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भाग 22

2 अगस्त 2022

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महेंद्र घर पहुँचा। उसका चेहरा देखते ही आशा के मन का सारा संदेह कुहरे के समान एक ही क्षण में फट गया। अपनी चिट्ठियों की बात सोच कर महेंद्र के सामने मारे शर्म के वह सिर न उठा सकी। इस पर महेंद्र ने शिकवा किया- 'ऐसे आरोप लगा कर तुमने चिट्ठियाँ लिखीं कैसे!'

और उसने जाने कितनी बार पढ़ी हुई वे तीनों चिट्ठियाँ अपनी जेब से निकालीं। आशा ने गिड़गिड़ाकर कहा - 'तुम्हारे पैर पड़ती हूँ, इन चिट्ठियों को फाड़ फेंको!'

महेंद्र से उन चिट्ठियों को ले लेने के लिए वह उतावली हो गई। महेंद्र ने उसे रोक कर चिट्ठियों को जेब के हवाले किया। कहा - 'मैं काम से गया और तुमने मेरा मतलब ही नहीं समझा? मुझ पर संदेह किया?'

छलछलाती आँखों से आशा बोली - 'अबकी बार मुझे माफ कर दो! आइंदा ऐसा न होगा।'

महेंद्र ने कहा - 'कभी नहीं?'

आशा बोली - 'कभी नहीं।'

महेंद्र ने उसे अपने पास खींच कर चूम लिया। आशा बोली - 'लाओ, चिट्ठियाँ दे दो, फाड़ डालूँ!'

महेंद्र बोला - 'रहने दो उन्हें।'

आशा ने विनय से यह समझा- 'मेरी सजा के रूप में इन्होंने चिट्ठियाँ रख ली हैं।'

चिट्ठियों के चलते आशा का मन विनोदिनी की तरफ से जरा ऐंठ गया। पति लौट आए, यह खबर वह विनोदिनी से कहने न गई, बल्कि उससे कतराती रही। विनोदिनी इसे ताड़ गई और काम के बहाने बिलकुल दूर ही रही।

महेंद्र ने सोचा - 'अजीब है! सोचा था, अबकी बार विनोदिनी को मजे से देख पाऊँगा- उलटा ही हुआ। फिर उन चिट्ठियों का मतलब?'

महेंद्र ने अपने मन को इसके लिए सख्त बनाया कि नारी के दिल को अब कभी समझने की कोशिश नहीं करेगा। सोच रखा था, 'विनोदिनी पास आना भी चाहेगी तो मैं दूर-दूर रहूँगा।' अभी उसके जी में आया, 'न, यह तो ठीक नहीं हो रहा है- सचमुच ही हम लोगों में कोई विकार आ गया है। खुले दिल की विनोदिनी से बातचीत, हँसी-दिल्लगी करके संदेह की इस घुटन को मिटा डालना ही ठीक है।' उसने आशा से कहा - 'लगता है, मैं ही तुम्हारी सखी की आँख की किरकिरी हो गया। उनकी तो अब झाँकी भी नहीं दिखाई पड़ती।'

उदास हो कर आशा बोली - 'जाने उसे क्या हो गया है!'

इधर राजलक्ष्मी आ कर रोनी-सी हो कर बोलीं- 'बेटी, अब तो विपिन की बहू को रोकना मुश्किल हो रहा है।'

महेंद्र चौंकते मगर अपने पर नियंत्रण करते हुए उसने पूछा - 'क्यों माँ?'

'बेटा, वह तो अबकी बार अपने घर जाने के लिए अड़ गई है। तुझे तो किसी की खातिरदारी आती नहीं। एक पराई लड़की अपने घर आई है, उसका अगर घर के लोगों-जैसा आदर-मान न हो तो रहे कैसे?'

विनोदिनी सोने के कमरे में चादर सी रही थी। महेंद्र गया। आवाज दी - 'किरकिरी!'

विनोदिनी सम्हलकर बैठी। पूछा - 'जी! महेंद्र बाबू!'

महेंद्र बाबू ने कहा - 'अजीब मुसीबत है! ये हजरत महेंद्र बाबू कब से हो गए!'

अपनी सिलाई में आँखें गड़ाए हुए ही विनोदिनी बोली - 'फिर क्या कह कर पुकारूँ आपको?'

महेंद्र ने कहा - 'जिस नाम से अपनी सखी को पुकारती हो- 'आँख की किरकिरी'!'

और दिन की तरह विनोदिनी ने मजाक करके कोई जवाब न दिया। वह अपनी सिलाई में लगी रही।

महेंद्र ने कहा - 'लगता है, वही सच्चा रिश्ता है, तभी तो दुबारा जुड़ पा रहा है।'

विनोदिनी जरा रुकी। सिलाई के किनारे से बढ़ रहे धागे के छोर को दाँतों से काटती हुई बोली - 'मुझे क्या पता, आप जानें!'

और दूसरे जवाबों को टाल कर गंभीरता से पूछ बैठी- 'कॉलेज से एकाएक कैसे लौट आए।'

महेंद्र बोला - 'केवल लाश की चीर-फाड़ से कब तक चलेगा?'

विनोदिनी ने फिर दाँत से सूत काटा और उसी तरह सिर झुकाए हुए बोली - 'तो अब जीवन की जरूरत है?'

महेंद्र ने सोचा था, आज विनोदिनी से बड़े सहज ढंग से हँसी-मजाक करूँगा लेकिन बोझ इतना हो गया कि लाख कोशिश करके भी हल्का जवाब जुबान पर न आ सका। विनोदिनी आज कैसी दूरी रख कर चल रही है, यह देख कर महेंद्र उद्वेलित हो गया। इच्छा होने लगी, एक झटके से इस रुकावट को मटियामेट कर दे। उसने विनोदिनी की काटी हुई वाक्य-चिकोटी का कोई जवाब न दिया - अचानक उसके पास जा बैठा। बोला - 'तुम हम लोगों को छोड़ कर जा क्यों रही हो? कोई अपराध हो गया है मुझसे!' विनोदिनी इस पर जरा खिसक गई। सिलाई से सिर उठा कर उसने अपनी बड़ी-बड़ी आँखें महेंद्र की ओर लगा कर कहा - 'काम-धन्धा तो हर किसी को है। आप सब छोड़ कर कहीं और रहने चले दिए। वह क्या किसी अपराध से कम है।'

महेंद्र को कोई अच्छा जवाब ढूँढ़े न मिला। जरा देर चुप रह कर पूछा - 'ऐसा क्या काम पड़ा है कि गए बिना होगा ही नहीं?'

बड़ी सावधानी से सुई में धागा डालती हुई वह बोली -'काम है या नहीं, यह मैं ही जानती हूँ। आपको उसकी फेहरिस्त क्या दूँ!'

महेंद्र खिड़की से बाहर चिंतित-सा बड़ी देर तक एक नारियल की फुनगी पर नजर टिकाए चुप बैठा रहा। विनोदिनी चुपचाप सिलाई करती रही। यह हाल कि फर्श पर सुई गिरे, तो आवाज सुनाई दे! बड़ी देर बाद महेंद्र अचानक बोल उठा। हठात जो निस्तब्धता भंग हुई, विनोदिनी चौंक पड़ी। उसकी उँगली में सुई चुभ गई।

महेंद्र ने पूछा - 'किसी भी तरह से न रुक सकोगी?'

सुई चुभी उँगुली का खून चूसती हुई विनोदिनी ने कहा - 'विनती किस बात की? मैं रही न रही, आपको क्या फर्क पड़ता है।'

कहते-कहते उसका गला भर आया। फिर झुक कर वह सिलाई में लग गई। लगा, उसकी पलकों की कोर में आँखों की हल्की-सी रेखा झलक पड़ी है। माघ का अपराह्न उधर शाम के अँधेरे में खोने लगा था।

लमहे-भर में महेंद्र ने विनोदिनी का हाथ दबा कर रुंधे और सजल स्वर में कहा, 'अगर इससे मेरा कुछ बिगड़ता हो तो रुकोगी?'

विनोदिनी ने झट से हाथ छुड़ा लिया। थोड़ा सरक कर बैठ गई। महेंद्र चौंका। अपनी अंतिम बात अपने ही कानों में व्यंग्य-जैसी गूँजती रही। दोषी जीभ को उसने दाँत से काटा फिर कुछ कहते न बना।

घर में सन्नाटा छाया था, तभी आशा आ गई। विनोदिनी झट कह उठी, 'खैर, तुम लोगों ने जब मेरी अकड़ इतनी बढ़ा रखी है, तो मेरा भी फर्ज है कि तुम लोगों की एक बात मान लूँ। जब तक विदा नहीं करोगे, मैं यहीं रहूँगी।'

पति की कामयाबी से फूली न समाती हुई आशा सखी से लिपट गई। बोली - 'तो फिर यही पक्का रहा! तीन बार कबूल करो कि जब तक हम विदा नहीं करते, तब तक रहोगी, रहोगी, रहोगी।'

विनोदिनी ने तीन बार कबूल किया। आशा ने कहा -'भई किरकिरी, रहना तो पड़ा, फिर नाकों चने क्यों चबवाए? अंत में मेरे पति से हार माननी ही पड़ी।'

विनोदिनी हँस कर बोली - 'भाई साहब, हार मैंने मानी कि तुमने मानी?'

महेंद्र को जैसे काठ मार गया हो। लग रहा था, जैसे उसका अपराध तमाम कमरों में बिखरा पड़ा है। उसने गंभीर हो कर कहा - 'हार तो मेरी ही हुई है।'

और वह कमरे से बाहर चला गया।

और दूसरे ही क्षण फिर अंदर आया। आ कर विनोदिनी से कहा - 'मुझे माफ कर दो!'

विनोदिनी बोली - 'क्या कुसूर किया है तुमने, लालाजी?'

महेंद्र बोला - 'तुम्हें यों जबरदस्ती यहाँ रोक रखने का हमें कोई अधिकार नहीं।'

विनोदिनी हँस कर बोली - 'जबरदस्ती कहाँ की है? प्यार से सीधी तरह ही तो रहने को कहा - यह जबरदस्ती थोड़े है।'

आशा सोलहों आने सहमत हो कर बोली - 'हर्गिज नहीं।'

विनोदिनी ने कहा - 'भाई साहब, तुम्हारी इच्छा है, मैं रहूँ। मेरे जाने से तुम्हें तकलीफ होगी- यह तो मेरी खुशकिस्मती है। क्यों भई किरकिरी, ऐसे सहृदय दुनिया में मिलते कितने हैं? और दु:ख में दुखी, सुख में सुखी भाग्य से कोई मिला, तो मैं ही उसे छोड़ कर जाने को क्यों उतावली होऊँ?'

पति को चुप रहते देख आशा जरा खिन्न मन से बोली - 'बातों में तुमसे कौन जीते? मेरे स्वामी तो हार मान गए, अब जरा रुक भी जाओ।'

महेंद्र फिर तेजी से बाहर हो गया। उधर बिहारी कुछ देर राजलक्ष्मी से बातचीत करके महेंद्र की ओर आ रहा था। दरवाजे पर ज्यों ही बिहारी पर नजर पड़ी, महेंद्र बोल उठा- 'भाई बिहारी, मुझ-सा नालायक दुनिया में दूसरा नहीं।'

उसने कुछ ऐसे कहा कि वह बात कमरे में पहुँच गई।

अंदर से उसी दम पुकार हुई - 'बिहारी बाबू?'

बिहारी ने कहा - 'अभी आया, विनोद भाभी!'

कमरे में जाते ही बिहारी ने तुरंत आशा की तरफ देखा - घूँघट में से जितना-भर दिखाई पड़ा, उसमें विषाद या वेदना की कोई निशानी ही न थी। आशा उठ कर जाने लगी। विनोदिनी उसे पकड़े रही। कहा - 'यह तो बताएँ भाई साहब, मेरी आँखों की किरकिरी से आपका सौत का नाता है क्या? आपको देखते ही वह भाग क्यों जाना चाहती है?'

आशा ने शर्मा कर विनोदिनी को झिड़का।

बिहारी ने हँस कर कहा - 'इसलिए कि विधाता ने मुझे वैसा खूबसूरत नहीं बनाया है।'

विनोदिनी - 'देख लिया भई किरकिरी, बिहारी बाबू किस कदर बचा कर बात करना जानते हैं! इन्होंने तुम्हारी पसंद को दोष नहीं दिया, दिया विधाता को। लक्ष्मण-जैसे सुलक्षण देवर को पा कर तुझे आदर करना न आया, तेरी ही तकदीर खोटी है।'

बिहारी - 'इस पर तुम्हें अगर तरस आए विनोद भाभी, तो फिर मुझे शिकवा ही क्या रहे!'

विनोदिनी - 'समुद्र तो है ही, फिर भी बादलों के बरसे बिना चातक की प्यास क्यों नहीं मिटती?'

आशा को आखिर रोक कर न रखा जा सका। वह जबरदस्ती हाथ छुड़ा कर चली गई। बिहारी भी जाना चाह रहा था। विनोदिनी ने कहा - 'महेंद्र बाबू को क्या हुआ है, कह सकते हैं आप?'

बिहारी ठिठक पड़ा। बोला - 'मुझे तो कुछ पता नहीं, कुछ हुआ है क्या?'

विनोदिनी - 'पता नहीं, मुझे तो ठीक नहीं दीखता।'

उत्सुक हो कर बिहारी कुर्सी पर बैठ गया। पूरी तरह सुन लेने के खयाल से वह उन्मुख हो कर विनोदिनी की ओर ताकता रहा। विनोदिनी कुछ न बोली। मन लगा कर चादर सीने लगी।

कुछ देर रुक कर वह बोला, 'तुमने महेंद्र में खास कुछ गौर किया क्या?'

विनोदिनी बड़े सहज भाव से बोली - 'क्या जानें, मुझे तो ठीक नहीं दीखता। मुझे तो अपनी किरकिरी के लिए फिक्र होती है।' - और एक लंबी उसाँस ले कर वह सिलाई छोड़ कर जाने लगी।

बिहारी ने व्यस्त हो कर कहा - 'जरा बैठो, भाभी!'

विनोदिनी ने कमरे के सारे खिड़की-किवाड़ खोल दिए। लालटेन की बत्ती बढ़ा दी और सिलाई का सामान लिए बिस्तर के उस छोर पर जा बैठी। बोली - 'मैं तो यहाँ सदा रहूँगी नहीं- मेरे चले जाने पर मेरी किरकिरी का खयाल रखना- वह बेचारी दुखी न हो।'

कह कर मन के उद्वेग को जब्त करने के लिए उसने मुँह फेर लिया।

बिहारी बोल पड़ा- 'भाभी, तुम्हें रहना ही पड़ेगा। तुम्हारा अपना कहने को कोई नहीं- इस भोली लड़की को सुख-दु:ख में बचाने का भार तुम लो- कहीं तुम छोड़ गई, तो फिर कोई चारा नहीं।'

विनोदिनी - 'भाई साहब, दुनिया का हाल तुमसे छिपा नहीं, मैं यहाँ सदा कैसे रह सकता हूँ? लोग क्या कहेंगे?'

बिहारी - 'लोग जो चाहें कहें, तुम ध्यान ही मत दो! तुम देवी हो, एक असहाय लड़की को दुनिया की ठोकरों से बचाना तुम्हारे ही योग्य काम है।'

विनोदिनी का रोआँ-रोआँ पुलकित हो उठा। बिहारी के इस भक्ति-उपहार को वह मन से भी गलत मान कर ठुकरा न सकी, हालाँकि वह छलना कर रही थी। ऐसा व्यवहार उसे कभी किसी से न मिला था। विनोदिनी के आँसू देख कर बिहारी मुश्किल से अपने आँसू जब्त करके महेंद्र के कमरे में चला गया। बिहारी को यह बात बिलकुल समझ में न आई कि महेंद्र ने अचानक अपने आपको नालायक क्यों कह दिया। कमरे में जा कर देखा, महेंद्र नहीं था। पता चला, वह टहलने निकल गया है। पहले बे-वजह वह घर से कभी बाहर नहीं जाया करता था। जाने-पहचाने लोगों के घर से बाहर उसे बड़ी परेशानी होती। बिहारी सोचता हुआ धीरे-धीरे अपने घर चला गया।

विनोदिनी आशा को अपने कमरे में ले आई। उसे छाती से लगा कर छलछलाई आँखों से कहा - 'भई किरकिरी, मैं बड़ी अभागिन हूँ, बड़ी बदशकुन।'

आशा दुखी मन से बोली - 'ऐसा क्यों कहती हो, बहन?'

सुबकते बच्चे की तरह वह आशा की छाती में मुँह गाड़ कर बोली - 'मैं जहाँ भी रहूँगी, बुरा ही होगा। मुझे छोड़ दे बहन, छुट्टी दे! मैं अपने जंगल में चली जाऊँ।'

महेंद्र से बिहारी की मुलाकात न हो सकी, इसलिए कोई बहाना बना कर फिर वह वहाँ आया ताकि आशा और महेंद्र के बीच की आशंका वाली बात को और कुछ साफ तौर से जान सके।

वह विनोदिनी से यह अनुरोध करने का बहाना लिए आया कि कल महेंद्र को अपने यहाँ भोजन के लिए आने को कहे। उसने आवाज दी - 'विनोद भाभी!' और बाहर से ही बत्ती की मद्धम रोशनी में गीली आँखों वाली दोनों सखियों को आलिंगन में देख कर वह ठिठक गया। अचानक आशा के मन में हुआ कि हो न हो, आज बिहारी ने जरूर विनोदिनी से कुछ निंदा की बात कही है, तभी वह जाने की बात कर रही है। यह तो बिहारी बाबू की बड़ी ज्यादती है। ऊँहू, अच्छे मिजाज के नहीं हैं। कुढ़ कर आशा बाहर निकल आई और बिहारी भी विनोदिनी के प्रति मन की भक्ति की ओर बढ़ कर बैरँग वापस हो गया।

रात को महेंद्र ने आशा से कहा - 'चुन्नी, मैं सुबह की गाड़ी से बनारस चला जाऊँगा।'

आशा का कलेजा धक से रह गया। पूछा, 'क्यों?'

महेंद्र बोला - 'काफी दिन हो गए, चाची से भेंट नहीं हुई।' महेंद्र की यह बात सुन कर आशा शर्मिंदा हो गई। उसे यह इससे भी पहले सोचना चाहिए था। अपने सुख-दु:ख के आकर्षण में वह अपनी स्नेहमयी मौसी को भूल गई।

महेंद्र ने कहा - 'अपने स्नेह की एकमात्र थाती को वह मेरे ही हाथों सौंप गई हैं - उन्हें एक बार देखे बिना मुझे चैन नहीं मिलता।'

कहते-कहते महेंद्र का गला भर आया। स्नेह-भरे मौन आशीर्वाद और अव्यक्त मंगल-कामना से वह बार-बार अपना दायाँ हाथ आशा के माथे पर फेरने लगा। अचानक ऐसे उमड़ आए स्नेह का मर्म आशा न समझ सकी। उसका हृदय केवल पिघल कर आँखों से बहने लगा। आज ही शाम को स्नेहवश विनोदिनी ने उसे जो कुछ कहा था, याद आया। इन दोनों में कहीं योग भी है या नहीं, वह समझ न सकी। लेकिन उसे लगा, 'यह मानो उसके जीवन की कोई सूचना है। अच्छी बुरी, कौन जाने!'

भय से व्याकुल हो कर उसने महेंद्र को बाँहों में जकड़ लिया। महेंद्र उसके नाहक संदेह के आवेश को समझ गया। बोला - 'चुन्नी, तुम पर तुम्हारी पुण्यवती मौसी का आशीर्वाद है। तुम्हें कोई खतरा नहीं। तुम्हारी ही भलाई के लिए वह अपना सर्वस्व छोड़ कर चली गई - तुम्हारा कभी कोई बुरा नहीं हो सकता।'

इस पर आशा ने निडर हो कर अपने मन के भय को निकाल फेंका। पति के इस आशीर्वाद को उसने अक्षय कवच के समान ग्रहण किया। मन-ही-मन उसने मौसी के चरणों की धूल को बार-बार अपने माथे से लगाया और एकाग्र हो कर बोली - 'तुम्हारा आशीर्वाद सदा मेरे स्वामी की रक्षा करे।'

दूसरे दिन महेंद्र चला गया। विनोदिनी ने जाते समय कुछ न बोला। विनोदिनी मन में कहने लगी - 'गलती खुद की और गुस्सा मुझ पर! ऐसा साधु पुरुष तो मैंने नहीं देखा। लेकिन ऐसी साधुता ज्यादा दिन नहीं टिकती!'

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रचनाएँ
आँख की किरकिरी
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आँख की किरकिरी’ रवीन्द्रनाथ ठाकुर के बंगला उपन्यास ‘चोखेर बालि’ का हिन्दी अनुवाद है। कई कारणों से इस उपन्यास की गिनती गुरुदेव की सर्वोत्कृष्ट रचनाओं में होती है। इसका प्रथम प्रकाशन 1902 ई. में हुआ था। इस प्रकार यह उपन्यास सच्चे अर्थों में भारत का पहला आधुनिक उपन्यास है। यद्यपि रवीन्द्रनाथ ने ऐसे अनेक उपन्यास लिखें हैं जो ‘चोखेर बालि’ से अधिक विख्यात है, परन्तु कथाकार का जो रूप हमें इसमें मिलता है वह अन्यत्र नहीं। अन्य किसी उपन्यास में उन्होंने मानव-जीवन के चित्रण में ऐसे मृदुल और नीरव व्यंग्य का समावेश नहीं किया है। प्रणय और यौन-वासना का अविच्छिन्न सम्बन्ध को उन्होंने किसी उपन्यास में ऐसी प्रकट हानुभूति नहीं दी है। इस उपन्यास में ही उन्होंने वासना के पंक में प्रस्फुटित होने वाले प्रेम के निर्मल शतदल की झाँकी दिखाई है। गुरुदेव द्वारा निर्मित नारी चरित्रों में विनोदिनी सबसे अधिक यथार्थ, सबसे अधिक विश्वसनीय और सबसे अधिक जीवन्त है।
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आँख की किरकिरी 1

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1 विनोद की माँ हरिमती महेंद्र की माँ राजलक्ष्मी के पास जा कर धरना देने लगी। दोनों एक ही गाँव की थीं, छुटपन में साथ खेली थीं। राजलक्ष्मी महेंद्र के पीछे पड़ गईं - 'बेटा महेंद्र, इस गरीब की बिटिया का

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भाग 2

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कन्या देखने की बात महेंद्र ने की जरूर मगर वह भूल गया, फिर भी अन्नपूर्णा नहीं भूलीं। उन्होंने लड़की के अभिभावक, उसके बड़े चाचा को जल्दी में श्यामबाजार पत्र भेजा और एक दिन तय कर लिया। महेंद्र ने जब स

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भाग 3

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रात में महेंद्र ठीक से सो नहीं पाया। तड़के ही वह बिहारी के घर पहुँच गया। बोला - 'यार, मैंने बड़ी ध्यान से सोचा और देखा कि चाची यही चाहती है कि शादी मैं ही करूँ।' बिहारी बोला - 'इसके लिए सोचने क

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भाग 4

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आखिर राजलक्ष्मी असीम उत्साह से बहू को गृहस्थी के काम-काज सिखाने में जुट गई। भंडार, रसोई और पूजा-घर में आशा के दिन कटने लगे, रात को अपने साथ सुला कर वह उसके आत्मीय बिछोह की कमी को पूरा करने लगीं। काफी

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भाग 5

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कुछ दिन सूखा पड़ने से नाज के जो पौधे सूख कर पीले पड़ जाते हैं, बारिश आने पर वे तुरंत बढ़ जाते हैं। आशा के साथ भी ऐसा ही हुआ। जहाँ उसका रक्त संबंध था, वहाँ वह कभी भी आत्मीयता का दावा न कर सकी, आज पराए

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भाग 6

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एक दिन बारिश हो रही थी। बादल घिरे थे। ऐसे में बदन पर एक सुवासित महीन चादर और जुही की माला गले में डाले महेंद्र मगन-मन अपने सोने के कमरे में पहुँचा। अचानक आशा को चौंका देने के विचार से- जूतों की आवाज न

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भाग 7

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राजलक्ष्मी मैके पहुँचीं। तय था कि उन्हें छोड़ कर बिहारी आ जाएगा लेकिन वहाँ की हालत देख कर वह ठहर गया। राजलक्ष्मी के मैके में महज दो-एक बूढ़ी विधवाएँ थीं। चारों तरफ घना जंगल और बाँस की झाड़ियाँ; पोख

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भाग 8

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आशा को डर लगा। क्या हुआ यह? माँ चली गईं, मौसी चली गईं। उन दोनों का सुख मानो सबको खल रहा है, अब उसकी बारी है शायद। सूने घर में दांपत्य की नई प्रेम-लीला उसे न जाने कैसी लगने लगी। संसार के कठोर कर्तव्यो

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भाग 9

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इतने में दुतल्ले से महेंद्र भैया की पुकार सुनाई पड़ी। 'अरे रे, आओ... आओ...' महेंद्र ने जवाब दिया। बिहारी की आवाज से उसका हृदय खिल उठा। विवाह के बाद वह इन दोनों के सुख का बाधक बन कर कभी-कभी आता रहा है,

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भाग 10

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बिहारी ने खुद बैठ कर महेंद्र से चिट्ठी लिखवाई और उस पत्र के साथ दूसरे ही दिन राजलक्ष्मी को लेने गया। राजलक्ष्मी समझ गई, चिट्ठी बिहारी ने लिखवाई है- मगर फिर भी उससे रहा न गया। साथ-साथ विनोदिनी आई। लौट

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भाग 11

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आशा को एक साथी की बड़ी जरूरत थी। प्यार का त्योहार भी महज दो आदमियों से नहीं मनता - मीठी बातों की मिठाई बाँटने के लिए गैरों की भी जरूरत पड़ती है। भूखी-प्यासी विनोदिनी भी नई बहू से प्रेम के इतिहास को श

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भाग 12

2 अगस्त 2022
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एक दिन आखिर आजिज आ कर महेंद्र ने माँ से कहा - 'यह अच्छी बात है, माँ? दूसरे के घर की एक जवान विधवा को घर रख कर एक भारी जिम्मेदारी कंधे पर लाद लेने की क्या पड़ी है? जाने कब क्या मुसीबत हो?' राजलक्ष्मी

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भाग 13

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विनोदिनी जब बिलकुल ही पकड़ में न आई, तो आशा को एक तरकीब सूझी। बोली, 'भई आँख की किरकिरी, तुम मेरे पति के सामने क्यों नहीं आती, भागती क्यों फिरती हो?' विनोदिनी ने बड़े संक्षेप में लेकिन तेज स्वर में कह

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भाग 14

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आशा ने पूछा, 'अब सच-सच बताना, मेरी आँख की किरकिरी कैसी लगी तुम्हें?' महेंद्र ने कहा - 'बुरी नहीं।' आशा बहुत ही क्षुब्ध हो कर बोली, 'तुम्हें तो कोई अच्छी ही नहीं लगती।' महेंद्र - 'सिर्फ एक को

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भाग 15

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बाहर से हिला-डुला दो तो दबी राख में आग फिर से लहक उठती है। आशा और महेंद्र की मुहब्बत का उछाह मंद पड़ता जा रहा था, वह तीसरी तरफ की ठोकर से फिर जाग पड़ा। आशा में हँसी-दिल्लगी की ताकत न थी, पर आशा उससे

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बिहारी ने सोचा - 'ऊँहूँ! दूर-दूर रहने से अब काम नहीं चलने का। चाहे जैसे हो, इसके बीच अपने लिए भी जगह बनानी पड़ेगी। इनमें से किसी को यह पसंद तो न होगा, लेकिन फिर भी मुझे रहना पड़ेगा।' बुलावे या स्वा

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भाग 17

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बीच में यह जो झमेला खड़ा हुआ, उसे एकबारगी चुका देने की नीयत से महेंद्र ने प्रस्ताव रखा कि अगले इतवार को दमदम के बगीचे में पिकनिक कर आएँ। आशा बहुत खुश हो गई। लेकिन विनोदिनी राजी न हुई। उसके तैयार न

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भाग 18

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पिकनिक के दिन जो वाकया गुजरा उसके बाद फिर महेंद्र में विनोदिनी को अपनाने की चाहत बढ़ने लगी। लेकिन दूसरे ही दिन राजलक्ष्मी को फ्लू हो गया। बीमारी कुछ खास न थी, फिर भी उन्हें तकलीफ और कमजोरी काफी थी।

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भाग 19

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विनोदिनी ने सोचा, 'आखिर माजरा क्या है? मान या गुस्सा या डर, पता नहीं क्या? मुझे यह दिखाना चाहते हैं कि वह मेरी परवाह नहीं करते? बाहर जा कर रहेंगे? अच्छा, यही देखना है, कितने दिन?' लेकिन खुद उसके मन म

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भाग 20

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जल्दी ही महेंद्र को एक चिट्ठी मिली। उस पर पहचाने अक्षर देख कर वह चौंक गया। दिन में झमेलों के कारण उसने उसे खोला नहीं - कलेजे के पास जेब में डाल दिया। कॉलेज के लेक्चर सुनते हुए, अस्पताल का चक्कर काटते

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भाग 21

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इस बीच और एक चिट्ठी आ पहुँची - 'तुमने मेरे पत्र का जवाब नहीं दिया? अच्छा ही किया, सही बात लिखी तो नहीं जाती; तुम्हारा जो जवाब है, उसे मैंने मन में समझ लिया। भक्त जब अपने देवता को पुकारता है तो देवता

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भाग 22

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महेंद्र घर पहुँचा। उसका चेहरा देखते ही आशा के मन का सारा संदेह कुहरे के समान एक ही क्षण में फट गया। अपनी चिट्ठियों की बात सोच कर महेंद्र के सामने मारे शर्म के वह सिर न उठा सकी। इस पर महेंद्र ने शिकवा

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भाग 23

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बहुत दिनों के बाद अचानक महेंद्र को आते देख कर एक ओर तो अन्नपूर्णा गदगद हो गईं और दूसरी ओर उन्हें यह शंका हुई कि शायद आशा की माँ से फिर कुछ चख-चख हो गई है - महेंद्र उसी की शिकायत पर दिलासा देने आया है।

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भाग 24

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महेंद्र ने सोचा, गलत, मैं विनोदिनी को प्यार नहीं करता। शायद प्यार न भी करता हूँ, मगर कहना कि नहीं करता हूँ यह तो और भी कठिन है। इससे चोट न पहुँचे, ऐसी स्त्री कौन है? इसके प्रतिवाद की गुंजाइश कैसे हो?

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भाग 25

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उस दिन फागुन की पहली बसंती बयार बह आई। बड़े दिनों के बाद आशा शाम को छत पर चटाई बिछा कर बैठी। मद्धिम रोशनी में एक मासिक पत्रिका में छपी हुई एक धारावाहिक कहानी पढ़ने लगी। एक जगह जब कहानी का नायक काफी दि

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भाग 26

2 अगस्त 2022
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एक ओर चाँद डूबता है, दूसरी और सूरज उगता है। आशा चली गई लेकिन महेंद्र के नसीब में अभी तक विनोदिनी के दर्शन नहीं। महेंद्र डोलता-फिरता, जब-तब किसी बहाने माँ के कमरे में पहुँच जाता - लेकिन विनोदिनी उसे पा

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भाग 27

2 अगस्त 2022
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महेंद्र वापस आ गया और कुछ ही दिनों में आशा काशी पहुँच गई, इससे अन्नपूर्णा को बड़ी आशंका हुई। आशा से वह तरह-तरह के सवाल पूछने लगी - 'क्यों री चुन्नी, और तेरी वह आँख की किरकिरी! तेरी राय में जिसके मुका

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भाग 28

2 अगस्त 2022
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उस दिन रात तक जागते रहने और भारी आवेग के कारण सुबह महेंद्र में एक अवसाद-सा था। फागुन के अधबीच गर्मी पड़नी शुरू हो गई थी। और सवेरे महेंद्र अपने सोने के कमरे के एक ओर बैठ कर पढ़ता था। आज वह तकिए के सहार

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भाग 29

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दूसरे दिन सो कर उठते ही एक मीठे आवेग से महेंद्र का हृदय परिपूर्ण हो गया। प्रभात की सुनहली किरणों ने मानो उसकी सभी चिंता-वासना पर सोना फेर दिया। कितनी प्यारी है पृथ्वी, कितना अच्छा आकाश! फूल के पराग जै

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भाग 30

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आशा ने एक दिन अन्नपूर्णा से पूछा - 'अच्छा मौसी, मौसा जी तुम्हें याद आते हैं?' अन्नपूर्णा बोलीं - 'महज ग्यारह साल की उम्र में मैं विधवा हुई, पति की सूरत मुझे छाया-सी धुँधली याद है।' आशा ने पूछा - 'फि

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भाग 31

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आशा लौट आई। रूठ कर विनोदिनी ने कहा - 'भई किरकिरी, इतने दिन पीहर रही, खत लिखना भी पाप था क्या?' आशा बोली - 'और तुमने तो लिख दिया जैसे!' विनोदिनी - 'मैं पहले क्यों लिखती, पहले तुम्हें लिखना था।' विनो

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भाग 32

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आशा सोचने लगी - 'लेकिन ऐसा क्यों हुआ है?' मैंने क्या किया? लेकिन असली आफत जहाँ थी, वहाँ उसकी नजर न पड़ी। महेंद्र विनोदिनी को प्यार कर सकता है, इसकी संभावना तक उसके मन में न आ सकी थी। दुनिया के अनुभव उ

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भाग 33

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दूसरे दिन सुबह से ही घटा घुमड़ी रही। कुछ देर बेहद गर्मी थी, फिर काले-काजल से मेघों में से झुलसा आकाश जुड़ गया। आज महेंद्र समय से पहले ही कॉलेज चला गया। बदले हुए कपड़े फर्श पर पड़े थे। आशा गिन-गिन कर क

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भाग 34

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राजलक्ष्मी ने आज सुबह से विनोदिनी को बुलाया नहीं। रोज की तरह विनोदिनी भंडार में गई। राजलक्ष्मी ने सिर उठा कर उसकी ओर नहीं देखा। यह देख कर भी उसने कहा - 'बुआ, तबीयत ठीक नहीं है, क्यों? हो भी कैसे? क

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भाग 35

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बिहारी अब मेडिकल कॉलेज में पढ़ रहा था। ऐन इम्तहान के वक्त छोड़ दिया। कोई अचरज से पूछ बैठता, तो कहता- 'पराई सेहत की बात फिर देखी जाएगी, पहले तंदुरुस्ती का खयाल जरूरी है।' असल में बिहारी के अध्यवसाय

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भाग 36

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असंभव भी संभव हो जाता है, असह्य भी सह्य हो जाता है। ऐसा न होता तो उस दिन की रात महेंद्र के घर में कटती नहीं। विनोदिनी को तैयार रहने का कह कर महेंद्र ने रात ही एक पत्र लिखा था। वह पत्र डाक से सवेरे महे

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भाग 37

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रात के अँधेरे में बिहारी कभी अकेले ध्यान नहीं लगाता। अपने लिए अपने को उसने कभी भी आलोच्य नहीं बनाया। वह पढ़ाई-लिखाई, काम-काज, हित-मित्रों में ही मशगूल रहता। अपने बजाय अपने चारों तरफ की दुनिया को प्रमु

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भाग 38

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रेल के औरतों वाले सूने डिब्बे में बैठी विनोदिनी ने खिड़की में से जब जुते हुए खेत और बीच-बीच में छाया से घिरे गाँव देखे, तो मन में सूने शीतल गाँव की जिंदगी ताजा हो आई। उसे लगने लगा, पेड़ों की छाया के ब

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भाग 39

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टोले में एक हलचल-सी मच गई। देवी थान में इकट्ठे हो कर बड़े-बूढ़ों ने कहा - 'अब तो बर्दाशत के बाहर है। कलकत्ता के कारनामों को अनसुना भी किया जा सकता था - मगर इसकी यह हिम्मत! लगातार महेंद्र को चिट्ठी लिख

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भाग 40

2 अगस्त 2022
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महेंद्र कहाँ चला गया, इस आशंका से राजलक्ष्मी ने खाना-सोना छोड़ दिया। संभव-असंभव सभी जगहों में साधुचरण उसे ढूँढ़ता फिरने लगा - ऐसे में विनोदिनी को ले कर महेंद्र कलकत्ता आया। पटलडाँगा के मकान में उसे रख

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भाग 41

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रात को जब उसे पटलडाँगा के डेरे पर छोड़ कर महेंद्र अपने कपड़े और किताबें लाने घर चला गया, तो कलकत्ता के अविश्राम जन-स्रोत की हलचल में अकेली बैठी विनोदिनी अपनी बात सोचने लगी। दुनिया में पनाह की जगह काफी

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भाग 42

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'महेंद्र रात में ही उठ कर चला गया,' यह सुन कर राजलक्ष्मी बहू पर बहुत नाराज हुईं। उन्होंने समझा बहू की लानत-मलामत से ही वह चला गया। उन्होंने आशा से पूछा - 'महेंद्र रात चला क्यों गया?' आशा ने सिर झुक

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भाग 43

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अगले दिन महेंद्र ने माँ से कहा - 'माँ, पढ़ने-लिखने के लिए मुझे कोई एकांत कमरा चाहिए। मैं चाची वाले कमरे में रहूँगा।' माँ खुश हो गई, 'तब तो महेंद्र अब घर में ही रहा करेगा। लगता है, बहू से सुलह हो गई।

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भाग 44

2 अगस्त 2022
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राजलक्ष्मी ने जब साफ समझ लिया कि आशा महेंद्र के मन को बाँध नहीं पा रही है, तो उनके जी में आया, कम-से-कम मेरी बीमारी के नाते ही महेंद्र को यहाँ रहना पड़े, तो भी अच्छा है। उन्हें डर लगा, कहीं वे सचमुच ठ

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भाग 46

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दूसरे दिन तड़के ही महेंद्र बिहारी के यहाँ पहुँच गया। देखा, दरवाजे पर कई बैलगाड़ियों पर नौकर-चाकर सामान लाद रहे हैं। महेंद्र ने भज्जो से पूछा - 'माजरा क्या है?' भज्जो ने कहा - 'बाबू ने बाली में गंगा के

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भाग 47

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बिहारी की खोज-खबर ले कर महेंद्र लौटेगा, इस आशा से घर में उसकी रसोई बनी थी। काफी देर हो गई तो दुखी राजलक्ष्मी बेचैन हो उठीं। रात-भर नींद न आई थी, इससे वह काफी थकी थीं, फिर महेंद्र के लिए यह बेताबी उन्ह

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भाग 47

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अन्नपूर्णा काशी से आईं। धीरे-धीरे राजलक्ष्मी के कमरे में जा कर उन्हें प्रणाम करके उनके चरणों की धूल माथे ली। बीच में इस बिलगाव के बावजूद अन्नपूर्णा को देख कर राजलक्ष्मी ने मानो कोई खोई निधि पाई। उन्हे

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भाग 48

2 अगस्त 2022
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जिन दिनों बिहारी पश्चिम में भटकता फिर रहा था, उसके मन में आया, 'जब तक कोई काम ले कर न बैठूँ चैन न मिलेगा।' यही सोच कर उसने कलकत्ता के गरीब किरानियों के मुफ्त इलाज और सेवा-जतन का भार उठाया। गर्मी के दि

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भाग 49

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बिहारी सोच रहा था, दुखिया आशा की ओर वह देखेगा कैसे! डयोढ़ी के अंदर कदम रखते ही स्वामीहीन घर की घनीभूत पीड़ा उसे दबोच बैठी। घर के नौकर-दरबानों की ओर ताकते हुए बौराए हुए महेंद्र के भाग जाने की शर्म ने उ

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भाग 50

2 अगस्त 2022
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स्टेशन जा कर विनोदिनी औरतों वाले ड्योढ़े दर्जे के डिब्बे में जा बैठी। महेंद्र ने कहा, 'अरे, कर क्या रही हो, मैं तुम्हारा दूसरे दर्जे का टिकट ले रहा हूँ।' वह बोली, 'बेजा क्या है, यहाँ आराम से ही रहूँगी

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भाग 51

2 अगस्त 2022
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हिमालय की चोटी यमुना को जो बर्फगली अक्षय जल-धारा देती है, उस यमुना में युगों-युगों से कवियों ने जो कवित्‍व का स्रोत ढाला है, वह भी अक्षय है। उसकी कल-कल में कितने ही अनोखे छन्‍द गूँजते हैं और उसकी लहरो

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भाग 52

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रात में महेंद्र सोया नहीं - थकावट के मारे सुबह-सुबह उसे नींद आई। सुबह आठ-नौ बजे के करीब जग कर वह झट उठ बैठा। पिछली रात की कोई अधूरी पीड़ा नींद के भीतर-ही-भीतर घूमती रही थी। सचेतन होते ही महेंद्र उसकी

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भाग 53

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महेंद्र माँ के कमरे में जा रहा था कि आशा दौड़ी-दौड़ी आई। कहा - 'अभी वहाँ मत जाओ!' महेंद्र ने पूछा - 'क्यों?' आशा बोली - 'डॉक्टर ने बताया है, माँ, चाहे दु:ख का हो चाहे सुख का - अचानक कोई धक्का लग

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भाग 54

2 अगस्त 2022
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भले-बुरे राजलक्ष्मी के दो दिन निकल गए। एक दिन सुबह उनका चेहरा खिला-खिला दिख रहा था। पीड़ा का नामोनिशान नहीं था। उसी दिन उन्होंने महेंद्र को बुला कर कहा - 'मैं अब ज्यादा देर की मेहमान नहीं, बेटे, मगर म

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भाग 55

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राजलक्ष्मी की मृत्यु के बाद श्राद्धादि खत्म करके महेंद्र ने कहा - 'भई बिहारी, मैं डॉक्टरी जानता हूँ। तुमने जो काम शुरू किया है, मुझे भी उसमें शामिल कर लो! चुन्नी अब ऐसी गृहिणी बन गई है कि वह भी तुम्हा

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