ने 200 नए लोगों कंपनियों को डिफाल्ट घोषित किया है जिन पर 2,212 करोड़ का बकाया है। जून 2016 तक पंजाब नेशनल बैंक के 934 लोगों को 11,000 करोड़ की देनदारी नहीं चुकाने के कारण डिफाल्टर घोषित किया जा चुका था। इसका एक संबंध अर्थव्यवस्था के लड़खड़ाने से भी होता है। जब बिजनेस नहीं चलता है तो कंपनियों पर कर्ज़े का बोझ बढ़ता जाता है। हर साल डिफाल्टर की संख्या बढ़ती जा रही है।
बेहतर है कि हम आर्थिक ख़बरों की राजनीति को समझें। बिना इन ख़बरों को समझे राजनीति को समझने का दावा नहीं किया जा सकता है। असली खेल यहीं होता है। यह एक मुश्किल काम है। काफी वक्त देना होगा। हिन्दी के मतदाता और पाठक पर यह ज़िम्मेदारी है कि वो ख़ुद को इन बातों में दीक्षित करे। निपुण करे। युवा पत्रकार भी देखें। हालांकि नौकरी में उन्हें ये सब करने का मौका नहीं मिलेगा लेकिन जानेंगे तो ब्लाग वगैरह पर लिखकर कुछ तो करते रहेंगे। जैसे मैं टाइम काट रहा हूं।
अब बिजनेस स्टैंर्ड के एडिट पेज पर एक लेख मिला। इसे लेकर भारत के छात्रों को चिन्ता होनी चाहिए। अमरीका में छात्रों पर पढ़ाई का लोन 1.3 ट्रीलियन डॉलर हो गया है। भारतीय मुद्रा में यह राशि 67 लाख करोड़ होती है। अगर ये हिसाब सही है तो। सोचिये वहाँ के छात्र लोन से कैसे मर रहे होंगे। भारत में भी हम स्टुडेंट लोन को बिना समझे स्वीकार किये जा रहे हैं। यह अच्छा तो है लेकिन इससे पहले सरकार शिक्षा के दायित्व से खुद को अलग किये जा रही है। जो पढ़ाई दस हज़ार में हो सकती है वो दस लाख में क्यों हो। यह पूरा प्रोजेक्ट ग़रीबों को हमेशा से शिक्षा से दूर रखने के लिए है ताकि सस्ता लेबर मिलता रहे।
अख़बार ने लिखा है कि लोन के कारण अमरीका में छात्र अपना स्टार्ट अप शुरू नहीं कर पा रहे हैं। कालेज से निकलते ही नौकरी या मज़दूरी करने लग जाते हैं ताकि स्टुडेंट लोन चुका सकें।एक छात्रा की कहानी छपी है जो पढ़कर निकली तो उस पर 27000 रुपये मासिक किश्त थी। सोचिये हम आंख मूंद कर इस जानलेवा व्यवस्था की तरफ जा रहे हैं। बाकी तो आप समझदार ही हैं। दस लोग कस्बा पढ़ कर क्या तीर मार लेंगे। इन बिजनेस अख़बारों को हज़ारों लोग तो पढ़ते ही होंगे। उसी से क्या हो गया। जय हिन्द।