पंचतत्वों में से भोजन,वायु,जल एवं परिवेश का मनुष्य जीवन जितना प्रभाव पड़ता है उससे कहीं अधिक प्रभाव साहित्य का पड़ता है। पहली नजर में साहित्य को मनोरंजन या फिर कुछ सीमित वर्ग के लोगों के जीवन मे समय बिताने का एक साधन मात्र माना जा सकता है पर,यदि विषद रूप से इसके बारे में चिंतन-मनन करें तो पता लगता है कि जीवन का हर पहलू,हर रंग ही साहित्य है।या यूँ कहें कि साहित्य और जीवन दोनों एक दूसरे के पर्याय हैं,प्रतिरूप है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
मनुष्य की हर अभिव्यक्ति और भाव भंगिमा में से साहित्य फूट-फूट कर बहता है। यदि कोई आपकी प्रशंसा करे तो आप हर्षित हो उठते हैं पर यदि अपशब्द कहे तो क्रोध का भाव उमड़ पड़ता है।ऐसे ही घृणा,संताप आदि का भाव भी प्रकट हो जाता है। इन समस्त भावों को रस का नाम दिया गया है।अब इसे रस मानें या फिर व्याकरण या फिर आम अभिव्यक्ति पर हैं तो साहित्य ही। इसी साहित्य की एक विधा या व्याकरण का अध्याय है 'वीर रस'। अर्थात ऐसी विधा जिसकी रचनाएं मन को ऐसा उद्वेलित कर दे कि व्यक्ति कुछ भी कर गुजरे। अब आज वर्तमान युग की ही देख लीजिये, युवाओं को किस प्रकार से मतिभ्रमित कर विध्वंशक कार्यों के लिये प्रेरित कर दिया जाता है कि वे अपने जीवन की आहुति तक दे डालते हैं,आत्मघाती बन जाते हैं।
इस बात को हम भारत की आजादी के परवाने 'राम प्रसाद बिस्मिल जी' की रचना के अंश,
'सरफरोशी की तमन्ना आज हमारे दिल मे है।
देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है।' से समझ सकते हैं जिसका प्रभाव भारत के हर नागरिक के मन पर आज भी अंकित है।इन पंक्तियों को लेकर न जाने कितनी कविताओं-गीतों का सृजन हो चुका है। जब भी सुने शरीर की सुप्त नसों में जोश भर उठता है।
यह केवल उनकी ही बात नहीं है। बंगाल के बाँकुरे खुदीराम बोस के मुख से निकली पंक्तियाँ, 'एकबार बिदाई दे माँ घुरे आसी....देखबे सुनबे सारा भारतवासी' उनके त्याग पर आंखों से आँसू निकलने के लिये बाध्य कर देती है।
रामधारी सिंह दिनकर जी की कुछ रचनाएँ देखें जो पाठक वर्ग में एक नया जोश भर देता है:-
रोक युधिष्ठर को न यहाँ,
जाने दे उनको स्वर्ग धीर
पर फिरा हमें गांडीव गदा,
लौटा दे अर्जुन भीम वीर --(हिमालय से)
क्षमा शोभती उस भुजंग को,
जिसके पास गरल हो;
उसको क्या जो दन्तहीन,
विषहीन, विनीत, सरल हो -(कुरुक्षेत्र से)
"दो न्याय अगर तो आधा दो,
पर इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
रक्खो अपनी धरती तमाम।-- (रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 3)
जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है। -- (रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 3)।।
अब यदि इन पंक्तियों के वाचन किया जाए तो क्या जनमानस अभिप्रेरित नहीं हो जाएगा।
भारत वर्षों तक अततताइयों से आक्रांत रहा है,पीड़ित रहा है।समय-समय पर इन उत्पीड़नों से मुक्ति दिलाने के उद्देश्य से युवा वर्ग को जागृत कर स्वतंत्रता के लिये प्रयास करने के लिये साहित्य का बहुत बड़ा योगदान है।
इतिहास पर यदि नजर डालें तो हम पाते हैं कि राजे-रजवाड़ों में दरबारी कवि रखने की चलन रही है। राजाओं को किसी स्त्री के प्रति आकर्षित करने के उद्देश्य से या फिर युद्धभूमि में शत्रु संहार के लिये प्रेरित करने के लिये ये कवि काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे हैं।
कालांतर में अंग्रेजो की गुलामी से मुक्ति पाने के लिये जनमानस में देशप्रेम की भावना प्रस्फुटित करने के लिये साहित्यकारों ने विशेष भूमिका निभाई है। इस आहुति में अवधी के साहित्यकारों और अवधी साहित्य का विशेष योगदान रहा है।भाषा शास्त्री डॉ॰ सर "जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन" के भाषा सर्वेक्षण के अनुसार अवधी बोलने वालों की कुल आबादी 1615458 थी । मौजूदा समय में शोधकर्ताओं का अनुमान है कि 6 करोड़ से ज्यादा लोग अवधी बोलते हैं। भारत के उत्तर प्रदेश प्रान्त के 19 जिलों- सुल्तानपुर, अमेठी, बाराबंकी, प्रतापगढ़, प्रयागराज, कौशांबी, फतेहपुर, रायबरेली, उन्नाव, लखनऊ, हरदोई, सीतापुर, लखीमपुर खीरी, बहराइच, श्रावस्ती, बलरामपुर, गोंडा, अयोध्या व अंबेडकर नगर में पूरी तरह से यह बोली जाती है। जबकि 7 जिलों- जौनपुर, मिर्जापुर, कानपुर, शाहजहांपुर, आजमगढ़,सिद्धार्थनगर, बस्ती और बांदा के कुछ क्षेत्रों में इसका प्रयोग होता है। बिहार प्रांत के 2 जिलों के साथ पड़ोसी देश नेपाल के कई जिलों - बांके जिला, बर्दिया जिला, दांग जिला, कपिलवस्तु जिला, पश्चिमी नवलपरासी जिला, रुपन्देही जिला, कंचनपुर जिला आदि में यह काफी प्रचलित है। इसी प्रकार दुनिया के अन्य देशों- मॉरिशस, त्रिनिदाद एवं टुबैगो, फिजी, गयाना, सूरीनाम सहित आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड व हॉलैंड (नीदरलैंड) में भी लाखों की संख्या में अवधी बोलने वाले लोग हैं। प्राचीन अवधी साहित्य में अधिकतर रचनाएँ देशप्रेम, समाजसुधार आदि विषयों पर और मुख्य रूप से व्यंग्यात्मक हैं। कवियों में प्रतापनारायण मिश्र, बलभद्र दीक्षित "पढ़ीस", वंशीधर शुक्ल, चंद्रभूषण द्विवेदी "रमई काका", गुरु प्रसाद सिंह "मृगेश" और शारदाप्रसाद "भुशुंडि" विशेष उल्लेखनीय हैं।
इतने बड़े अवधी पट्टी जिसका बिस्तार बिदेशों तक है वह भला आजादी की लड़ाई में अपने साहित्य से योगदान देने के कैसे दूर रह सकता है।
अवधी को हिंदी की एक उपभाषा माना जाता है पर मेरी नजर में हिंदी अवधी से ही उत्पन्न भाषा की एक अलग विधा है। मुगल काल में एक तरफ जहाँ श्रृंगार रस की रचनाओं की अधिकता रही है वहीं गोस्वामी तुलसीदास कृत "रामचरितमानस" ने हिन्दू जनमानस में अटूट भक्ति की सरिता का सृजन करने का काम किया है। रामचरितमानस में विष्णु के रूप भगवान श्री राम के मुखारबिंद से
"शिव द्रोही मम दास कहावा, सो नर मोंहि सपनेहुँ नहीं भावा"
पंक्तियाँ उच्चारित कर
वैष्णव-शैव में चल रहे विरोध के कारण आपस में बँटे हिन्दू समाज को जोड़ने का गोस्वामी तुलसीदास ने इतना सुंदर और अद्भुत प्रयास किया है जो अतुलनीय है। साहित्य का यह प्रभाव ही है कि आज इन दो मतों में बँटे हिन्दू समाज एक हो चुके हैं।
किस भी परतंत्र देश के नागरिकों की सांस बड़ी मजबूरी होती है उनकी अभिव्यक्ति की भी परतंत्रता। पर रचनाकार का मन आखिर माने तो कैसे! इसी मन को मनाने के लिये रचनाकारों ने प्रतीकात्मक रचनाओं का सहारा लिया और समय-समय पर अपनी ओजस रचनाओं के माध्यम से जान जागरण का प्रयास करते रहे।
अवधी साहित्य की ही अन्य विधा भोजपुरी हो या फिर इस भाषापरिवार की अन्य बहनें या फिर हिंदी। अधिकांश भाषाओं और अवधी साहित्य का प्रभाव रहा है। पंडित राधेश्याम ऐसे ही एक रचनाकार हैं जिन्होंने गोस्वामी तुलसीदास की द्वारा रचित रामचरित मानस को हिंदी भाषा में प्रस्तुत कर राम भक्ति को एक नया आयाम तो दिया ही। उन दिनों के फ़ारसी और अंग्रेजी रंगमंच के नाटक कंपनियों के सस्ते-अश्लिल-अशिष्ट हास्य सामग्री,प्रेम के वासना जनित बाजारू रूप चित्रण से ओतप्रोत नाटकों के वर्चस्व को भी तोड़कर रंगमंच को एक नई दिशा दी। प्रारम्भ में तो नाटक कंपनी यह मानने के लिये तैयार ही नहीं थे कि इन विषय वासना से इतर किसी विषय पर नाटक का मंचन दर्शकों को पसंद आएगा पर उनकी कालजयी रचना 'वीर अभिमन्यु' ने दर्शकों का भरपूर प्रेम और सराहना पाकर इस मिथक को तोड़ दिया। यह वही नाटक है जिसका मंचन देखने कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद से लेकर पं. मोतीलाल नेहरू और सरोजनी नायडू तक बरेली आए। राष्ट्रप्रेम से ओतप्रोत इस नाटक का मंचन जब उस वक्त की मशहूर न्यू अल्फ्रेंड और सूर विजय नाटक कंपनी ने देशभर में किया तो अंग्रेजी हुकूमत ने इसे बगावत मानकर पं.राधेश्याम कथावाचक के खिलाफ राष्ट्रद्रोह का मामला शुरू करा दिया। हालांकि ये नाटक इस करीने से लिखा गया था कि कोई स्पष्ट सबूत न मिलने पर अंग्रेजों ने हथियार डाल दिए।
पंडित राधेश्याम कथावाचक ने अपने जीवनकाल में 57 पुस्तकें लिखीं एवं 150 से अधिक का संपादन किया। 'राधेश्याम रामायण' के बाद सबसे अधिक ख्याति उनके वीर अभिमन्यु नाटक को मिली। पंजाब शिक्षा बोर्ड ने इसे अपने पाठ्यक्रम में भी शामिल किया। भक्त प्रहलाद नाटक में पिता के आदेश का उल्लंघन करने के बहाने उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध सविनय अवज्ञा आंदोलन का सफल संदेश दिया।
उनकी रचनाओं में अद्भुत आकर्षण है जो श्रोता या पाठक को बरबस अपनी ओर खींच लेता है। उसका एक ज्वलंत उदाहरण निम्नलिखित पंक्तियाँ है जो इतनी जोशपूर्ण हैं कि इसके पप्रभाव का अनुमान लगा-पाना असंभव सा प्रतीत होता है।
हनुमान जी की भगवान सूर्य से प्रार्थना का अंश(राधेश्याम रामायण का अंश):-
हे सूरज इतना याद रहे,
संकट एक सूरज वंश पे है,
लंका के नीच राहु द्वारा
आघात दिनेश अंश पर है।
इसीलिए छिपे रहना भगवन
जब तक न जड़ी पंहुचा दूँ मैं,
बस तभी प्रकट होना दिनकर
जब संकट निशा मिटा दूं मैं।
मेरे आने से पहले यदि
किरणों का चमत्कार होगा,
तो सूर्य वंश में सूर्यदेव
निश्चित ही अंधकार होगा।
आशा है स्वल्प प्रार्थना ये
सच्चे जी से स्वीकरोगे,
आतुर की आर्थ अवस्था को
होकर करुणार्ध निहारोगे।
अन्यथा छमा करना दिनकर,
अंजनी तनै से पाला है,
बचपन से जान रहे हो तुम
हनुमत कितना मतवाला है।
मुख में तुमको धर रखने का
फिर वही क्रूर साधन होगा,
बंदी मोचन तब होगा
जब लक्ष्मण का दुःख मोचन होगा।
अवधी साहित्य और पंडित राधेश्याम जी की रचनाओं ने भारत की स्वतंत्रता में अतुलनीय योगदान दिया है। इनकी जितनी भी बात कही जाय, सागर की एक बूंद समान ही लगता है।
*इस आलेख के कुछ संदर्भ बिकिपिडिया और सोशल मीडिया पोस्ट से सादर संकलित हैं।*