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भाग 38

2 अगस्त 2022

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रेल के औरतों वाले सूने डिब्बे में बैठी विनोदिनी ने खिड़की में से जब जुते हुए खेत और बीच-बीच में छाया से घिरे गाँव देखे, तो मन में सूने शीतल गाँव की जिंदगी ताजा हो आई। उसे लगने लगा, पेड़ों की छाया के बीच अपने-आप बनाए कल्पना के बसेरे में अपनी किताबों से उलझ कर कुछ दिनों के इस नगर-प्रवास के दु:ख-दाह और जख्म से उसे शांति मिलेगी।

प्यासी छाती में चैन की वह उम्मीद ढोती हुई विनोदिनी अपने घर पहुँची। मगर हाय, चैन कहाँ! वहाँ तो केवल शून्यता थी, थी गरीबी। बहुत दिनों से बंद पड़े सीले घर के भाप से उसकी साँस अटकने लगी। घर में जो थोड़ी-बहुत चीजें थीं, उन्हें कीड़े चाट गए थे, चूहे कुतर गए थे, गर्द से बुरा हाल था। वह शाम को घर पहुँची - और घर में पसरा था बाँह-भर अँधेरा। सरसों के तेल से किसी तरह रोशनी जलाई- उसके धुएँ और धीमी जोत से घर की दीनता और भी साफ झलक उठी। पहले जिससे उसे पीड़ा नहीं होती थी, वह अब असह्य हो उठी| उसका बागी हृदय अकड़ कर बोल उठा - 'यहाँ तो एक पल भी नहीं कटने का। ताक पर दो-एक पुरानी पत्रिकाएँ और किताबें पड़ी थीं, किन्तु उन्हें छूने को जी न चाहा। बाहर सन्न पड़े-से आम के बगीचे में झींगुर और मच्छरों की तानें अँधेरे में गूँजती रहीं।

विनोदिनी की जो बूढ़ी अभिभाविका वहाँ रहती थी, वह घर में ताला डाल कर अपनी बेटी से मिलने उसकी ससुराल चली गई थी। विनोदिनी अपनी पड़ोसिन के यहाँ गई। वे तो उसे देख कर दंग रह गईं। उफ, रंग तो खासा निखर आया है, बनी-ठनी, मानो मेम साहब हो। इशारे से आपस में जाने क्या कह कर विनोदिनी पर गौर करती हुई एक-दूसरे का मुँह ताकने लगीं।

विनोदिनी पग-पग पर यह महसूस करने लगी कि अपने गाँव से वह सब तरह से बहुत दूर हो गई है। अपने ही घर में निर्वासित-सी। कहीं पल भर आराम की जगह नहीं।

डाक खाने का बूढ़ा डाकिया विनोदिनी का बचपन से परिचित था। दूसरे दिन वह पोखर में डुबकी लगाने जा रही थी कि डाक का थैला लिए उसे जाते देख विनोदिनी अपने आपको न रोक सकी। अँगोछा फेंक जल्दी से बाहर निकल कर पूछा - 'पंचू भैया, मेरी चिट्ठी है?'

बुड्ढे ने कहा - 'नहीं।'

विनोदिनी उतावली हो कर बोली - 'हो भी सकती है। देखूँ तो जरा।'

यह कह कर उसने चिट्ठियों को उलट-पलट कर देखा। पाँच-छ: ही तो चिट्ठियाँ थीं। मुहल्ले की कोई न थी। उदास-सी जब घाट पर लौटी तो उसकी किसी सखी ने ताना दिया- 'क्यों री बिन्दी, चिट्ठी के लिए इतनी परेशान क्यों?'

दूसरे एक बातूनी ने कहा - 'अच्छी बात है, अच्छी! डाक के जरिये चिट्ठी आए, ऐसा भाग कितनों का होता है? हमारे तो पति, देवर, भाई परदेस में काम करते हैं, मगर डाकिए की मेहरबानी तो कभी नहीं होती।'

बातों-ही-बातों में मजाक साफ चि‍‍कोटी गहरी होने लगी। विनोदिनी बिहारी से निहोरा कर आई थी - निहायत ही रोज-रोज लिखते न बने, तो कम-से-कम हफ्ते में दो बार तो दो पंक्तियाँ जरूर लिखे। आज ही बिहारी की चिट्ठी आए, यह उम्मीद नहीं के बराबर ही थी, लेकिन आकांक्षा ऐसी बलवती हो कि वह दूर-संभावना की आशा भी विनोदिनी न छोड़ सकी। उसे लगने लगा, जाने कब से कलकत्ता छूट गया है!

गाँव में महेंद्र को ले कर किस कदर उसकी निंदा हुई थी, दोस्त-दुश्मन की दया से यह उसकी अजानी न रही। शांति कहाँ!

गाँव के लोगों से उसने अपने को अछूता रखने की कोशिश की। लोग-बाग इससे और भी बिगड़ उठे। पापिनी को पास पा कर घृणा और पीड़न के विलास सुख से अपने को वे वंचित नहीं रखना चाहते।

छोटा-सा गाँव - अपने को सबसे छिपाए रखने की कोशिश बेकार है। यहाँ जख्मी हृदय को किसी कोने में दुबका कर अँधेरे में सेवा-जतन की गुंजाइश नहीं - जहाँ-तहाँ से कौतूहल-भरी निगाह जख्म पर आ कर पड़ने लगी। उसका अंतर टोकरी में बंद पड़ी ज़िंदा मछली-सा तड़पने लगा। यहाँ आज़ादी के साथ पूरी तरह दु:ख भोग सकने की भी जगह नहीं।

दूसरे दिन जब चिट्ठी का समय निकल गया तो कमरा बंद करके विनोदिनी पत्र लिखने बैठी -

'भाई साहब, डरो मत, मैं तुम्हें प्रेम-पत्र लिखने नहीं बैठी हूँ। तुम मेरे विचारक हो, तुम्हें प्रणाम करती हूँ। मैंने जो पाप किया, तुमने उसकी बड़ी सख्त सजा दी। तुम्हारा हुक्म होते ही मैंने उस सजा को माथे पर रख लिया है। अफसोस इसी बात का है कि तुम देख नहीं सके कि यह सजा कितनी कड़ी है। देख पाते, कहीं जान पाते, तो तुम्हारे मन में जो दया होती, मैं उससे भी वंचित रही। तुम्हें याद करके, मन-ही-मन तुम्हारे पाँवों के पास माथा टेके मैं उसे भी बर्दाश्त करूँगी। लेकिन प्रभु, कैदी को क्या खाना भी नसीब नहीं होता? व्यंजन न सही, जितना-भर न मिलने से काम नहीं चल सकता, उतना भोजन तो उसका बँधा होता है? मेरे इस निर्वासन का आहार है तुम्हारी दो पंक्तियाँ - वह भी न बदा हो तो वह निर्वासन-दंड नहीं, प्राण-दंड है। सजा देने वाले मेरी इतनी बड़ी परीक्षा न लो। मेरे पापी मन में दंभ की हद न थी - स्वप्न में भी मुझे यह पता न था कि किसी के आगे मुझे इस कदर सिर झुकाना पड़ेगा। जीत तुम्हारी हुई प्रभो, मैं बगावत न करूँगी। मगर मुझ पर रहम करो, मुझे जीने दो। इस सूने जंगल में रहने का थोड़ा-बहुत सहारा मुझे दिया करना। फिर तो तुम्हारे शासन से मुझे कोई भी किसी भी हालत में डिगा न सकेगा। यही दुखड़ा रोना था। और जो बातें जी में हैं, कहने को कलेजा मुँह को आता है। पर वे बातें तुम्हें न बताऊँगी, मैंने शपथ ली है। उस शपथ को मैंने पूरा किया।

- तुम्हारी विनोदिनी।'

विनोदिनी ने पत्र डाक में डाल दिया। मुहल्ले के लोग छि:-छि: करने लगे। कमरा बंद किए रहती है, चिट्ठी लिखा करती है, चिट्ठी के लिए डाकिए को जा कर तंग करती है - दो दिन कलकत्ता रहने से क्या लाज-धरम को इस तरह घोल कर पी जाना चाहिए!

उसके बाद के दिन भी चिट्ठी न मिली। विनोदिनी दिन-भर गुमसुम रही।

बिहारी का उसके पास कुछ भी न था - एक पंक्ति की चिट्ठी तक नहीं। कुछ भी नहीं। वह शून्य में मानो कोई चीज खोजती फिरने लगी। बिहारी की किसी निशानी को अपने कलेजे से लगा कर सूखी आँखों में वह आँसू लाना चाहती थी। आँसुओं में मन की सारी कठिनता को गला कर, विद्रोह की भभकती आग को बुझा कर, वह बिहारी के कठोर आदेश को अंतर के कोमलतम प्रेम-सिंहासन पर बिठाना चाहती थी। लेकिन सूखे के दिनों की दोपहरी के आसमान-जैसा उसका कलेजा सिर्फ जलने लगा।

विनोदिनी ने सुन रखा था, हृदय से जिसे पुकारो, उसे आना ही पड़ता है। इसीलिए हाथ बाँधे आँखें मूँद कर वह बिहारी को पुकारने लगी - 'मेरा जीवन सूना पड़ा है, हृदय सूना है, चारों ओर सुनसान है - इस सूनेपन के बीच तुम एक बार आओ। घड़ी-भर को ही सही - तुम्हें आना पड़ेगा। मैं तुम्हें हर्गिज नहीं छोड़ सकती।' हृदय से इस तरह पुकारने से विनोदिनी को मानो सच्चा बल मिला। उसे लगा, प्रेम की पुकार का यह बल बेकार नहीं जाने का।

साँझ का दीप-विहीन अँधेरा कमरा जब बिहारी के ध्यान से घने तौर पर परिपूर्ण हो उठा, जब दीन-दुनिया, गाँव-समाज, समूचा त्रिभुवन प्रलय में खो गया तो अचानक दरवाजे पर थपकी सुन कर विनोदिनी झट-पट जमीन पर से उठ खड़ी हुई और दृढ़ विश्वास के साथ दौड़ कर दरवाजा खोलती हुई बोली - 'प्रभु, आ गए?' उसे पक्का विश्वास था कि इस घड़ी दूसरा कोई उसके दरवाजे पर नहीं आ सकता।

महेंद्र ने कहा - 'हाँ, आ गया विनोद!'

विनोदिनी बेहद खीझ से बोल उठी- 'चले जाओ, चले जाओ, चले जाओ यहाँ से। अभी चल दो तुरंत।'

महेंद्र को मानो काठ मार गया।

'हाँ री बिन्दी, तेरी ददिया सास अगर कल...' कहते-कहते कोई प्रौढ़ा पड़ोसिन विनोदिनी के दरवाजे पर आ कर सहसा 'हाय राम!' कहती हुई लंबा घूँघट काढ़ कर भाग गई।

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रचनाएँ
आँख की किरकिरी
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आँख की किरकिरी’ रवीन्द्रनाथ ठाकुर के बंगला उपन्यास ‘चोखेर बालि’ का हिन्दी अनुवाद है। कई कारणों से इस उपन्यास की गिनती गुरुदेव की सर्वोत्कृष्ट रचनाओं में होती है। इसका प्रथम प्रकाशन 1902 ई. में हुआ था। इस प्रकार यह उपन्यास सच्चे अर्थों में भारत का पहला आधुनिक उपन्यास है। यद्यपि रवीन्द्रनाथ ने ऐसे अनेक उपन्यास लिखें हैं जो ‘चोखेर बालि’ से अधिक विख्यात है, परन्तु कथाकार का जो रूप हमें इसमें मिलता है वह अन्यत्र नहीं। अन्य किसी उपन्यास में उन्होंने मानव-जीवन के चित्रण में ऐसे मृदुल और नीरव व्यंग्य का समावेश नहीं किया है। प्रणय और यौन-वासना का अविच्छिन्न सम्बन्ध को उन्होंने किसी उपन्यास में ऐसी प्रकट हानुभूति नहीं दी है। इस उपन्यास में ही उन्होंने वासना के पंक में प्रस्फुटित होने वाले प्रेम के निर्मल शतदल की झाँकी दिखाई है। गुरुदेव द्वारा निर्मित नारी चरित्रों में विनोदिनी सबसे अधिक यथार्थ, सबसे अधिक विश्वसनीय और सबसे अधिक जीवन्त है।
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आँख की किरकिरी 1

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1 विनोद की माँ हरिमती महेंद्र की माँ राजलक्ष्मी के पास जा कर धरना देने लगी। दोनों एक ही गाँव की थीं, छुटपन में साथ खेली थीं। राजलक्ष्मी महेंद्र के पीछे पड़ गईं - 'बेटा महेंद्र, इस गरीब की बिटिया का

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भाग 2

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कन्या देखने की बात महेंद्र ने की जरूर मगर वह भूल गया, फिर भी अन्नपूर्णा नहीं भूलीं। उन्होंने लड़की के अभिभावक, उसके बड़े चाचा को जल्दी में श्यामबाजार पत्र भेजा और एक दिन तय कर लिया। महेंद्र ने जब स

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भाग 3

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रात में महेंद्र ठीक से सो नहीं पाया। तड़के ही वह बिहारी के घर पहुँच गया। बोला - 'यार, मैंने बड़ी ध्यान से सोचा और देखा कि चाची यही चाहती है कि शादी मैं ही करूँ।' बिहारी बोला - 'इसके लिए सोचने क

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भाग 4

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आखिर राजलक्ष्मी असीम उत्साह से बहू को गृहस्थी के काम-काज सिखाने में जुट गई। भंडार, रसोई और पूजा-घर में आशा के दिन कटने लगे, रात को अपने साथ सुला कर वह उसके आत्मीय बिछोह की कमी को पूरा करने लगीं। काफी

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भाग 5

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कुछ दिन सूखा पड़ने से नाज के जो पौधे सूख कर पीले पड़ जाते हैं, बारिश आने पर वे तुरंत बढ़ जाते हैं। आशा के साथ भी ऐसा ही हुआ। जहाँ उसका रक्त संबंध था, वहाँ वह कभी भी आत्मीयता का दावा न कर सकी, आज पराए

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भाग 6

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एक दिन बारिश हो रही थी। बादल घिरे थे। ऐसे में बदन पर एक सुवासित महीन चादर और जुही की माला गले में डाले महेंद्र मगन-मन अपने सोने के कमरे में पहुँचा। अचानक आशा को चौंका देने के विचार से- जूतों की आवाज न

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भाग 7

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राजलक्ष्मी मैके पहुँचीं। तय था कि उन्हें छोड़ कर बिहारी आ जाएगा लेकिन वहाँ की हालत देख कर वह ठहर गया। राजलक्ष्मी के मैके में महज दो-एक बूढ़ी विधवाएँ थीं। चारों तरफ घना जंगल और बाँस की झाड़ियाँ; पोख

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भाग 8

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आशा को डर लगा। क्या हुआ यह? माँ चली गईं, मौसी चली गईं। उन दोनों का सुख मानो सबको खल रहा है, अब उसकी बारी है शायद। सूने घर में दांपत्य की नई प्रेम-लीला उसे न जाने कैसी लगने लगी। संसार के कठोर कर्तव्यो

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भाग 9

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इतने में दुतल्ले से महेंद्र भैया की पुकार सुनाई पड़ी। 'अरे रे, आओ... आओ...' महेंद्र ने जवाब दिया। बिहारी की आवाज से उसका हृदय खिल उठा। विवाह के बाद वह इन दोनों के सुख का बाधक बन कर कभी-कभी आता रहा है,

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भाग 10

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बिहारी ने खुद बैठ कर महेंद्र से चिट्ठी लिखवाई और उस पत्र के साथ दूसरे ही दिन राजलक्ष्मी को लेने गया। राजलक्ष्मी समझ गई, चिट्ठी बिहारी ने लिखवाई है- मगर फिर भी उससे रहा न गया। साथ-साथ विनोदिनी आई। लौट

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भाग 11

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आशा को एक साथी की बड़ी जरूरत थी। प्यार का त्योहार भी महज दो आदमियों से नहीं मनता - मीठी बातों की मिठाई बाँटने के लिए गैरों की भी जरूरत पड़ती है। भूखी-प्यासी विनोदिनी भी नई बहू से प्रेम के इतिहास को श

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भाग 12

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एक दिन आखिर आजिज आ कर महेंद्र ने माँ से कहा - 'यह अच्छी बात है, माँ? दूसरे के घर की एक जवान विधवा को घर रख कर एक भारी जिम्मेदारी कंधे पर लाद लेने की क्या पड़ी है? जाने कब क्या मुसीबत हो?' राजलक्ष्मी

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भाग 13

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विनोदिनी जब बिलकुल ही पकड़ में न आई, तो आशा को एक तरकीब सूझी। बोली, 'भई आँख की किरकिरी, तुम मेरे पति के सामने क्यों नहीं आती, भागती क्यों फिरती हो?' विनोदिनी ने बड़े संक्षेप में लेकिन तेज स्वर में कह

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भाग 14

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आशा ने पूछा, 'अब सच-सच बताना, मेरी आँख की किरकिरी कैसी लगी तुम्हें?' महेंद्र ने कहा - 'बुरी नहीं।' आशा बहुत ही क्षुब्ध हो कर बोली, 'तुम्हें तो कोई अच्छी ही नहीं लगती।' महेंद्र - 'सिर्फ एक को

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भाग 15

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बाहर से हिला-डुला दो तो दबी राख में आग फिर से लहक उठती है। आशा और महेंद्र की मुहब्बत का उछाह मंद पड़ता जा रहा था, वह तीसरी तरफ की ठोकर से फिर जाग पड़ा। आशा में हँसी-दिल्लगी की ताकत न थी, पर आशा उससे

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भाग 16

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बिहारी ने सोचा - 'ऊँहूँ! दूर-दूर रहने से अब काम नहीं चलने का। चाहे जैसे हो, इसके बीच अपने लिए भी जगह बनानी पड़ेगी। इनमें से किसी को यह पसंद तो न होगा, लेकिन फिर भी मुझे रहना पड़ेगा।' बुलावे या स्वा

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भाग 17

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बीच में यह जो झमेला खड़ा हुआ, उसे एकबारगी चुका देने की नीयत से महेंद्र ने प्रस्ताव रखा कि अगले इतवार को दमदम के बगीचे में पिकनिक कर आएँ। आशा बहुत खुश हो गई। लेकिन विनोदिनी राजी न हुई। उसके तैयार न

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भाग 18

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पिकनिक के दिन जो वाकया गुजरा उसके बाद फिर महेंद्र में विनोदिनी को अपनाने की चाहत बढ़ने लगी। लेकिन दूसरे ही दिन राजलक्ष्मी को फ्लू हो गया। बीमारी कुछ खास न थी, फिर भी उन्हें तकलीफ और कमजोरी काफी थी।

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भाग 19

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विनोदिनी ने सोचा, 'आखिर माजरा क्या है? मान या गुस्सा या डर, पता नहीं क्या? मुझे यह दिखाना चाहते हैं कि वह मेरी परवाह नहीं करते? बाहर जा कर रहेंगे? अच्छा, यही देखना है, कितने दिन?' लेकिन खुद उसके मन म

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भाग 20

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जल्दी ही महेंद्र को एक चिट्ठी मिली। उस पर पहचाने अक्षर देख कर वह चौंक गया। दिन में झमेलों के कारण उसने उसे खोला नहीं - कलेजे के पास जेब में डाल दिया। कॉलेज के लेक्चर सुनते हुए, अस्पताल का चक्कर काटते

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भाग 21

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इस बीच और एक चिट्ठी आ पहुँची - 'तुमने मेरे पत्र का जवाब नहीं दिया? अच्छा ही किया, सही बात लिखी तो नहीं जाती; तुम्हारा जो जवाब है, उसे मैंने मन में समझ लिया। भक्त जब अपने देवता को पुकारता है तो देवता

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महेंद्र घर पहुँचा। उसका चेहरा देखते ही आशा के मन का सारा संदेह कुहरे के समान एक ही क्षण में फट गया। अपनी चिट्ठियों की बात सोच कर महेंद्र के सामने मारे शर्म के वह सिर न उठा सकी। इस पर महेंद्र ने शिकवा

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बहुत दिनों के बाद अचानक महेंद्र को आते देख कर एक ओर तो अन्नपूर्णा गदगद हो गईं और दूसरी ओर उन्हें यह शंका हुई कि शायद आशा की माँ से फिर कुछ चख-चख हो गई है - महेंद्र उसी की शिकायत पर दिलासा देने आया है।

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महेंद्र ने सोचा, गलत, मैं विनोदिनी को प्यार नहीं करता। शायद प्यार न भी करता हूँ, मगर कहना कि नहीं करता हूँ यह तो और भी कठिन है। इससे चोट न पहुँचे, ऐसी स्त्री कौन है? इसके प्रतिवाद की गुंजाइश कैसे हो?

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भाग 25

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उस दिन फागुन की पहली बसंती बयार बह आई। बड़े दिनों के बाद आशा शाम को छत पर चटाई बिछा कर बैठी। मद्धिम रोशनी में एक मासिक पत्रिका में छपी हुई एक धारावाहिक कहानी पढ़ने लगी। एक जगह जब कहानी का नायक काफी दि

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भाग 26

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एक ओर चाँद डूबता है, दूसरी और सूरज उगता है। आशा चली गई लेकिन महेंद्र के नसीब में अभी तक विनोदिनी के दर्शन नहीं। महेंद्र डोलता-फिरता, जब-तब किसी बहाने माँ के कमरे में पहुँच जाता - लेकिन विनोदिनी उसे पा

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महेंद्र वापस आ गया और कुछ ही दिनों में आशा काशी पहुँच गई, इससे अन्नपूर्णा को बड़ी आशंका हुई। आशा से वह तरह-तरह के सवाल पूछने लगी - 'क्यों री चुन्नी, और तेरी वह आँख की किरकिरी! तेरी राय में जिसके मुका

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भाग 28

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उस दिन रात तक जागते रहने और भारी आवेग के कारण सुबह महेंद्र में एक अवसाद-सा था। फागुन के अधबीच गर्मी पड़नी शुरू हो गई थी। और सवेरे महेंद्र अपने सोने के कमरे के एक ओर बैठ कर पढ़ता था। आज वह तकिए के सहार

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दूसरे दिन सो कर उठते ही एक मीठे आवेग से महेंद्र का हृदय परिपूर्ण हो गया। प्रभात की सुनहली किरणों ने मानो उसकी सभी चिंता-वासना पर सोना फेर दिया। कितनी प्यारी है पृथ्वी, कितना अच्छा आकाश! फूल के पराग जै

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आशा ने एक दिन अन्नपूर्णा से पूछा - 'अच्छा मौसी, मौसा जी तुम्हें याद आते हैं?' अन्नपूर्णा बोलीं - 'महज ग्यारह साल की उम्र में मैं विधवा हुई, पति की सूरत मुझे छाया-सी धुँधली याद है।' आशा ने पूछा - 'फि

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आशा लौट आई। रूठ कर विनोदिनी ने कहा - 'भई किरकिरी, इतने दिन पीहर रही, खत लिखना भी पाप था क्या?' आशा बोली - 'और तुमने तो लिख दिया जैसे!' विनोदिनी - 'मैं पहले क्यों लिखती, पहले तुम्हें लिखना था।' विनो

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आशा सोचने लगी - 'लेकिन ऐसा क्यों हुआ है?' मैंने क्या किया? लेकिन असली आफत जहाँ थी, वहाँ उसकी नजर न पड़ी। महेंद्र विनोदिनी को प्यार कर सकता है, इसकी संभावना तक उसके मन में न आ सकी थी। दुनिया के अनुभव उ

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दूसरे दिन सुबह से ही घटा घुमड़ी रही। कुछ देर बेहद गर्मी थी, फिर काले-काजल से मेघों में से झुलसा आकाश जुड़ गया। आज महेंद्र समय से पहले ही कॉलेज चला गया। बदले हुए कपड़े फर्श पर पड़े थे। आशा गिन-गिन कर क

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राजलक्ष्मी ने आज सुबह से विनोदिनी को बुलाया नहीं। रोज की तरह विनोदिनी भंडार में गई। राजलक्ष्मी ने सिर उठा कर उसकी ओर नहीं देखा। यह देख कर भी उसने कहा - 'बुआ, तबीयत ठीक नहीं है, क्यों? हो भी कैसे? क

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बिहारी अब मेडिकल कॉलेज में पढ़ रहा था। ऐन इम्तहान के वक्त छोड़ दिया। कोई अचरज से पूछ बैठता, तो कहता- 'पराई सेहत की बात फिर देखी जाएगी, पहले तंदुरुस्ती का खयाल जरूरी है।' असल में बिहारी के अध्यवसाय

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असंभव भी संभव हो जाता है, असह्य भी सह्य हो जाता है। ऐसा न होता तो उस दिन की रात महेंद्र के घर में कटती नहीं। विनोदिनी को तैयार रहने का कह कर महेंद्र ने रात ही एक पत्र लिखा था। वह पत्र डाक से सवेरे महे

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भाग 37

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रात के अँधेरे में बिहारी कभी अकेले ध्यान नहीं लगाता। अपने लिए अपने को उसने कभी भी आलोच्य नहीं बनाया। वह पढ़ाई-लिखाई, काम-काज, हित-मित्रों में ही मशगूल रहता। अपने बजाय अपने चारों तरफ की दुनिया को प्रमु

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भाग 38

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रेल के औरतों वाले सूने डिब्बे में बैठी विनोदिनी ने खिड़की में से जब जुते हुए खेत और बीच-बीच में छाया से घिरे गाँव देखे, तो मन में सूने शीतल गाँव की जिंदगी ताजा हो आई। उसे लगने लगा, पेड़ों की छाया के ब

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टोले में एक हलचल-सी मच गई। देवी थान में इकट्ठे हो कर बड़े-बूढ़ों ने कहा - 'अब तो बर्दाशत के बाहर है। कलकत्ता के कारनामों को अनसुना भी किया जा सकता था - मगर इसकी यह हिम्मत! लगातार महेंद्र को चिट्ठी लिख

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भाग 40

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महेंद्र कहाँ चला गया, इस आशंका से राजलक्ष्मी ने खाना-सोना छोड़ दिया। संभव-असंभव सभी जगहों में साधुचरण उसे ढूँढ़ता फिरने लगा - ऐसे में विनोदिनी को ले कर महेंद्र कलकत्ता आया। पटलडाँगा के मकान में उसे रख

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भाग 41

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रात को जब उसे पटलडाँगा के डेरे पर छोड़ कर महेंद्र अपने कपड़े और किताबें लाने घर चला गया, तो कलकत्ता के अविश्राम जन-स्रोत की हलचल में अकेली बैठी विनोदिनी अपनी बात सोचने लगी। दुनिया में पनाह की जगह काफी

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'महेंद्र रात में ही उठ कर चला गया,' यह सुन कर राजलक्ष्मी बहू पर बहुत नाराज हुईं। उन्होंने समझा बहू की लानत-मलामत से ही वह चला गया। उन्होंने आशा से पूछा - 'महेंद्र रात चला क्यों गया?' आशा ने सिर झुक

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अगले दिन महेंद्र ने माँ से कहा - 'माँ, पढ़ने-लिखने के लिए मुझे कोई एकांत कमरा चाहिए। मैं चाची वाले कमरे में रहूँगा।' माँ खुश हो गई, 'तब तो महेंद्र अब घर में ही रहा करेगा। लगता है, बहू से सुलह हो गई।

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भाग 44

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राजलक्ष्मी ने जब साफ समझ लिया कि आशा महेंद्र के मन को बाँध नहीं पा रही है, तो उनके जी में आया, कम-से-कम मेरी बीमारी के नाते ही महेंद्र को यहाँ रहना पड़े, तो भी अच्छा है। उन्हें डर लगा, कहीं वे सचमुच ठ

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दूसरे दिन तड़के ही महेंद्र बिहारी के यहाँ पहुँच गया। देखा, दरवाजे पर कई बैलगाड़ियों पर नौकर-चाकर सामान लाद रहे हैं। महेंद्र ने भज्जो से पूछा - 'माजरा क्या है?' भज्जो ने कहा - 'बाबू ने बाली में गंगा के

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भाग 47

2 अगस्त 2022
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बिहारी की खोज-खबर ले कर महेंद्र लौटेगा, इस आशा से घर में उसकी रसोई बनी थी। काफी देर हो गई तो दुखी राजलक्ष्मी बेचैन हो उठीं। रात-भर नींद न आई थी, इससे वह काफी थकी थीं, फिर महेंद्र के लिए यह बेताबी उन्ह

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भाग 47

2 अगस्त 2022
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अन्नपूर्णा काशी से आईं। धीरे-धीरे राजलक्ष्मी के कमरे में जा कर उन्हें प्रणाम करके उनके चरणों की धूल माथे ली। बीच में इस बिलगाव के बावजूद अन्नपूर्णा को देख कर राजलक्ष्मी ने मानो कोई खोई निधि पाई। उन्हे

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भाग 48

2 अगस्त 2022
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जिन दिनों बिहारी पश्चिम में भटकता फिर रहा था, उसके मन में आया, 'जब तक कोई काम ले कर न बैठूँ चैन न मिलेगा।' यही सोच कर उसने कलकत्ता के गरीब किरानियों के मुफ्त इलाज और सेवा-जतन का भार उठाया। गर्मी के दि

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भाग 49

2 अगस्त 2022
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बिहारी सोच रहा था, दुखिया आशा की ओर वह देखेगा कैसे! डयोढ़ी के अंदर कदम रखते ही स्वामीहीन घर की घनीभूत पीड़ा उसे दबोच बैठी। घर के नौकर-दरबानों की ओर ताकते हुए बौराए हुए महेंद्र के भाग जाने की शर्म ने उ

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भाग 50

2 अगस्त 2022
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स्टेशन जा कर विनोदिनी औरतों वाले ड्योढ़े दर्जे के डिब्बे में जा बैठी। महेंद्र ने कहा, 'अरे, कर क्या रही हो, मैं तुम्हारा दूसरे दर्जे का टिकट ले रहा हूँ।' वह बोली, 'बेजा क्या है, यहाँ आराम से ही रहूँगी

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भाग 51

2 अगस्त 2022
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हिमालय की चोटी यमुना को जो बर्फगली अक्षय जल-धारा देती है, उस यमुना में युगों-युगों से कवियों ने जो कवित्‍व का स्रोत ढाला है, वह भी अक्षय है। उसकी कल-कल में कितने ही अनोखे छन्‍द गूँजते हैं और उसकी लहरो

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भाग 52

2 अगस्त 2022
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रात में महेंद्र सोया नहीं - थकावट के मारे सुबह-सुबह उसे नींद आई। सुबह आठ-नौ बजे के करीब जग कर वह झट उठ बैठा। पिछली रात की कोई अधूरी पीड़ा नींद के भीतर-ही-भीतर घूमती रही थी। सचेतन होते ही महेंद्र उसकी

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भाग 53

2 अगस्त 2022
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महेंद्र माँ के कमरे में जा रहा था कि आशा दौड़ी-दौड़ी आई। कहा - 'अभी वहाँ मत जाओ!' महेंद्र ने पूछा - 'क्यों?' आशा बोली - 'डॉक्टर ने बताया है, माँ, चाहे दु:ख का हो चाहे सुख का - अचानक कोई धक्का लग

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भाग 54

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भले-बुरे राजलक्ष्मी के दो दिन निकल गए। एक दिन सुबह उनका चेहरा खिला-खिला दिख रहा था। पीड़ा का नामोनिशान नहीं था। उसी दिन उन्होंने महेंद्र को बुला कर कहा - 'मैं अब ज्यादा देर की मेहमान नहीं, बेटे, मगर म

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भाग 55

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राजलक्ष्मी की मृत्यु के बाद श्राद्धादि खत्म करके महेंद्र ने कहा - 'भई बिहारी, मैं डॉक्टरी जानता हूँ। तुमने जो काम शुरू किया है, मुझे भी उसमें शामिल कर लो! चुन्नी अब ऐसी गृहिणी बन गई है कि वह भी तुम्हा

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