बिहारी सोच रहा था, दुखिया आशा की ओर वह देखेगा कैसे! डयोढ़ी के अंदर कदम रखते ही स्वामीहीन घर की घनीभूत पीड़ा उसे दबोच बैठी। घर के नौकर-दरबानों की ओर ताकते हुए बौराए हुए महेंद्र के भाग जाने की शर्म ने उसके सिर को गाड़ दिया। पुराने और जाने-पहचाने नौकरों से उसने पहले की तरह मुलायमियत से कुशल-क्षेम न पूछी। हवेली में जाने को मानो उसके कदम नहीं उठ रहे थे। दुनिया के सामने खुले-आम महेंद्र बेबस आशा को जिस गहरे अपमान में छोड़ गया है, जो अपमान औरत के सबसे बड़े परदे को उघाड़ कर उसे सारी दुनिया की कौतूहल-भरी कृपा-दृष्टि के बीच खड़ा कर देता है, उसी अपमान के आवरणहीन स्वरूप में बिहारी सकुचाई और दुखित आशा को कौन-से प्राण ले कर देखेगा!
लेकिन इन चिंताओं और संकोच का मौका ही न रहा। हवेली में पहुँचते ही आशा दौड़ी-दौड़ी आई और बिहारी से बोली - 'भाई साहब, जरा जल्दी आओ, माँ को देखो जल्दी!'
बिहारी से आशा की खुल कर बातचीत ही पहली थी। दुर्दिन का मामूली झटका सारी रुकावटों को उड़ा ले जाता है - जो दूर-दूर रहते हैं, बाढ़ उन सबको अचानक एक सँकरी जगह में इकट्ठा कर देती है।
आशा की इस संकोचहीन अकुलाहट से बिहारी को चोट लगी। इस छोटे-से वाकए से ही वह समझ सका कि महेंद्र अपनी गिरस्ती की कैसी मिट्टी पलीद कर गया है।
बिहारी राजलक्ष्मी के कमरे में गया। अचानक साँस की तकलीफ हो जाने से राजलक्ष्मी फीकी पड़ गई थीं - लेकिन वह तकलीफ ज्यादा देर नहीं रही, इसलिए सँभल गईं।
बिहारी ने राजलक्ष्मी को प्रणाम किया। चरणों की धूल ली। राजलक्ष्मी ने उसे पास बैठने का इशारा किया और धीरे-धीरे कहा - 'कैसा है बिहारी? जाने कितने दिनों से तुझे नहीं देखा!'
बिहारी ने कहा - 'तुमने अपनी बीमारी की खबर क्यों नहीं भिजवाई? फिर क्या मैं जरा भी देर कर पाता।'
राजलक्ष्मी ने धीमे से कहा - 'यह क्या मुझे मालूम नहीं, बेटे! तुझे कोख में नहीं रखा मैंने, लेकिन तुझसे बढ़ कर मेरा अपना क्या दुनिया में है कोई?'
कहते-कहते राजलक्ष्मी की आँखों से आँसू बहने लगे। बिहारी झट-पट उठा। ताखों पर दवा-दारू की शीशियों को देखने के बहाने उसने अपने-आपको जब्त किया। उसके बाद आ कर उसने राजलक्ष्मी की नब्ज देखनी चाही। राजलक्ष्मी बोलीं- 'मेरी नब्ज को छोड़ - मैं पूछती हूँ, तू इतना दुबला क्यों हो गया है?'
अपने दुबले हाथों से राजलक्ष्मी ने बिहारी की गर्दन की हड्डी छू कर देखी।
बिहारी ने कहा - 'जब तक तुम्हारे हाथ की रसोई नसीब नहीं होती, यह हड्डी ढँकने की नहीं। तुम जल्दी ठीक हो जाओ माँ, मैं इतने में रसोई का इंतजाम कर रखता हूँ।'
राजलक्ष्मी फीकी हँसी हँस कर बोलीं - 'हाँ, जल्दी-जल्दी इंतजाम कर, बेटे। तेरी देख-रेख के लिए कोई भी नहीं है। अरी ओ मँझली, तुम लोग अब बिहारी की शादी करा दो, देखो न, इसकी शक्ल कैसी हो गई है।'
अन्नपूर्णा ने कहा - 'तुम चंगी हो लो, दीदी - यह तो तुम्हारी ही जिम्मेदारी है।'
राजलक्ष्मी बोलीं - 'मुझे अब यह मौका न मिलेगा। बहन, बिहारी का भार तुम्हीं लोगों पर रहा, इसे तुम लोग सुखी रखना। मैं इसका ऋण नहीं चुका सकी, लेकिन भगवान भला करे इसका।' यह कह कर उन्होंने बिहारी के माथे पर अपना दायाँ हाथ फेर दिया।
आशा से कमरे में न रहा गया। वह रोने के लिए बाहर चली गई। अन्नपूर्णा ने भरी हुई आँखों से बिहारी को स्नेह-भरी दृष्टि से देखा।
राजलक्ष्मी को अचानक न जाने क्या याद आ गया। बोलीं - 'बहू, अरी ओ बहू!' आशा के अंदर आते ही बोलीं - 'बिहारी के खाने का इंतजाम किया या नहीं?'
बिहारी बोला - 'तुम्हारे इस पेटू को सबने पहचान लिया है, माँ। ड्योढ़ी पर आते ही नजर पड़ी, अंडे वाली मछलियाँ लिए वैष्णवी जल्दी-जल्दी अंदर जा रही है, मैं समझ गया, अभी इस घर से मेरी ख्याति मिटी नहीं है।'
और बिहारी ने हँस कर आशा की ओर देखा।
आशा आज शर्माई नहीं। स्नेह से हँसते हुए उसने यह दिल्लगी कबूल की। इस घर के लिए बिहारी क्या है, पहले आशा यह पूरी तरह न जानती थी - बहुत बार एक बे-मतलब का मेहमान समझ कर उसने उसकी उपेक्षा की है, बहुत बार उसकी यह बेरुखी उसके व्यवहार में साफ झलक पड़ी है। उसी अफसोस से धिक्कार से उसकी श्रद्धा और करुणा की तरफ तेजी से उमड़ पड़ी है।
राजलक्ष्मी ने कहा - 'मँझली बहू, यह महाराज के बस की बात नहीं, रसोई की निगरानी तुम्हें करनी पड़ेगी। काफी कड़वा न हो तो अपने इस 'बाँगाल' लड़के को खाना नहीं रुचता।'
बिहारी बोला - 'माँ, तुम्हारी माँ विक्रमपुर की लड़की थीं और तुम नदिया जिले के एक भले घर के लड़के को बांगाल 1 कहती हो! मुझे यह बर्दाश्त नहीं।'
इस पर काफी दिल्लगी रही। बहुत दिनों के बाद महेंद्र के घर की मायूसी का भार मानो हल्का हो गया।
इतनी बातें होती रहीं, मगर किसी भी तरफ से किसी ने भी महेंद्र का नाम न लिया। पहले बिहारी से महेंद्र की चर्चा ही राजलक्ष्मी की एकमात्र बात हुआ करती थी। महेंद्र ने अपनी माँ का इसके लिए बहुत बार मजाक भी उड़ाया है। आज उसी राजलक्ष्मी की जबान पर भूल कर भी महेंद्र का नाम न आते देख कर बिहारी दंग रह गया।
राजलक्ष्मी को झपकी लग गई। बाहर जा कर बिहारी ने अन्नपूर्णा से कहा - 'माँ की बीमारी तो सहज नहीं लगती।'
अन्नपूर्णा बोलीं - 'यह तो साफ ही देख रही हूँ।' कह कर अन्नपूर्णा खिड़की के पास बैठ गईं।
बड़ी देर चुप रह कर बोलीं- 'महेंद्र को तू खोज नहीं लाएगा, बेटे! अब तो देर करना वाजिब नहीं जँचता।'
बिहारी कुछ देर चुप रहा, फिर बोला - 'जो हुक्म करोगी, वह करूँगा। उसका पता मालूम है किसी को?'
अन्नपूर्णा - 'पता ठीक-ठीक किसी को मालूम नहीं, ढूँढ़ना पड़ेगा। और एक बात तुमसे कहूँ - आशा का खयाल करो। अगर विनोदिनी के चंगुल से महेंद्र को तू न निकाल सका, तो वह जिंदा न रहेगी।'
मन-ही-मन तीखी हँसी हँस कर बिहारी ने सोचा, 'मैं दूसरे का उद्धार करूँ - भगवान, मेरा उद्धार कौन करे!' बोला - 'विनोदिनी के जादू से महेंद्र को सदा के लिए बचा सकूँ, मैं ऐसा कौन-सा मंतर जानता हूँ, चाची!'
1.पूर्वी बंगाल के लोगों को बंगाल में मजाक में 'बांगाल' कहते हैं।
इतने में मैली-सी धोती पहने आधा घूँघट निकाले आशा अपनी मौसी के पाँवों के पास आ बैठी। उसने समझा था, दोनों में राजलक्ष्मी की बीमारी के बारे में बातें हो रही हैं इसीलिए चली आई। पतिव्रता आशा के चेहरे पर गुम-सुम दु:ख की मौन महिमा देख कर बिहारी के मन में एक अपूर्व भक्ति का संचार हुआ। शोक में गर्म आँसू से सिंच कर इस तरुणा ने पिछले युग की देवियों-जैसी एक अटूट मर्यादा पाई है - अब वह मामूली नारी नहीं, दारुण दु:ख से वह मानो पुराणों की साध्वी स्त्रियों की उम्र पा गई है।
राजलक्ष्मी की दवा और पथ्य के बारे में आशा से बातें करके बिहारी ने उसे वहाँ से जब विदा किया, तो एक उसाँस भर कर उसने अन्नपूर्णा से कहा - 'महेंद्र को मैं उस चंगुल से निकलूँगा।'
बिहारी महेंद्र के बैंक में गया। वहाँ उसे पता चला महेंद्र इन दिनों उनकी इलाहाबाद शाखा से लेन-देन करता है।