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भाग 16

2 अगस्त 2022

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बिहारी ने सोचा - 'ऊँहूँ! दूर-दूर रहने से अब काम नहीं चलने का। चाहे जैसे हो, इसके बीच अपने लिए भी जगह बनानी पड़ेगी। इनमें से किसी को यह पसंद तो न होगा, लेकिन फिर भी मुझे रहना पड़ेगा।'

बुलावे या स्वागत की अपेक्षा किए बिना ही बिहारी महेंद्र के व्यूह में दाखिल होने लगा। उसने विनोदिनी से कहा - 'विनोद भाभी, इस शख्स को इसकी माँ ने बर्बाद किया, इसकी बीवी बर्बाद कर रही है - तुम भी उस जमात में शामिल न हो कर इसे कोई नई राह सुझाओ।'

महेंद्र ने पूछा - 'यानी?'

बिहारी - 'यानी मेरे-जैसा आदमी, जिसे कभी कोई नहीं पूछता...'

महेंद्र - 'उसको बर्बाद करो! बर्बाद होने की उम्मीदवारी इतनी आसान नहीं बच्चू कि दरखास्त दे दी और मंजूर हो गई।'

विनोदिनी हँस कर बोली - 'बर्बाद होने का दम होना चाहिए बिहारी, बाबू!'

बिहारी ने कहा - 'अपने आप में वह खूबी न भी हो तो पराए हाथ से आ सकती है। एक बार देख ही लो पनाह दे कर!'

विनोदिनी - 'यों तैयार हो कर आने से कुछ नहीं होता - लापरवाह रहना होता है। क्या खयाल है, भई आँख की किरकिरी! अपने इस देवर का भार तुम्हीं उठाओ न!'

आशा ने दो उँगुलियों से उसे ठेल दिया। बिहारी ने भी इस दिल्लगी में साथ न दिया।

विनोदिनी से यह छिपा न रहा कि बिहारी को आशा से मजाक करना पसंद नहीं। वह आशा पर श्रद्धा रखता है और विनोदिनी को उल्लू बनाना चाहता है, यह बात उसे चुभी।

उसने आशा से फिर कहा - 'तुम्हारा यह भिखारी देवर मुझे इंगित करके तुमसे ही दुलार की भीख माँगने आया है- कुछ दे दो न, बहन!'

आशा बहुत खीझ उठी।जरा देर के लिए बिहारी का चेहरा तमतमा उठा, दूसरे ही दम वह हँस कर बोला - 'दूसरे पर यों टाल देना ठीक नहीं है।'

विनोदिनी समझ गई कि बिहारी सब बंटाधार करके आया है - इसके सामने हथियारबंद रहना जरूरी है। महेंद्र भी आजिज आ गया। बोला - 'बिहारी, तुम्हारे महेंद्र भैया किसी व्यापार में नहीं पड़ते, जो पास है, उसी से खुश हैं वे।'

बिहारी - 'खुद न पड़ना चाहते हों चाहे, मगर किस्मत में लिखा होता है तो व्यापार की लहर बाहर से भी आ सकती है।'

विनोदिनी - 'बहरहाल, आपका तो हाथ खाली है, फिर आपकी लहर किधर से आती है?'

और व्यंग्य की हँसी हँस कर उसने आशा को दबाया। आशा कुढ़ कर चली गई। बिहारी मुँह की खा कर गुस्से में भी चुप रहा। वह जाने को तैयार हुआ, तो विनोदिनी बोल उठी - 'हताश हो कर न जाइए बिहारी बाबू, मैं आँख की किरकिरी को भेजे देती हूँ।'

विनोदिनी के उठने से बैठक टूट गई। इससे महेंद्र मन-ही-मन नाराज हुआ। महेंद्र की नाराज शक्ल देख कर बिहारी का आवेग उमड़ आया।

बोला - 'महेंद्र भैया, अपना सत्यानाश करना चाहते हो, करो! तुम्हारी ऐसी ही आदत रही है। लेकिन जो सरल हृदय की साध्वी तुम्हारा विश्वास करके पनाह में है, उसका सत्यानाश तो न करो। अब भी कहता हूँ, ऐसा न करो!'

कहते-कहते बिहारी का गला रुँध गया।

दबे क्रोध से महेंद्र ने कहा - 'बिहारी, तुम्हारी बात बिलकुल समझ में नहीं आती। बुझौअल रहने दो, साफ-साफ कहो।'

बिहारी ने कहा - 'मैं दो टूक ही कहूँगा। विनोदिनी तुम्हें जान-बूझ कर पाप की ओर खींच रही है और तुम बिना समझे कदम बढ़ा रहे हो।'

महेंद्र गरज उठा - 'सरासर झूठ है। तुम अगर भले घर की बहू-बेटी को गलत शुबहे की निगाह से देखते हो तो तुम्हारा घर के अंदर आना ठीक नहीं।'

इतने में विनोदिनी एक थाली में मिठाइयाँ ले कर आई और बिहारी के सामने रखीं। बिहारी बोला - 'अरे, यह क्या! मुझे बिलकुल भूख नहीं।'

विनोदिनी बोली - 'ऐसी क्या बात! मुँह मीठा करके ही जाना होगा।'

बिहारी बोला - 'मेरी दरखास्त मंजूर हुई शायद? आदर-सत्कार शुरू हो गया?'

विनोदिनी होठ दबा कर हँसी। कहा - 'आप जब देवर ठहरे, रिश्ते का जोर तो है। जहाँ दावा कर सकते हैं, वहाँ भीख क्या माँगना? आदर तो आप छीन कर ले सकते हैं। आप क्या कहते हैं, महेंद्र बाबू?'

महेंद्र बाबू ने कोई टिप्पणी नहीं की।

विनोदिनी - 'बिहारी बाबू, आप शर्म से नहीं खा रहे हैं या नाराजगी से! किसी और को बुलाना पड़ेगा?'

बिहारी - 'नहीं, जरूरत नहीं। जो मिला है, काफी है।'

विनोदिनी - 'मजाक? आप से तो पार पाना मुश्किल है। मिठाई से भी मुँह बंद नहीं होता।'

रात को आशा ने महेंद्र से बिहारी की शिकायत की। महेंद्र और दिन की तरह हँस कर टाल नहीं गया, बल्कि उसने साथ दिया। सुबह ही महेंद्र बिहारी के घर गया। बोला - 'बिहारी, लाख हो, विनोदिनी आखिर अपने घर की तो नहीं है। तुम सामने होते हो तो उसे कैसी झिड़क होती है।'

बिहारी ने कहा - 'अच्छा! तब तो यह ठीक नहीं। उन्हें अगर एतराज है, तो मैं सामने न जाऊँगा।'

महेंद्र निश्चिंत हुआ। यह अप्रिय काम इस आसानी से बन जाएगा वह सोच भी न सका था। बिहारी से वह डरता था।

वह उसी दिन महेंद्र के घर गया। बोला - 'विनोद भाभी, मुझे माफ कर दो!'

विनोदिनी - 'कैसी माफी?'

बिहारी - 'महेंद्र से मालूम हुआ, मैं यहाँ आ कर सामने होता हूँ, इसलिए आप नाराज हैं। इसलिए मैं माफी माँग कर रुखसत हो जाऊँगा।'

विनोदिनी - 'ऐसा भी होता है भला! मैं तो आज हूँ, कल नहीं रहूँगी - मेरी वजह से आप क्यों रुखसत होंगे? इतना झमेला होगा, यह जानती होती तो मैं यहाँ न आती...।' कह कर विनोदिनी मुँह मलिन किए बिना आँसू छिपाने को तेजी से चली गई।

बिहारी के मन में आया - 'झूठे संदेह पर मैंने नाहक ही विनोदिनी के मन को चोट पहुँचाई है।'

उस दिन मानो मुश्किल में पड़ी राजलक्ष्मी महेंद्र के पास जा कर बोली - 'महेंद्र विपिन की बहू घर जाने के लिए उतावली हो गई है।'

महेंद्र ने पूछा - 'क्यों, यहाँ उन्हें कोई तकलीफ है?'

राजलक्ष्मी - 'तकलीफ नहीं, वह कहती है, मुझ-जैसी विधवा ज्यादा दिन दूसरे के घर रहेगी, तो लोग निंदा करेंगे।'

महेंद्र क्षुब्ध हो कर बोला - 'तो यह पराया घर है!'

बिहारी बैठा था। महेंद्र ने उसे खीझी निगाह से देखा।

बिहारी ने सोचा था, 'कल मैंने जो कुछ कहा, उसमें निंदा का आभास था - शायद उसी से विनोदिनी का जी दुखा।'

पति-पत्नी दोनों विनोदिनी से रूठे रहे।

ये बोलीं - 'हमें पराया समझती हो, बहन!'

वे बोले - 'इतने दिनों में हम पराए हो गए।'

विनोदिनी ने कहा - 'हमें क्या तुम आजीवन पकड़े रहोगी?'

महेंद्र बोला - 'ऐसी जुर्रत कहाँ!'

आशा बोली - 'फिर ऐसे क्यों हमारे जी को चुराया तुमने?'

उस दिन कुछ भी तय न हो सका। विनोदिनी बोली - 'नहीं बहन, बेकार है, दो दिनों के लिए ममता न बढ़ाना ही ठीक है।'

कह कर अकुलाई हुई आँखों से उसने एक बार महेंद्र को देखा।

दूसरे दिन बिहारी ने आ कर कहा - 'विनोद भाभी, यह जाने की जिद क्यों? कोई कुसूर किया है - उसी की सजा?'

मुँह फेर कर विनोदिनी बोली - 'कुसूर आप क्यों करने लगे, कुसूर है मेरी तकदीर का।'

बिहारी - 'आप अगर चली जाएँ, तो मुझे यही लगता रहेगा कि मुझी से नाराज हो कर चली गईं आप।'

करुण आँखों से विनती जाहिर करती हुई विनोदिनी ने बिहारी की ओर ताका। कहा - 'आप ही कहिए न, मेरा रहना उचित है?'

बिहारी मुश्किल में पड़ गया। रहना उचित है, यह बात वह कैसे कहे?

बोला - 'ठीक है, आपको जाना तो पड़ेगा ही, लेकिन दो-चार दिन रुक कर जाएँ, तो क्या हर्ज है?'

अपनी दोनों आँखें झुका कर विनोदिनी ने कहा - 'आप सब लोग रहने का आग्रह कर रहे हैं, आप लोगों की बात टाल कर जाना मेरे लिए मुश्किल है, मगर आप लोग गलती कर रहे हैं।'

कहते-कहते उसकी बड़ी-बड़ी पलकों से आँसू की बड़ी-बड़ी बूँदें तेजी से ढुलकने लगीं।

बिहारी इन मौन आँसुओं से व्याकुल हो कर बोल उठा - 'महज इन कुछ दिनों में ही आपने सबको मोह लिया है, इसी से आपको कोई छोड़ना नहीं चाहता। अन्यथा न सोचें विनोद भाभी, ऐसी लक्ष्मी को चाह कर विदा भी कौन करेगा?'

आशा घूँघट काढ़े एक कोने में बैठी थी। घूँघट सरका कर वह रह-रह कर आँखें पोंछने लगी।

आइंदा विनोदिनी ने जाने की बात न चलाई।

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रचनाएँ
आँख की किरकिरी
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आँख की किरकिरी’ रवीन्द्रनाथ ठाकुर के बंगला उपन्यास ‘चोखेर बालि’ का हिन्दी अनुवाद है। कई कारणों से इस उपन्यास की गिनती गुरुदेव की सर्वोत्कृष्ट रचनाओं में होती है। इसका प्रथम प्रकाशन 1902 ई. में हुआ था। इस प्रकार यह उपन्यास सच्चे अर्थों में भारत का पहला आधुनिक उपन्यास है। यद्यपि रवीन्द्रनाथ ने ऐसे अनेक उपन्यास लिखें हैं जो ‘चोखेर बालि’ से अधिक विख्यात है, परन्तु कथाकार का जो रूप हमें इसमें मिलता है वह अन्यत्र नहीं। अन्य किसी उपन्यास में उन्होंने मानव-जीवन के चित्रण में ऐसे मृदुल और नीरव व्यंग्य का समावेश नहीं किया है। प्रणय और यौन-वासना का अविच्छिन्न सम्बन्ध को उन्होंने किसी उपन्यास में ऐसी प्रकट हानुभूति नहीं दी है। इस उपन्यास में ही उन्होंने वासना के पंक में प्रस्फुटित होने वाले प्रेम के निर्मल शतदल की झाँकी दिखाई है। गुरुदेव द्वारा निर्मित नारी चरित्रों में विनोदिनी सबसे अधिक यथार्थ, सबसे अधिक विश्वसनीय और सबसे अधिक जीवन्त है।
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आँख की किरकिरी 1

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1 विनोद की माँ हरिमती महेंद्र की माँ राजलक्ष्मी के पास जा कर धरना देने लगी। दोनों एक ही गाँव की थीं, छुटपन में साथ खेली थीं। राजलक्ष्मी महेंद्र के पीछे पड़ गईं - 'बेटा महेंद्र, इस गरीब की बिटिया का

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भाग 2

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कन्या देखने की बात महेंद्र ने की जरूर मगर वह भूल गया, फिर भी अन्नपूर्णा नहीं भूलीं। उन्होंने लड़की के अभिभावक, उसके बड़े चाचा को जल्दी में श्यामबाजार पत्र भेजा और एक दिन तय कर लिया। महेंद्र ने जब स

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भाग 3

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रात में महेंद्र ठीक से सो नहीं पाया। तड़के ही वह बिहारी के घर पहुँच गया। बोला - 'यार, मैंने बड़ी ध्यान से सोचा और देखा कि चाची यही चाहती है कि शादी मैं ही करूँ।' बिहारी बोला - 'इसके लिए सोचने क

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भाग 4

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आखिर राजलक्ष्मी असीम उत्साह से बहू को गृहस्थी के काम-काज सिखाने में जुट गई। भंडार, रसोई और पूजा-घर में आशा के दिन कटने लगे, रात को अपने साथ सुला कर वह उसके आत्मीय बिछोह की कमी को पूरा करने लगीं। काफी

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भाग 5

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कुछ दिन सूखा पड़ने से नाज के जो पौधे सूख कर पीले पड़ जाते हैं, बारिश आने पर वे तुरंत बढ़ जाते हैं। आशा के साथ भी ऐसा ही हुआ। जहाँ उसका रक्त संबंध था, वहाँ वह कभी भी आत्मीयता का दावा न कर सकी, आज पराए

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भाग 6

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एक दिन बारिश हो रही थी। बादल घिरे थे। ऐसे में बदन पर एक सुवासित महीन चादर और जुही की माला गले में डाले महेंद्र मगन-मन अपने सोने के कमरे में पहुँचा। अचानक आशा को चौंका देने के विचार से- जूतों की आवाज न

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भाग 7

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राजलक्ष्मी मैके पहुँचीं। तय था कि उन्हें छोड़ कर बिहारी आ जाएगा लेकिन वहाँ की हालत देख कर वह ठहर गया। राजलक्ष्मी के मैके में महज दो-एक बूढ़ी विधवाएँ थीं। चारों तरफ घना जंगल और बाँस की झाड़ियाँ; पोख

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भाग 8

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आशा को डर लगा। क्या हुआ यह? माँ चली गईं, मौसी चली गईं। उन दोनों का सुख मानो सबको खल रहा है, अब उसकी बारी है शायद। सूने घर में दांपत्य की नई प्रेम-लीला उसे न जाने कैसी लगने लगी। संसार के कठोर कर्तव्यो

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भाग 9

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इतने में दुतल्ले से महेंद्र भैया की पुकार सुनाई पड़ी। 'अरे रे, आओ... आओ...' महेंद्र ने जवाब दिया। बिहारी की आवाज से उसका हृदय खिल उठा। विवाह के बाद वह इन दोनों के सुख का बाधक बन कर कभी-कभी आता रहा है,

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भाग 10

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बिहारी ने खुद बैठ कर महेंद्र से चिट्ठी लिखवाई और उस पत्र के साथ दूसरे ही दिन राजलक्ष्मी को लेने गया। राजलक्ष्मी समझ गई, चिट्ठी बिहारी ने लिखवाई है- मगर फिर भी उससे रहा न गया। साथ-साथ विनोदिनी आई। लौट

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भाग 11

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आशा को एक साथी की बड़ी जरूरत थी। प्यार का त्योहार भी महज दो आदमियों से नहीं मनता - मीठी बातों की मिठाई बाँटने के लिए गैरों की भी जरूरत पड़ती है। भूखी-प्यासी विनोदिनी भी नई बहू से प्रेम के इतिहास को श

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भाग 12

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एक दिन आखिर आजिज आ कर महेंद्र ने माँ से कहा - 'यह अच्छी बात है, माँ? दूसरे के घर की एक जवान विधवा को घर रख कर एक भारी जिम्मेदारी कंधे पर लाद लेने की क्या पड़ी है? जाने कब क्या मुसीबत हो?' राजलक्ष्मी

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भाग 13

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विनोदिनी जब बिलकुल ही पकड़ में न आई, तो आशा को एक तरकीब सूझी। बोली, 'भई आँख की किरकिरी, तुम मेरे पति के सामने क्यों नहीं आती, भागती क्यों फिरती हो?' विनोदिनी ने बड़े संक्षेप में लेकिन तेज स्वर में कह

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भाग 14

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आशा ने पूछा, 'अब सच-सच बताना, मेरी आँख की किरकिरी कैसी लगी तुम्हें?' महेंद्र ने कहा - 'बुरी नहीं।' आशा बहुत ही क्षुब्ध हो कर बोली, 'तुम्हें तो कोई अच्छी ही नहीं लगती।' महेंद्र - 'सिर्फ एक को

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भाग 15

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बाहर से हिला-डुला दो तो दबी राख में आग फिर से लहक उठती है। आशा और महेंद्र की मुहब्बत का उछाह मंद पड़ता जा रहा था, वह तीसरी तरफ की ठोकर से फिर जाग पड़ा। आशा में हँसी-दिल्लगी की ताकत न थी, पर आशा उससे

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भाग 16

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बिहारी ने सोचा - 'ऊँहूँ! दूर-दूर रहने से अब काम नहीं चलने का। चाहे जैसे हो, इसके बीच अपने लिए भी जगह बनानी पड़ेगी। इनमें से किसी को यह पसंद तो न होगा, लेकिन फिर भी मुझे रहना पड़ेगा।' बुलावे या स्वा

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भाग 17

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बीच में यह जो झमेला खड़ा हुआ, उसे एकबारगी चुका देने की नीयत से महेंद्र ने प्रस्ताव रखा कि अगले इतवार को दमदम के बगीचे में पिकनिक कर आएँ। आशा बहुत खुश हो गई। लेकिन विनोदिनी राजी न हुई। उसके तैयार न

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भाग 18

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पिकनिक के दिन जो वाकया गुजरा उसके बाद फिर महेंद्र में विनोदिनी को अपनाने की चाहत बढ़ने लगी। लेकिन दूसरे ही दिन राजलक्ष्मी को फ्लू हो गया। बीमारी कुछ खास न थी, फिर भी उन्हें तकलीफ और कमजोरी काफी थी।

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भाग 19

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विनोदिनी ने सोचा, 'आखिर माजरा क्या है? मान या गुस्सा या डर, पता नहीं क्या? मुझे यह दिखाना चाहते हैं कि वह मेरी परवाह नहीं करते? बाहर जा कर रहेंगे? अच्छा, यही देखना है, कितने दिन?' लेकिन खुद उसके मन म

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भाग 20

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जल्दी ही महेंद्र को एक चिट्ठी मिली। उस पर पहचाने अक्षर देख कर वह चौंक गया। दिन में झमेलों के कारण उसने उसे खोला नहीं - कलेजे के पास जेब में डाल दिया। कॉलेज के लेक्चर सुनते हुए, अस्पताल का चक्कर काटते

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इस बीच और एक चिट्ठी आ पहुँची - 'तुमने मेरे पत्र का जवाब नहीं दिया? अच्छा ही किया, सही बात लिखी तो नहीं जाती; तुम्हारा जो जवाब है, उसे मैंने मन में समझ लिया। भक्त जब अपने देवता को पुकारता है तो देवता

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महेंद्र घर पहुँचा। उसका चेहरा देखते ही आशा के मन का सारा संदेह कुहरे के समान एक ही क्षण में फट गया। अपनी चिट्ठियों की बात सोच कर महेंद्र के सामने मारे शर्म के वह सिर न उठा सकी। इस पर महेंद्र ने शिकवा

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बहुत दिनों के बाद अचानक महेंद्र को आते देख कर एक ओर तो अन्नपूर्णा गदगद हो गईं और दूसरी ओर उन्हें यह शंका हुई कि शायद आशा की माँ से फिर कुछ चख-चख हो गई है - महेंद्र उसी की शिकायत पर दिलासा देने आया है।

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महेंद्र ने सोचा, गलत, मैं विनोदिनी को प्यार नहीं करता। शायद प्यार न भी करता हूँ, मगर कहना कि नहीं करता हूँ यह तो और भी कठिन है। इससे चोट न पहुँचे, ऐसी स्त्री कौन है? इसके प्रतिवाद की गुंजाइश कैसे हो?

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उस दिन फागुन की पहली बसंती बयार बह आई। बड़े दिनों के बाद आशा शाम को छत पर चटाई बिछा कर बैठी। मद्धिम रोशनी में एक मासिक पत्रिका में छपी हुई एक धारावाहिक कहानी पढ़ने लगी। एक जगह जब कहानी का नायक काफी दि

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भाग 26

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एक ओर चाँद डूबता है, दूसरी और सूरज उगता है। आशा चली गई लेकिन महेंद्र के नसीब में अभी तक विनोदिनी के दर्शन नहीं। महेंद्र डोलता-फिरता, जब-तब किसी बहाने माँ के कमरे में पहुँच जाता - लेकिन विनोदिनी उसे पा

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महेंद्र वापस आ गया और कुछ ही दिनों में आशा काशी पहुँच गई, इससे अन्नपूर्णा को बड़ी आशंका हुई। आशा से वह तरह-तरह के सवाल पूछने लगी - 'क्यों री चुन्नी, और तेरी वह आँख की किरकिरी! तेरी राय में जिसके मुका

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उस दिन रात तक जागते रहने और भारी आवेग के कारण सुबह महेंद्र में एक अवसाद-सा था। फागुन के अधबीच गर्मी पड़नी शुरू हो गई थी। और सवेरे महेंद्र अपने सोने के कमरे के एक ओर बैठ कर पढ़ता था। आज वह तकिए के सहार

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भाग 29

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दूसरे दिन सो कर उठते ही एक मीठे आवेग से महेंद्र का हृदय परिपूर्ण हो गया। प्रभात की सुनहली किरणों ने मानो उसकी सभी चिंता-वासना पर सोना फेर दिया। कितनी प्यारी है पृथ्वी, कितना अच्छा आकाश! फूल के पराग जै

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भाग 30

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आशा ने एक दिन अन्नपूर्णा से पूछा - 'अच्छा मौसी, मौसा जी तुम्हें याद आते हैं?' अन्नपूर्णा बोलीं - 'महज ग्यारह साल की उम्र में मैं विधवा हुई, पति की सूरत मुझे छाया-सी धुँधली याद है।' आशा ने पूछा - 'फि

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आशा लौट आई। रूठ कर विनोदिनी ने कहा - 'भई किरकिरी, इतने दिन पीहर रही, खत लिखना भी पाप था क्या?' आशा बोली - 'और तुमने तो लिख दिया जैसे!' विनोदिनी - 'मैं पहले क्यों लिखती, पहले तुम्हें लिखना था।' विनो

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आशा सोचने लगी - 'लेकिन ऐसा क्यों हुआ है?' मैंने क्या किया? लेकिन असली आफत जहाँ थी, वहाँ उसकी नजर न पड़ी। महेंद्र विनोदिनी को प्यार कर सकता है, इसकी संभावना तक उसके मन में न आ सकी थी। दुनिया के अनुभव उ

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भाग 33

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दूसरे दिन सुबह से ही घटा घुमड़ी रही। कुछ देर बेहद गर्मी थी, फिर काले-काजल से मेघों में से झुलसा आकाश जुड़ गया। आज महेंद्र समय से पहले ही कॉलेज चला गया। बदले हुए कपड़े फर्श पर पड़े थे। आशा गिन-गिन कर क

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राजलक्ष्मी ने आज सुबह से विनोदिनी को बुलाया नहीं। रोज की तरह विनोदिनी भंडार में गई। राजलक्ष्मी ने सिर उठा कर उसकी ओर नहीं देखा। यह देख कर भी उसने कहा - 'बुआ, तबीयत ठीक नहीं है, क्यों? हो भी कैसे? क

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बिहारी अब मेडिकल कॉलेज में पढ़ रहा था। ऐन इम्तहान के वक्त छोड़ दिया। कोई अचरज से पूछ बैठता, तो कहता- 'पराई सेहत की बात फिर देखी जाएगी, पहले तंदुरुस्ती का खयाल जरूरी है।' असल में बिहारी के अध्यवसाय

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भाग 36

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असंभव भी संभव हो जाता है, असह्य भी सह्य हो जाता है। ऐसा न होता तो उस दिन की रात महेंद्र के घर में कटती नहीं। विनोदिनी को तैयार रहने का कह कर महेंद्र ने रात ही एक पत्र लिखा था। वह पत्र डाक से सवेरे महे

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भाग 37

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रात के अँधेरे में बिहारी कभी अकेले ध्यान नहीं लगाता। अपने लिए अपने को उसने कभी भी आलोच्य नहीं बनाया। वह पढ़ाई-लिखाई, काम-काज, हित-मित्रों में ही मशगूल रहता। अपने बजाय अपने चारों तरफ की दुनिया को प्रमु

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भाग 38

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रेल के औरतों वाले सूने डिब्बे में बैठी विनोदिनी ने खिड़की में से जब जुते हुए खेत और बीच-बीच में छाया से घिरे गाँव देखे, तो मन में सूने शीतल गाँव की जिंदगी ताजा हो आई। उसे लगने लगा, पेड़ों की छाया के ब

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भाग 39

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टोले में एक हलचल-सी मच गई। देवी थान में इकट्ठे हो कर बड़े-बूढ़ों ने कहा - 'अब तो बर्दाशत के बाहर है। कलकत्ता के कारनामों को अनसुना भी किया जा सकता था - मगर इसकी यह हिम्मत! लगातार महेंद्र को चिट्ठी लिख

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भाग 40

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महेंद्र कहाँ चला गया, इस आशंका से राजलक्ष्मी ने खाना-सोना छोड़ दिया। संभव-असंभव सभी जगहों में साधुचरण उसे ढूँढ़ता फिरने लगा - ऐसे में विनोदिनी को ले कर महेंद्र कलकत्ता आया। पटलडाँगा के मकान में उसे रख

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भाग 41

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रात को जब उसे पटलडाँगा के डेरे पर छोड़ कर महेंद्र अपने कपड़े और किताबें लाने घर चला गया, तो कलकत्ता के अविश्राम जन-स्रोत की हलचल में अकेली बैठी विनोदिनी अपनी बात सोचने लगी। दुनिया में पनाह की जगह काफी

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भाग 42

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'महेंद्र रात में ही उठ कर चला गया,' यह सुन कर राजलक्ष्मी बहू पर बहुत नाराज हुईं। उन्होंने समझा बहू की लानत-मलामत से ही वह चला गया। उन्होंने आशा से पूछा - 'महेंद्र रात चला क्यों गया?' आशा ने सिर झुक

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अगले दिन महेंद्र ने माँ से कहा - 'माँ, पढ़ने-लिखने के लिए मुझे कोई एकांत कमरा चाहिए। मैं चाची वाले कमरे में रहूँगा।' माँ खुश हो गई, 'तब तो महेंद्र अब घर में ही रहा करेगा। लगता है, बहू से सुलह हो गई।

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भाग 44

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राजलक्ष्मी ने जब साफ समझ लिया कि आशा महेंद्र के मन को बाँध नहीं पा रही है, तो उनके जी में आया, कम-से-कम मेरी बीमारी के नाते ही महेंद्र को यहाँ रहना पड़े, तो भी अच्छा है। उन्हें डर लगा, कहीं वे सचमुच ठ

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भाग 46

2 अगस्त 2022
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दूसरे दिन तड़के ही महेंद्र बिहारी के यहाँ पहुँच गया। देखा, दरवाजे पर कई बैलगाड़ियों पर नौकर-चाकर सामान लाद रहे हैं। महेंद्र ने भज्जो से पूछा - 'माजरा क्या है?' भज्जो ने कहा - 'बाबू ने बाली में गंगा के

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भाग 47

2 अगस्त 2022
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बिहारी की खोज-खबर ले कर महेंद्र लौटेगा, इस आशा से घर में उसकी रसोई बनी थी। काफी देर हो गई तो दुखी राजलक्ष्मी बेचैन हो उठीं। रात-भर नींद न आई थी, इससे वह काफी थकी थीं, फिर महेंद्र के लिए यह बेताबी उन्ह

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भाग 47

2 अगस्त 2022
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अन्नपूर्णा काशी से आईं। धीरे-धीरे राजलक्ष्मी के कमरे में जा कर उन्हें प्रणाम करके उनके चरणों की धूल माथे ली। बीच में इस बिलगाव के बावजूद अन्नपूर्णा को देख कर राजलक्ष्मी ने मानो कोई खोई निधि पाई। उन्हे

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भाग 48

2 अगस्त 2022
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जिन दिनों बिहारी पश्चिम में भटकता फिर रहा था, उसके मन में आया, 'जब तक कोई काम ले कर न बैठूँ चैन न मिलेगा।' यही सोच कर उसने कलकत्ता के गरीब किरानियों के मुफ्त इलाज और सेवा-जतन का भार उठाया। गर्मी के दि

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भाग 49

2 अगस्त 2022
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बिहारी सोच रहा था, दुखिया आशा की ओर वह देखेगा कैसे! डयोढ़ी के अंदर कदम रखते ही स्वामीहीन घर की घनीभूत पीड़ा उसे दबोच बैठी। घर के नौकर-दरबानों की ओर ताकते हुए बौराए हुए महेंद्र के भाग जाने की शर्म ने उ

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भाग 50

2 अगस्त 2022
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स्टेशन जा कर विनोदिनी औरतों वाले ड्योढ़े दर्जे के डिब्बे में जा बैठी। महेंद्र ने कहा, 'अरे, कर क्या रही हो, मैं तुम्हारा दूसरे दर्जे का टिकट ले रहा हूँ।' वह बोली, 'बेजा क्या है, यहाँ आराम से ही रहूँगी

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भाग 51

2 अगस्त 2022
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हिमालय की चोटी यमुना को जो बर्फगली अक्षय जल-धारा देती है, उस यमुना में युगों-युगों से कवियों ने जो कवित्‍व का स्रोत ढाला है, वह भी अक्षय है। उसकी कल-कल में कितने ही अनोखे छन्‍द गूँजते हैं और उसकी लहरो

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भाग 52

2 अगस्त 2022
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रात में महेंद्र सोया नहीं - थकावट के मारे सुबह-सुबह उसे नींद आई। सुबह आठ-नौ बजे के करीब जग कर वह झट उठ बैठा। पिछली रात की कोई अधूरी पीड़ा नींद के भीतर-ही-भीतर घूमती रही थी। सचेतन होते ही महेंद्र उसकी

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भाग 53

2 अगस्त 2022
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महेंद्र माँ के कमरे में जा रहा था कि आशा दौड़ी-दौड़ी आई। कहा - 'अभी वहाँ मत जाओ!' महेंद्र ने पूछा - 'क्यों?' आशा बोली - 'डॉक्टर ने बताया है, माँ, चाहे दु:ख का हो चाहे सुख का - अचानक कोई धक्का लग

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भाग 54

2 अगस्त 2022
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भले-बुरे राजलक्ष्मी के दो दिन निकल गए। एक दिन सुबह उनका चेहरा खिला-खिला दिख रहा था। पीड़ा का नामोनिशान नहीं था। उसी दिन उन्होंने महेंद्र को बुला कर कहा - 'मैं अब ज्यादा देर की मेहमान नहीं, बेटे, मगर म

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भाग 55

2 अगस्त 2022
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राजलक्ष्मी की मृत्यु के बाद श्राद्धादि खत्म करके महेंद्र ने कहा - 'भई बिहारी, मैं डॉक्टरी जानता हूँ। तुमने जो काम शुरू किया है, मुझे भी उसमें शामिल कर लो! चुन्नी अब ऐसी गृहिणी बन गई है कि वह भी तुम्हा

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