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भाग 7

2 अगस्त 2022

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राजलक्ष्मी मैके पहुँचीं। तय था कि उन्हें छोड़ कर बिहारी आ जाएगा लेकिन वहाँ की हालत देख कर वह ठहर गया।

राजलक्ष्मी के मैके में महज दो-एक बूढ़ी विधवाएँ थीं। चारों तरफ घना जंगल और बाँस की झाड़ियाँ; पोखर का हरा-भरा पानी; दिन-दोपहर में सियार की 'हुआँ-हुआँ' से राजलक्ष्मी की रूह तड़प उठती।

बिहारी ने कहा - 'माँ, जन्म-भूमि यह जरूर है, मगर इसे 'स्वर्गादपि गरीयसी' तो हरगिज नहीं कहा जा सकता। तुम्हें यहाँ अकेली छोड़ कर लौट जाऊँ तो मुझे पाप लगेगा।'

राजलक्ष्मी के प्राण भी काँप उठे। ऐसे में विनोदिनी भी आ गई। विनोदिनी के बारे में पहले ही कहा जा चुका है। महेंद्र से, और कभी बिहारी से उसके विवाह की बात चली थी। विधना की लिखी भाग्य-लिपि से जिस आदमी से उसका विवाह हुआ वह जल्दी ही चल बसा।

उसके बाद से विनोदिनी घने जंगल में अकेली लता-सी, इस गाँव में घुट कर जी रही थी। वही अनाथ, राजलक्ष्मी के पास आई, उन्हें प्रणाम किया और उनकी सेवा-जतन में जुट गई। सेवा तो सेवा है, घड़ी को आलस नहीं। काम की कैसी सफाई, कितनी अच्छी रसोई, कैसी मीठी बातचीत! राजलक्ष्मी कहतीं- 'काफी देर हो चुकी बिटिया, तुम भी थोड़ा-सा खा लो जा कर!'

वैसे राजलक्ष्मी उसकी फुफिया सास थीं।

अपने प्रति बड़ी लापरवाही दिखाती हुई विनोदिनी कहती- 'हमारे दु:ख सहे शरीर में नाराजगी की गुंजाइश नहीं। अहा, कितने दिनों के बाद तो अपनी जन्म-भूमि आई हो! यहाँ है भी क्या? काहे से तुम्हारा आदर करूँ!'

बिहारी तो दो ही दिनों में मुहल्ले-भर का बुजुर्ग बन बैठा। कोई दवा-दारू, तो कोई मुकदमे के राय-मशविरे के लिए आता; कोई उसकी इसलिए खुशामद करता कि किसी बड़े दफ्तर में उसके बेटे को नौकरी दिला दे; कोई उससे अपनी दरखास्त लिखवाता। बूढ़ों की बैठक और कुली-मजूरों के ताड़ी के अड्डे तक वह समान रूप से जाता-आता। सभी उसका सम्मान करते।

गँवई-गाँव में आए कलकत्ता के उस नवयुवक के निर्वासन-दंड को भी विनोदिनी अंत:पुर की ओट से हल्का करने की भरसक कोशिश किया करती। मुहल्ले का चक्कर काट कर जब भी वह आता तो पाता कि किसी ने उसके कमरे को बड़े जतन से सहेज-सँवार दिया है; काँसे के एक गिलास में कुछ फूलों-पत्तों का गुच्छा सजा रखा है और सिरहाने के एक तरफ पढ़ने योग्य कुछ किताबें रख दी हैं। किताबों में किसी महिला के हाथ से बड़ी कंजूसी के साथ छोटे अक्षरों में नाम लिखा है।

गाँवों में अतिथि-सत्कार का जो आम तरीका है, उससे इसमें थोड़ा फर्क था। उसी का जिक्र करते हुए बिहारी जब तारीफ करता, तो राजलक्ष्मी कहतीं- 'और ऐसी लड़की को तुम लोगों ने कबूल नहीं किया!'

हँसते हुए बिहारी कहता- 'बेशक हमने अच्छा नहीं किया माँ, ठगा गया। मगर एक बात है, विवाह न करके ठगाना बेहतर है, ब्याह करके ठगाता तो मुसीबत थी!'

राजलक्ष्मी के जी में बार-बार यही आता रहा, 'यही तो मेरी पतोहू होने योग्य थी। क्यों न हुई भला!'

राजलक्ष्मी कलकत्ता लौटने का जिक्र करतीं कि विनोदिनी की आँखें छलछला उठतीं। कहतीं- 'आखिर तुम दो दिन के लिए क्यों आईं, बुआ? अब तुम्हें छोड़ कर मैं कैसे रहूँगी?'

भावावेश में राजलक्ष्मी कह उठतीं- 'तू मेरी बहू क्यों न हुई बेटी, मैं तुझे कलेजे से लगाए रखती।'

सुन कर शर्म से विनोदिनी किसी बहाने वहाँ से हट जाती। राजलक्ष्मी इस इंतजार में थीं कि कलकत्ता से विनीत अनुरोध का कोई पत्र आएगा। माँ से अलग महेंद्र आज तक इतने दिन कभी न रहा था। माँ के इस लंबे बिछोह ने निश्चय ही उसके सब्र का बाँध तोड़ दिया होगा। राजलक्ष्मी बेटे के गिड़गिड़ाहट-भरे पत्र का इंतजार कर रही थीं।

बिहारी के नाम महेंद्र का पत्र आया। लिखा था, 'लगता है माँ बहुत दिनों के बाद मैके गई हैं, शायद बड़े मजे में होंगी।'

राजलक्ष्मी ने सोचा, 'महेंद्र ने रूठ कर ऐसा लिखा है। बड़े मजे में होंगी। महेंद्र को छोड़ कर बदनसीब माँ भला सुख से कैसे रह सकती है?'

'अरे बिहारी, उसके बाद क्या लिखा है उसने, पढ़ कर सुना तो जरा!'

बिहारी बोला - 'और कुछ नहीं लिखा है, माँ!'

और उसने पत्र को मुट्ठी से दबोच कर एक कापी में रखा और कमरे में एक ओर धप्प से पटक दिया।

राजलक्ष्मी अब भला थिर रह सकती थीं! हो न हो, महेंद्र माँ पर इतना नाराज हुआ है कि बिहारी ने पढ़ कर सुनाया नहीं।

गौ के थन पर चोट करके बछड़ा जिस प्रकार दूध और वात्सल्य का संचार करता है, उसी प्रकार महेंद्र की नाराजगी ने आघात पहुँचा कर राजलक्ष्मी के घुटे वात्सल्य को उभार दिया। उन्होंने महेंद्र को माफ कर दिया। बोलीं- 'अहा, अपनी बहू को ले कर महेंद्र सुखी है, रहे- जैसे भी हो, वह सुख से रहे। जो माँ उसे छोड़ कर कभी एक पल नहीं रह सकती, वही उसे छोड़ कर चली आई है, इसलिए महेंद्र अपनी माँ से नाराज हो गया है।'

रह-रह कर उनकी आँखों में आँसू उमड़ने लगे।

उस दिन वह बार-बार बिहारी से जा कर कहती रहीं- 'बेटे, तुम जा कर नहा लो। यहाँ बड़ी बदपरहेजी हो रही है तुम्हारी।'

राजलक्ष्मी अड़ गईं- 'नहीं-नहीं, नहा डालो!'

बार-बार जिद करने से बिहारी नहाने गया। उसका कमरे से बाहर कदम रखना था कि झपट कर राजलक्ष्मी ने वह किताब उठा ली और उसके अंदर से पत्र को निकाला।

पढ़ कर विनोदिनी सुनाने लगी। शुरू में महेंद्र ने माँ के बारे में लिखा था, लेकिन बड़ा मुख्तसर। बिहारी ने जितना-भर सुनाया, उससे ज्यादा कुछ नहीं।

उसके बाद आशा का जिक्र था। मौज-मजे और खुशियों से विभोर हो कर लिखा था।

विनोदिनी ने थोड़ा पढ़ा और शर्म से थक गई। कहा - 'यह क्या सुनोगी, बुआ!'

राजलक्ष्मी का स्नेह से अकुलाया चेहरा पल-भर में जम कर पत्थर-जैसा सख्त हो गया। जरा देर चुप रहीं, फिर बोलीं- 'रहने दो!'

और चिट्ठी उन्होंने वापस न ली। चली गईं।

चिट्ठी ले कर विनोदिनी को क्या रस मिला, वही जाने। पढ़ते-पढ़ते उसकी आँखें दोपहर के तपे बालू-सी जलने लगीं- उसका नि:श्वास रेगिस्तान की बयार - जैसा गर्म हो उठा।

'कैसा है महेंद्र, कैसी है आशा और इन दोनों का प्रेम ही कैसा है!' यही बात उसके मन को मथने लगी। पत्र को गोद में डाले, पाँव फैलाए, दीवार से पीठ टिका कर सामने ताकती वह देर तक सोचती रहीं।

महेंद्र की वह चिट्ठी बिहारी को फिर ढूँढ़े न मिली।

अचानक उसी दिन दोपहर में अन्नपूर्णा आ धमकीं। किसी बुरी खबर की आशंका से राजलक्ष्मी का कलेजा सहसा काँप उठा। कुछ पूछने की उन्हें हिम्मत न हुई। वह फक पड़े चेहरे से अन्नपूर्णा की तरफ ताकती रह गईं।

अन्नपूर्णा ने कहा - 'कलकत्ता का समाचार ठीक है।'

राजलक्ष्मी ने पूछा - 'फिर तुम यहाँ कैसे?'

अन्नपूर्णा बोलीं- 'दीदी, अपनी गृहस्थी तुम जा कर सम्हालो। संसार से अपना जी उचट गया है। मैं काशी जाने की तय करके निकली हूँ। तुम्हें प्रणाम करने आ गई। जान में, अनजान में जाने कितने कसूर हो गए हैं माफ करना। और तुम्हारी बहू...,' कहते-कहते आँखों से आँसू उफन उठे - 'वह नादान बच्ची है, उसके माँ नहीं। वह दोषी हो चाहे निर्दोष, तुम्हारी है।'

अन्नपूर्णा और न बोल सकीं।

राजलक्ष्मी जल्दी से उनके नहाने-खाने का इंतजाम करने गईं। बिहारी को मालूम हुआ तो वह घोष की मठिया से दौड़ आया। अन्नपूर्णा को प्रणाम करके बोला - 'ऐसा भी होता है भला, हम सबको निर्दयी की तरह ठुकरा कर तुम चल दोगी?' आँसू जब्त करके अन्नपूर्णा ने कहा - 'मुझे अब फेरने की कोशिश मत करो, बिहारी, तुम लोग सुखी रहो, मेरे लिए कुछ रुका न रहेगा।'

बिहारी कुछ क्षण चुप रहा। फिर बोला - 'महेंद्र की किस्मत खोटी है, उसने तुम्हें रुखसत कर दिया।'

अन्नपूर्णा चौंक कर बोलीं - 'ऐसा मत कहो, मैं उस पर बिलकुल नाराज नहीं हूँ। मेरे गए बिना उनका भला न होगा।'

बहुत दूर ताकता हुआ बिहारी चुप बैठा रहा। अपने आँचल से सोने की दो बालियाँ निकाल कर अन्नपूर्णा बोलीं- 'बेटे, ये बालियाँ रख लो! बहू आए तो मेरा आशीर्वाद जता कर इन्हें पहना देना!'

बालियाँ मस्तक से लगा कर आँसू छिपाने के लिए बिहारी बगल के कमरे में चला गया।

जाते वक्त बोलीं- 'मेरे महेंद्र और मेरी आशा का ध्यान रखना, बिहारी!'

राजलक्ष्मी के हाथों उन्होंने एक कागज दिया। कहा - 'ससुर की जायदाद में मेरा जो हिस्सा है, वह मैंने इस वसीयत में महेंद्र को लिख दिया है। मुझे हर माह सिर्फ पन्द्रह रुपए भेज दिया करना!'

झुक कर उन्होंने राजलक्ष्मी के पैरों की धूल माथे लगाई और तीर्थ-यात्रा को निकल पड़ीं।

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रचनाएँ
आँख की किरकिरी
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आँख की किरकिरी’ रवीन्द्रनाथ ठाकुर के बंगला उपन्यास ‘चोखेर बालि’ का हिन्दी अनुवाद है। कई कारणों से इस उपन्यास की गिनती गुरुदेव की सर्वोत्कृष्ट रचनाओं में होती है। इसका प्रथम प्रकाशन 1902 ई. में हुआ था। इस प्रकार यह उपन्यास सच्चे अर्थों में भारत का पहला आधुनिक उपन्यास है। यद्यपि रवीन्द्रनाथ ने ऐसे अनेक उपन्यास लिखें हैं जो ‘चोखेर बालि’ से अधिक विख्यात है, परन्तु कथाकार का जो रूप हमें इसमें मिलता है वह अन्यत्र नहीं। अन्य किसी उपन्यास में उन्होंने मानव-जीवन के चित्रण में ऐसे मृदुल और नीरव व्यंग्य का समावेश नहीं किया है। प्रणय और यौन-वासना का अविच्छिन्न सम्बन्ध को उन्होंने किसी उपन्यास में ऐसी प्रकट हानुभूति नहीं दी है। इस उपन्यास में ही उन्होंने वासना के पंक में प्रस्फुटित होने वाले प्रेम के निर्मल शतदल की झाँकी दिखाई है। गुरुदेव द्वारा निर्मित नारी चरित्रों में विनोदिनी सबसे अधिक यथार्थ, सबसे अधिक विश्वसनीय और सबसे अधिक जीवन्त है।
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आँख की किरकिरी 1

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1 विनोद की माँ हरिमती महेंद्र की माँ राजलक्ष्मी के पास जा कर धरना देने लगी। दोनों एक ही गाँव की थीं, छुटपन में साथ खेली थीं। राजलक्ष्मी महेंद्र के पीछे पड़ गईं - 'बेटा महेंद्र, इस गरीब की बिटिया का

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भाग 2

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कन्या देखने की बात महेंद्र ने की जरूर मगर वह भूल गया, फिर भी अन्नपूर्णा नहीं भूलीं। उन्होंने लड़की के अभिभावक, उसके बड़े चाचा को जल्दी में श्यामबाजार पत्र भेजा और एक दिन तय कर लिया। महेंद्र ने जब स

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भाग 3

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रात में महेंद्र ठीक से सो नहीं पाया। तड़के ही वह बिहारी के घर पहुँच गया। बोला - 'यार, मैंने बड़ी ध्यान से सोचा और देखा कि चाची यही चाहती है कि शादी मैं ही करूँ।' बिहारी बोला - 'इसके लिए सोचने क

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भाग 4

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आखिर राजलक्ष्मी असीम उत्साह से बहू को गृहस्थी के काम-काज सिखाने में जुट गई। भंडार, रसोई और पूजा-घर में आशा के दिन कटने लगे, रात को अपने साथ सुला कर वह उसके आत्मीय बिछोह की कमी को पूरा करने लगीं। काफी

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भाग 5

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कुछ दिन सूखा पड़ने से नाज के जो पौधे सूख कर पीले पड़ जाते हैं, बारिश आने पर वे तुरंत बढ़ जाते हैं। आशा के साथ भी ऐसा ही हुआ। जहाँ उसका रक्त संबंध था, वहाँ वह कभी भी आत्मीयता का दावा न कर सकी, आज पराए

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भाग 6

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एक दिन बारिश हो रही थी। बादल घिरे थे। ऐसे में बदन पर एक सुवासित महीन चादर और जुही की माला गले में डाले महेंद्र मगन-मन अपने सोने के कमरे में पहुँचा। अचानक आशा को चौंका देने के विचार से- जूतों की आवाज न

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भाग 7

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राजलक्ष्मी मैके पहुँचीं। तय था कि उन्हें छोड़ कर बिहारी आ जाएगा लेकिन वहाँ की हालत देख कर वह ठहर गया। राजलक्ष्मी के मैके में महज दो-एक बूढ़ी विधवाएँ थीं। चारों तरफ घना जंगल और बाँस की झाड़ियाँ; पोख

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भाग 8

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आशा को डर लगा। क्या हुआ यह? माँ चली गईं, मौसी चली गईं। उन दोनों का सुख मानो सबको खल रहा है, अब उसकी बारी है शायद। सूने घर में दांपत्य की नई प्रेम-लीला उसे न जाने कैसी लगने लगी। संसार के कठोर कर्तव्यो

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भाग 9

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इतने में दुतल्ले से महेंद्र भैया की पुकार सुनाई पड़ी। 'अरे रे, आओ... आओ...' महेंद्र ने जवाब दिया। बिहारी की आवाज से उसका हृदय खिल उठा। विवाह के बाद वह इन दोनों के सुख का बाधक बन कर कभी-कभी आता रहा है,

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भाग 10

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बिहारी ने खुद बैठ कर महेंद्र से चिट्ठी लिखवाई और उस पत्र के साथ दूसरे ही दिन राजलक्ष्मी को लेने गया। राजलक्ष्मी समझ गई, चिट्ठी बिहारी ने लिखवाई है- मगर फिर भी उससे रहा न गया। साथ-साथ विनोदिनी आई। लौट

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भाग 11

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आशा को एक साथी की बड़ी जरूरत थी। प्यार का त्योहार भी महज दो आदमियों से नहीं मनता - मीठी बातों की मिठाई बाँटने के लिए गैरों की भी जरूरत पड़ती है। भूखी-प्यासी विनोदिनी भी नई बहू से प्रेम के इतिहास को श

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भाग 12

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एक दिन आखिर आजिज आ कर महेंद्र ने माँ से कहा - 'यह अच्छी बात है, माँ? दूसरे के घर की एक जवान विधवा को घर रख कर एक भारी जिम्मेदारी कंधे पर लाद लेने की क्या पड़ी है? जाने कब क्या मुसीबत हो?' राजलक्ष्मी

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भाग 13

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विनोदिनी जब बिलकुल ही पकड़ में न आई, तो आशा को एक तरकीब सूझी। बोली, 'भई आँख की किरकिरी, तुम मेरे पति के सामने क्यों नहीं आती, भागती क्यों फिरती हो?' विनोदिनी ने बड़े संक्षेप में लेकिन तेज स्वर में कह

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भाग 14

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आशा ने पूछा, 'अब सच-सच बताना, मेरी आँख की किरकिरी कैसी लगी तुम्हें?' महेंद्र ने कहा - 'बुरी नहीं।' आशा बहुत ही क्षुब्ध हो कर बोली, 'तुम्हें तो कोई अच्छी ही नहीं लगती।' महेंद्र - 'सिर्फ एक को

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भाग 15

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बाहर से हिला-डुला दो तो दबी राख में आग फिर से लहक उठती है। आशा और महेंद्र की मुहब्बत का उछाह मंद पड़ता जा रहा था, वह तीसरी तरफ की ठोकर से फिर जाग पड़ा। आशा में हँसी-दिल्लगी की ताकत न थी, पर आशा उससे

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भाग 16

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बिहारी ने सोचा - 'ऊँहूँ! दूर-दूर रहने से अब काम नहीं चलने का। चाहे जैसे हो, इसके बीच अपने लिए भी जगह बनानी पड़ेगी। इनमें से किसी को यह पसंद तो न होगा, लेकिन फिर भी मुझे रहना पड़ेगा।' बुलावे या स्वा

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भाग 17

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बीच में यह जो झमेला खड़ा हुआ, उसे एकबारगी चुका देने की नीयत से महेंद्र ने प्रस्ताव रखा कि अगले इतवार को दमदम के बगीचे में पिकनिक कर आएँ। आशा बहुत खुश हो गई। लेकिन विनोदिनी राजी न हुई। उसके तैयार न

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पिकनिक के दिन जो वाकया गुजरा उसके बाद फिर महेंद्र में विनोदिनी को अपनाने की चाहत बढ़ने लगी। लेकिन दूसरे ही दिन राजलक्ष्मी को फ्लू हो गया। बीमारी कुछ खास न थी, फिर भी उन्हें तकलीफ और कमजोरी काफी थी।

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विनोदिनी ने सोचा, 'आखिर माजरा क्या है? मान या गुस्सा या डर, पता नहीं क्या? मुझे यह दिखाना चाहते हैं कि वह मेरी परवाह नहीं करते? बाहर जा कर रहेंगे? अच्छा, यही देखना है, कितने दिन?' लेकिन खुद उसके मन म

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जल्दी ही महेंद्र को एक चिट्ठी मिली। उस पर पहचाने अक्षर देख कर वह चौंक गया। दिन में झमेलों के कारण उसने उसे खोला नहीं - कलेजे के पास जेब में डाल दिया। कॉलेज के लेक्चर सुनते हुए, अस्पताल का चक्कर काटते

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इस बीच और एक चिट्ठी आ पहुँची - 'तुमने मेरे पत्र का जवाब नहीं दिया? अच्छा ही किया, सही बात लिखी तो नहीं जाती; तुम्हारा जो जवाब है, उसे मैंने मन में समझ लिया। भक्त जब अपने देवता को पुकारता है तो देवता

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महेंद्र घर पहुँचा। उसका चेहरा देखते ही आशा के मन का सारा संदेह कुहरे के समान एक ही क्षण में फट गया। अपनी चिट्ठियों की बात सोच कर महेंद्र के सामने मारे शर्म के वह सिर न उठा सकी। इस पर महेंद्र ने शिकवा

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बहुत दिनों के बाद अचानक महेंद्र को आते देख कर एक ओर तो अन्नपूर्णा गदगद हो गईं और दूसरी ओर उन्हें यह शंका हुई कि शायद आशा की माँ से फिर कुछ चख-चख हो गई है - महेंद्र उसी की शिकायत पर दिलासा देने आया है।

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महेंद्र ने सोचा, गलत, मैं विनोदिनी को प्यार नहीं करता। शायद प्यार न भी करता हूँ, मगर कहना कि नहीं करता हूँ यह तो और भी कठिन है। इससे चोट न पहुँचे, ऐसी स्त्री कौन है? इसके प्रतिवाद की गुंजाइश कैसे हो?

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उस दिन फागुन की पहली बसंती बयार बह आई। बड़े दिनों के बाद आशा शाम को छत पर चटाई बिछा कर बैठी। मद्धिम रोशनी में एक मासिक पत्रिका में छपी हुई एक धारावाहिक कहानी पढ़ने लगी। एक जगह जब कहानी का नायक काफी दि

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भाग 26

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एक ओर चाँद डूबता है, दूसरी और सूरज उगता है। आशा चली गई लेकिन महेंद्र के नसीब में अभी तक विनोदिनी के दर्शन नहीं। महेंद्र डोलता-फिरता, जब-तब किसी बहाने माँ के कमरे में पहुँच जाता - लेकिन विनोदिनी उसे पा

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महेंद्र वापस आ गया और कुछ ही दिनों में आशा काशी पहुँच गई, इससे अन्नपूर्णा को बड़ी आशंका हुई। आशा से वह तरह-तरह के सवाल पूछने लगी - 'क्यों री चुन्नी, और तेरी वह आँख की किरकिरी! तेरी राय में जिसके मुका

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उस दिन रात तक जागते रहने और भारी आवेग के कारण सुबह महेंद्र में एक अवसाद-सा था। फागुन के अधबीच गर्मी पड़नी शुरू हो गई थी। और सवेरे महेंद्र अपने सोने के कमरे के एक ओर बैठ कर पढ़ता था। आज वह तकिए के सहार

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दूसरे दिन सो कर उठते ही एक मीठे आवेग से महेंद्र का हृदय परिपूर्ण हो गया। प्रभात की सुनहली किरणों ने मानो उसकी सभी चिंता-वासना पर सोना फेर दिया। कितनी प्यारी है पृथ्वी, कितना अच्छा आकाश! फूल के पराग जै

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आशा ने एक दिन अन्नपूर्णा से पूछा - 'अच्छा मौसी, मौसा जी तुम्हें याद आते हैं?' अन्नपूर्णा बोलीं - 'महज ग्यारह साल की उम्र में मैं विधवा हुई, पति की सूरत मुझे छाया-सी धुँधली याद है।' आशा ने पूछा - 'फि

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आशा लौट आई। रूठ कर विनोदिनी ने कहा - 'भई किरकिरी, इतने दिन पीहर रही, खत लिखना भी पाप था क्या?' आशा बोली - 'और तुमने तो लिख दिया जैसे!' विनोदिनी - 'मैं पहले क्यों लिखती, पहले तुम्हें लिखना था।' विनो

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आशा सोचने लगी - 'लेकिन ऐसा क्यों हुआ है?' मैंने क्या किया? लेकिन असली आफत जहाँ थी, वहाँ उसकी नजर न पड़ी। महेंद्र विनोदिनी को प्यार कर सकता है, इसकी संभावना तक उसके मन में न आ सकी थी। दुनिया के अनुभव उ

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दूसरे दिन सुबह से ही घटा घुमड़ी रही। कुछ देर बेहद गर्मी थी, फिर काले-काजल से मेघों में से झुलसा आकाश जुड़ गया। आज महेंद्र समय से पहले ही कॉलेज चला गया। बदले हुए कपड़े फर्श पर पड़े थे। आशा गिन-गिन कर क

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भाग 34

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राजलक्ष्मी ने आज सुबह से विनोदिनी को बुलाया नहीं। रोज की तरह विनोदिनी भंडार में गई। राजलक्ष्मी ने सिर उठा कर उसकी ओर नहीं देखा। यह देख कर भी उसने कहा - 'बुआ, तबीयत ठीक नहीं है, क्यों? हो भी कैसे? क

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बिहारी अब मेडिकल कॉलेज में पढ़ रहा था। ऐन इम्तहान के वक्त छोड़ दिया। कोई अचरज से पूछ बैठता, तो कहता- 'पराई सेहत की बात फिर देखी जाएगी, पहले तंदुरुस्ती का खयाल जरूरी है।' असल में बिहारी के अध्यवसाय

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असंभव भी संभव हो जाता है, असह्य भी सह्य हो जाता है। ऐसा न होता तो उस दिन की रात महेंद्र के घर में कटती नहीं। विनोदिनी को तैयार रहने का कह कर महेंद्र ने रात ही एक पत्र लिखा था। वह पत्र डाक से सवेरे महे

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भाग 37

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रात के अँधेरे में बिहारी कभी अकेले ध्यान नहीं लगाता। अपने लिए अपने को उसने कभी भी आलोच्य नहीं बनाया। वह पढ़ाई-लिखाई, काम-काज, हित-मित्रों में ही मशगूल रहता। अपने बजाय अपने चारों तरफ की दुनिया को प्रमु

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भाग 38

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रेल के औरतों वाले सूने डिब्बे में बैठी विनोदिनी ने खिड़की में से जब जुते हुए खेत और बीच-बीच में छाया से घिरे गाँव देखे, तो मन में सूने शीतल गाँव की जिंदगी ताजा हो आई। उसे लगने लगा, पेड़ों की छाया के ब

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भाग 39

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टोले में एक हलचल-सी मच गई। देवी थान में इकट्ठे हो कर बड़े-बूढ़ों ने कहा - 'अब तो बर्दाशत के बाहर है। कलकत्ता के कारनामों को अनसुना भी किया जा सकता था - मगर इसकी यह हिम्मत! लगातार महेंद्र को चिट्ठी लिख

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महेंद्र कहाँ चला गया, इस आशंका से राजलक्ष्मी ने खाना-सोना छोड़ दिया। संभव-असंभव सभी जगहों में साधुचरण उसे ढूँढ़ता फिरने लगा - ऐसे में विनोदिनी को ले कर महेंद्र कलकत्ता आया। पटलडाँगा के मकान में उसे रख

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भाग 41

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रात को जब उसे पटलडाँगा के डेरे पर छोड़ कर महेंद्र अपने कपड़े और किताबें लाने घर चला गया, तो कलकत्ता के अविश्राम जन-स्रोत की हलचल में अकेली बैठी विनोदिनी अपनी बात सोचने लगी। दुनिया में पनाह की जगह काफी

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भाग 42

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'महेंद्र रात में ही उठ कर चला गया,' यह सुन कर राजलक्ष्मी बहू पर बहुत नाराज हुईं। उन्होंने समझा बहू की लानत-मलामत से ही वह चला गया। उन्होंने आशा से पूछा - 'महेंद्र रात चला क्यों गया?' आशा ने सिर झुक

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भाग 43

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अगले दिन महेंद्र ने माँ से कहा - 'माँ, पढ़ने-लिखने के लिए मुझे कोई एकांत कमरा चाहिए। मैं चाची वाले कमरे में रहूँगा।' माँ खुश हो गई, 'तब तो महेंद्र अब घर में ही रहा करेगा। लगता है, बहू से सुलह हो गई।

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भाग 44

2 अगस्त 2022
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राजलक्ष्मी ने जब साफ समझ लिया कि आशा महेंद्र के मन को बाँध नहीं पा रही है, तो उनके जी में आया, कम-से-कम मेरी बीमारी के नाते ही महेंद्र को यहाँ रहना पड़े, तो भी अच्छा है। उन्हें डर लगा, कहीं वे सचमुच ठ

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भाग 46

2 अगस्त 2022
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दूसरे दिन तड़के ही महेंद्र बिहारी के यहाँ पहुँच गया। देखा, दरवाजे पर कई बैलगाड़ियों पर नौकर-चाकर सामान लाद रहे हैं। महेंद्र ने भज्जो से पूछा - 'माजरा क्या है?' भज्जो ने कहा - 'बाबू ने बाली में गंगा के

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भाग 47

2 अगस्त 2022
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बिहारी की खोज-खबर ले कर महेंद्र लौटेगा, इस आशा से घर में उसकी रसोई बनी थी। काफी देर हो गई तो दुखी राजलक्ष्मी बेचैन हो उठीं। रात-भर नींद न आई थी, इससे वह काफी थकी थीं, फिर महेंद्र के लिए यह बेताबी उन्ह

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भाग 47

2 अगस्त 2022
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अन्नपूर्णा काशी से आईं। धीरे-धीरे राजलक्ष्मी के कमरे में जा कर उन्हें प्रणाम करके उनके चरणों की धूल माथे ली। बीच में इस बिलगाव के बावजूद अन्नपूर्णा को देख कर राजलक्ष्मी ने मानो कोई खोई निधि पाई। उन्हे

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भाग 48

2 अगस्त 2022
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जिन दिनों बिहारी पश्चिम में भटकता फिर रहा था, उसके मन में आया, 'जब तक कोई काम ले कर न बैठूँ चैन न मिलेगा।' यही सोच कर उसने कलकत्ता के गरीब किरानियों के मुफ्त इलाज और सेवा-जतन का भार उठाया। गर्मी के दि

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भाग 49

2 अगस्त 2022
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बिहारी सोच रहा था, दुखिया आशा की ओर वह देखेगा कैसे! डयोढ़ी के अंदर कदम रखते ही स्वामीहीन घर की घनीभूत पीड़ा उसे दबोच बैठी। घर के नौकर-दरबानों की ओर ताकते हुए बौराए हुए महेंद्र के भाग जाने की शर्म ने उ

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भाग 50

2 अगस्त 2022
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स्टेशन जा कर विनोदिनी औरतों वाले ड्योढ़े दर्जे के डिब्बे में जा बैठी। महेंद्र ने कहा, 'अरे, कर क्या रही हो, मैं तुम्हारा दूसरे दर्जे का टिकट ले रहा हूँ।' वह बोली, 'बेजा क्या है, यहाँ आराम से ही रहूँगी

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भाग 51

2 अगस्त 2022
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हिमालय की चोटी यमुना को जो बर्फगली अक्षय जल-धारा देती है, उस यमुना में युगों-युगों से कवियों ने जो कवित्‍व का स्रोत ढाला है, वह भी अक्षय है। उसकी कल-कल में कितने ही अनोखे छन्‍द गूँजते हैं और उसकी लहरो

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भाग 52

2 अगस्त 2022
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रात में महेंद्र सोया नहीं - थकावट के मारे सुबह-सुबह उसे नींद आई। सुबह आठ-नौ बजे के करीब जग कर वह झट उठ बैठा। पिछली रात की कोई अधूरी पीड़ा नींद के भीतर-ही-भीतर घूमती रही थी। सचेतन होते ही महेंद्र उसकी

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भाग 53

2 अगस्त 2022
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महेंद्र माँ के कमरे में जा रहा था कि आशा दौड़ी-दौड़ी आई। कहा - 'अभी वहाँ मत जाओ!' महेंद्र ने पूछा - 'क्यों?' आशा बोली - 'डॉक्टर ने बताया है, माँ, चाहे दु:ख का हो चाहे सुख का - अचानक कोई धक्का लग

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भाग 54

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भले-बुरे राजलक्ष्मी के दो दिन निकल गए। एक दिन सुबह उनका चेहरा खिला-खिला दिख रहा था। पीड़ा का नामोनिशान नहीं था। उसी दिन उन्होंने महेंद्र को बुला कर कहा - 'मैं अब ज्यादा देर की मेहमान नहीं, बेटे, मगर म

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भाग 55

2 अगस्त 2022
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राजलक्ष्मी की मृत्यु के बाद श्राद्धादि खत्म करके महेंद्र ने कहा - 'भई बिहारी, मैं डॉक्टरी जानता हूँ। तुमने जो काम शुरू किया है, मुझे भी उसमें शामिल कर लो! चुन्नी अब ऐसी गृहिणी बन गई है कि वह भी तुम्हा

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