चीन स्वयं को झुआंगहुआ कहता है, परंतु झुआंगहुआ का चीन नाम केवल ब्रह्म में ही प्रयुक्त होता था। महाभारत में चीन को उत्तरापथ का एक जनपद और भारत राष्ट्र का एक राज्य कहा गया है। यूरोप के लोगों ने इसे भारत के ही अनुसरण में विगत 200 वर्षों में पहली बार चाइना या चीन कहना शुरू किया है। उसके पहले वे इसे भारत का ही एक भाग कहते थे। मार्को पोलो जब पोप की चिट्ठी लेकर कुबलय खान के दरबार में पहुँचा, तो पोप की चिट्ठी में लिखा था— महान सम्राट कुबलय खान और अन्य भारतीय राजाओं के लिए। उसके बाद इसे यूरोप के लोग कभी 'सेरे' कहते थे और कभी कैथे'। यहाँ ध्यातव्य है कि ब्रिटेन के अधीन रहे हांगकांग की एयरलाइन का नाम आज भी 'कैथे' है। इस प्रकार चीन कहना तो यूरोपीय लोगों ने 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से ही आरंभ किया।
प्राचीन चीन सनातन धर्म का अनुयायी था और इसीलिए यहाँ परमसत्ता का बोध भी था और विविध देवी-देवताओं की उपासना का ज्ञान भी था। सनातन धर्म के पूजा अनुष्ठानों का विराट वैविध्य यहाँ भी था। राजा धर्म का संरक्षक होता था और इसीलिए उसे विष्णु का अवतार माना जाता था। ऐसी ही परंपरा भारत में रही है।
कन्फ्यूशियस को सनातन धर्म से अलग किसी विचार का प्रवर्तक बताने का धंधा झूठे और दुष्ट पादरियों ने पहली बार 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में शुरू किया। जिस प्रकार भारत में उन्होंने बौद्ध धर्म को सनातन धर्म से अलग प्रचारित करने की दुष्टता की, उसी प्रकार चीन के विषय में भी किया। परंतु कन्फ्यूशियस के विषय में जितना भी पढ़ने को मिलता है, उससे वे एक नैतिक और सदाचार संपन्न व्यक्ति ही दिखते हैं, कोई अलग विचारक जैसा कुछ नहीं। ईसाई पादरियों द्वारा रची गई मनगढ़ंत बातों से बाहर उनका कोई स्वतंत्र दर्शन नहीं है और इस प्र कार का कोई स्वतंत्र दर्शन होता भी नहीं है। इस तरह के विभेद दर्शाना ईसाई कूटनीति और छल-कपट का एक अंग मात्र है।
इसी प्रकार लाओत्से भी एक सदाचारी और नैतिक व्यक्ति थे, जिन्होंने त्याग और तप पर बल दिया। ये सब वस्तुतः सनातन धर्म के अनुयायी आचार्य ही थे। वर्तमान युग के पूर्व तीसरी शती से बौद्ध मत चीन में फैल गया। चीन, कोरिया और जापान तीनों ही मूलतः हिंदू धर्म के क्षेत्र थे और बाद में वहाँ भारत से ही भगवान बुद्ध के संदेश भी गए। विद्वानों और महाजनों के द्वारा वहाँ निरंतर भारतीय विचार पहुँचते रहे।
महाभारत काल के बाद संभवतः चीन एक अलग राज्य हो गया। उस अवधि का कोई व्यवस्थित विवरण न तो चीन में उपलब्ध है, न भारत में, परंतु सम्राट अशोक का शासन काशगर (उत्तर का काशी), खोतान (कुस्तन) और तारिम घाटी तक था। इसके अभिलेखीय साक्ष्य हैं। सम्राट कनिष्क का शासन तो इस संपूर्ण क्षेत्र के साथ ही शिनजियांग तथा यारकंद तक था। इस प्रकार अशोक के समय चीन का कोई अलग राज्य के रूप में उल्लेख नहीं मिलता। कनिष्क के भी किसी अभिलेख में चीन का अलग राज्य के रूप में कोई उल्लेख नहीं मिलता। वस्तुतः चीन में पुरातात्विक खोजें 20वीं शताब्दी के मध्य से शुरू हुई, जैसा जॉन की ने अपनी पुस्तक 'चाइना ए हिस्ट्री' की भूमिका (इंट्रो- डक्शन) में पृ. 6 पर बताया है। उन्होंने स्पष्ट किया है कि चीन का प्राचीन इतिहास अस्पष्ट है और चीन पर परस्पर विरोधी बातें स्वयं 'कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ एमोंट चाइना' में लिखी हुई हैं (उक्त का पृ. 7)।
माओ के समय नए-नए भवनों के निर्माण के लिए जब बड़े पैमाने पर खुदाइयाँ की गई, तो पहली बार वर्तमान युग के पूर्व दूसरी शती के चीनी चित्र और नक्शे मिले। इसके बाद से अनुमान और अटकलों के आधार पर चीन के इतिहास की रचना करनेवाली अनेक पुस्तकों का प्र- काशन तेजी से होने लगा।
तदनुसार, वर्तमान युग के पूर्व तीसरी शती से ही चीन तीन छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त था और 1400 वर्षों तक यही स्थिति रही। इन 1400 वर्षों में संपूर्ण चीन में तथा कोरिया, जापान आदि पूर्व एशिया के अन्य देशों में भी भारत को ही अपनी धर्मभूमि माना जाता था। फाह- यान और शुंग युन ने इसी अवधि में भारत की तीर्थयात्रा की और बाद में हुएन सांग भी आया।
शुंग वंश के शासन में चीन का वैभव- विस्तार हुआ। बारूद और बंदूक का प्रचलन भी चीन में इसी समय व्यापक हुआ। शुंग वंश ने तीनों राज्यों को एक किया, परंतु उसके बाद पुनः चीन तीन राज्यों में बँट गया—किन, शुंग और हिसया या सिया।
यहाँ यह सदा स्मरण रखने योग्य बात है कि 11वीं शताब्दी तक चीन प्रशांत महासागर के तट पर स्थित पीली नदी के आसपास का क्षेत्र ही रहा है, जिसमें बहुत छोटी-छोटी बस्तियाँ फैली हुई थीं और उतने ही छोटे-छोटे जागीरदार हर इलाके में थे। यह स्थिति वर्तमान युग से 300 वर्ष पहले से 11 वीं शताब्दी तक छोटे-मोटे उतार-चढ़ाव के साथ बनी रही।
वस्तुतः चीन में इन दिनों जो शासक हैं, वे चीन के लिए नितांत अपरिचित और अजनबी हैं तथा इसे छिपाने के लिए स्वयं को चीनी विरासत से जोड़ने का प्रयास करते रहते हैं। परंतु उनका नया और अजनबी होना इस बात से प्रमाणित होता है कि उन्होंने चीन के विभिन्न शहरों और प्रांतों का नाम उसके इतिहास धर्म या संस्कृति से जुड़ा हुआ नहीं रखा है। अपितु केवल नदियों, पहाड़ों और झीलों के उत्तर, दक्षिण, पूर्व या पश्चिम, जैसे दिशासूचक शब्द ही इन इलाकों के लिए प्रयुक्त किए हैं। यह नितांत अभूतपूर्व तथा विचित्र स्थिति है। भारत की तरह धार्मिक तथा सांस्कृतिक स्मृति से जुड़े नाम तो वहाँ हैं ही नहीं, यूरोप की तरह विगत 1000 वर्षों के इतिहास से जुड़े या किसी जनसमूह वाचक नाम
भी नहीं हैं। इसके कुछ उदाहरण ही पर्याप्त होंगे।
'बेइ' का अर्थ है—उत्तर। 'दांग' का अर्थ है— पूर्व । 'नान' का अर्थ है— दक्षिण और 'शी' या क्शी' का अर्थ है— पश्चिम । 'शान' का अर्थ है— पर्वत । 'हे' का अर्थ है—नदी। 'हू' का अर्थ है—झील।