नई दिल्ली : बिहार के महागठबंधन के टूटने की आवाज भारतीय राजनीति में दूर तक और देर तक गूंजेगी। नरेंद्र मोदी ने बीस महीने में अपनी सबसे करारी हार का बदला ले लिया और धर्मनिरपेक्षता पर आधारित विपक्षी एकता का सिराजा बिखेर दिया। भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी के रूपक के हवाले से कहा जा सकता है कि लालू यादव व्दारा अपहृत किए गए नीतीश कुमार के विमान को भाजपा ने छुड़ा लिया है। लेकिन वैचारिक पालाबदल के लिहाज से देखा जाए तो यह अहसास भी होता है कि उनका विमान काबुल या कराची में उतारा गया है।
नीतीश कुमार ने ईमानदारी बचाने के नाम पर इस्तीफा देकर और भाजपा से युति बनाकर फिर शपथ ग्रहण कर लिया तो राजद नेता लालू प्रसाद ने उन पर हत्या का आरोप लगाते हुए स्वयं चारा घोटाले की पेशी के लिए रांची की अदालत में जाकर हाजिरी दी। यह भारतीय राजनीति के सबसे उर्वर प्रदेश बिहार की विडंबना है और यही हमारे विपक्ष और विपक्षी एकता की भी त्रासदी है।
हिंदू धर्म को केंद्र में रखकर राष्ट्रवाद की राजनीति खड़ा करने वाली ताकतों ने विपक्ष के तन और मन में विचारनिरपेक्ष ईमानदारी बनाम धर्मनिरपेक्ष भ्रष्टाचार का व्दंव्द पैदा कर दिया है। कांग्रेस, राजद, बसपा, तृणमूल कांग्रेस, द्रमुक, रांकपा, नेकां और सपा जैसे तमाम दलों को भ्रष्टाचार के घेरे में लेकर यह सिद्ध किया जा रहा है उनकी सारी धर्मनिरपेक्षता महज भ्रष्टाचार और परिवारवाद को ढंकने का एक आवरण है।
चूंकि भाकपा और माकपा जैसी उन पार्टियों की कोई राजनीतिक ताकत नहीं है जो इन आरोपों से अपेक्षाकृत दूर हैं और वैचारिक रूप से दढ़ हैं, इसलिए उनकी धर्मनिरपेक्षता और ईमानदारी दोनों निष्प्रभावी रहते हैं। दूसरी तरफ विचारहीन ईमानदारी का दावा करने वाली पार्टियों की लंबी कतार तैयार हो गई है जिन्हें किसी तरह अपनी सत्ता और पार्टी बचानी है और साथ ही सीबीआई के शिकंजे में आने से अपने परिवार को भी बचाना है।
तेलुगू देशम, तेलंगाना राष्ट्रीय समिति, अन्नाद्रमुक, बीजू जनता दल, लोकजनशक्ति, अपना दल और जस्टिस पार्टी जैसे तमाम दल कभी सत्तारूढ़ गठबंधन से पूरी तरह सट जाते हैं तो कभी मुद्दों के आधार पर उनके साथ आते जाते रहते हैं। जनता दल(एकी) इस परिवार का नया सदस्य है जो चार साल बाद धर्मनिरपेक्षता के परदेश से लौटा है। आम आदमी पार्टी भले भाजपा का विरोध करती हो लेकिन उसका भी आधार विचारविहीन ईमानदारी का ही है। यह मुद्दा आधारित राजनीति का ही एक रूप है। अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के बीच संदेशों के आदान प्रदान पर गौर करें तो यह मुद्दा और भी स्पष्ट हो जाता है।
मोदी उन्हें ट्विट करते हैं कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में शामिल होने के लिए बधाई। इसका जवाब देते हुए नीतीश कुमार कहते हैं-हृदय की गहराई से धन्यवाद। शायद मोदी ने मान लिया है कि नीतीश कुमार जिनका डीएनए दोस्तों को छोड़ने के कारण गड़बड़ हो गया था वह अब ठीक हो गया है। दूसरी ओर लालू प्रसाद, राहुल गांधी और दूसरे विपक्षी नेता मान सकते हैं कि नीतीश कुमार ने अपने समाजवादी मित्रों का साथ छोड़ दिया है इसलिए उनका डीएनए फिर गड़बड़ा गया है।
ध्यान रहे कि नीतीश कुमार बनाम लालू प्रसाद की इस बहस में मोदी और एनडीए का सशक्त हस्तक्षेप काम कर रहा है। लेकिन यह पूरी बहस विपक्ष की आंतरिक बहस है जो उसके भीतर मंथन पैदा कर रही है और बाहर से एनडीए और उसके नेता नरेंद्र मोदी इससे बांटने और राज करने का खेल रहे हैं। विचारनिरपेक्ष ईमानदारी की राजनीति मोदी और उनकी पार्टी नहीं कर रही है। वह राजनीति नीतीश कुमार चंद्रबाबू नायडू और नवीन पटनायक जैसे लोग कर रहे हैं। मोदी और उनकी पार्टी अपने विचार पर कायम है। उनका संघ परिवार भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए काम कर रहा है और विरोध करने वाले संगठनों और समूहों को निशाने पर ले रहा है।
भाजपा उस विचार के पक्ष में वैसे तमाम दलों और नेताओं को लाने के लिए सक्रिय है जो कहीं सामाजिक न्याय के प्रतीक हो सकते हैं, कहीं विकास में कारगर हो सकते हैं या जिनके पास वोट है और जो गठबंधन का आधार बढ़ाने और बाद में उसे भाजपा को सौंप देने में योगदान दे सकते हैं। ध्यान रहे कि नीतीश ने ही मोदी पर तंज कसते हुए कहा था कि कभी टोपी भी पहननी होगी तो कभी तिलक भी लगाना पड़ेगा। मोदी ने तो टोपी नहीं पहनी पर नीतीश ने टोपी उतार कर तिलक लगा लिया।
भ्रष्टाचार चाहे कांग्रेस का हो या राजद का वह क्षम्य नहीं है और उस पर कार्रवाई होनी ही चाहिए। अगर भाजपा और नरेंद्र मोदी भ्रष्टाचार पर कार्रवाई का वादा करके सत्ता में आए थे और वे उसे पूरा कर रहे हैं तो इसका स्वागत होना चाहिए। इस बारे में न तो लालू प्रसाद के परिवार को छोड़ा जाना चाहिए और न ही कांग्रेस के गांधी- नेहरू परिवार को। न ही बहन मायावती को बख्शा जाना चाहिए। छोड़ा मुलायम यादव के परिवार को भी नहीं जाना चाहिए, हालांकि वहां के भ्रष्ट लोगों ने अपने बचने की छतरी बना ली है।
लेकिन भ्रष्टाचार सिर्फ विपक्ष का ही नहीं होता। वह सत्ता पक्ष का भी होता है। बल्कि सत्तापक्ष में ज्यादा होता है। वह शिवराज सिंह चौहान से भी होता है और रमन सिंह से भी होता है। वह वसुंधरा राजे सरकार में भी होता है और देवेंद्र फडनवीस की सरकार में भी होता है। वह बादल परिवार भी करता है। उनकी जांच और उन पर कार्रवाई में तत्परता क्यों नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं कि मौजूदा सरकार सिर्फ उसी भ्रष्टाचार को निशाना बना रही है जहां कहीं से धर्मनिरपेक्ष विचार का संबंध है?
उससे भी अहम बात यह है कि लोकतंत्र में विचार के भ्रष्टाचार पर कोई अंकुश क्यों नहीं। कानूनी अंकुश न सही पर जनता की नाराजगी क्यों नहीं? नीतीश कुमार चार सालों से मोदी का विरोध करते हुए अपनी राजनीति कर रहे थे और 2016 में यह कह रहे थे-- ``संघ मुक्त भारत और शराब मुक्त भारत बनाना है। ....संघ मुक्त भारत बनाने के लिए सभी गैर भाजपा पार्टियों को एक होना पड़ेगा।‘’
वे आज अगर गांधी लोहिया सभी को भुलाकर, फासीवाद के खतरे को नजरंदाज करके उसी पार्टी के साथ सरकार बना रहे हैं, तो इसे किस नैतिकता और ईमानदारी से उचित ठहराया जा सकता है? क्या इस पर सिर्फ अली अनवर और शरद यादव की आपत्तियां ही काफी हैं और पार्टी में कोई खलबली नहीं होनी चाहिए?
इस विचार परिवर्तन या हृदय परिवर्तन का एक ही औचित्य हो सकता है और वो यह कि दूसरी ओर भी विचारों में कुछ नरमी आ रही है। पहली बार जब अटल बिहारी वाजपेयी ने भाजपा की राजनीतिक अस्पृश्यता समाप्त करते हुए राष्ट्रीय लोकतांत्रिक मोर्चा का गठन करके 23 दलों की सरकार बनाई थी तो यही तय हुआ था कि राम मंदिर, समान नागरिक संहिता और अनुच्छेद 370 का विवाद एक किनारे रख दिया जाएगा।
वह इस बात का प्रमाण था कि लोकतंत्र में सत्ता में आने पर कट्टरता टूटती है। लेकिन वह तब टूटती है जब सत्ता गठबंधन की हो और बड़ी पार्टी छोटी पार्टी पर निर्भर हो। बिहार में फिर नीतीश को साथ लाकर क्या नरेंद्र मोदी अपने विकास संबंधी एजेंडे और सबका साथ लेने के कार्यक्रम को मजबूती देना चाहते हैं? या संघ मुक्त भारत का नारा देने वाले एक व्यक्ति को फिर संघ परिवार का स्थायी मेहमान बनाकर हिंदू राष्ट्र के मार्ग को प्रशस्त करना चाहते हैं?
इसका उत्तर तो आने वाला समय देगा लेकिन अगर उत्तर पहले प्रश्न के अनुरूप हुआ तो नीतीश राजनीतिक रूप से जिंदा रहेंगे वरना वे भाजपा के पेट में विलीन हो जाएंगे। लोकतंत्र जीवंत तभी होता है जब उसमें वैचारिक परिवर्तन की गुंजाइश हो और प्रतिपक्ष की विचारधारा की स्वीकार्यता बने। विचारों के घालमेल से बेहतर लोकतंत्र नहीं बनता वह बनता है समन्वय से। सवाल उठता है कि क्या धर्मनिरपेक्षता को संविधान सम्मत और मानवता सम्मत विचार बताने वाले जनता को यह समझा सकेंगे कि इसके बिना भारत का अस्तित्व नहीं है?
ऐसा तभी होगा जब विचारहीन ईमानदारी के खतरे को समझा जा सके और भ्रष्टाचार को धर्मनिरपेक्षता से अलग किया जा सके। धर्मनिरपेक्षता सामाजिक न्याय के सहारे पिछले बीस वर्षों में अपनी ताकत दिखाती रही है। लेकिन आज वह एजेंडा भी उसके हाथ से निकल गया है। ऐसे में गहरे मंथन से गुजरना और अपने लिए प्रासंगिक मूल्यों की स्थापना करना विपक्ष की नियति है।