लखनऊ : कांग्रेस की निरंतर गिरती साख और उनके प्रवक्ताओं के बयानों से रुष्ट जनता ने एक ओर जहां देश से कांग्रेस का सफाया करने का मन बना लिया हैवही दूसरी ओर कांग्रेस से सहानुभूति रखने वाले राजनैतिक दलों की भी उपेक्षा आरम्भ कर दी है।यूपी में सपा सरकार की बदहाली इसका जीता जगता उदाहरण है।
यह सत्य है कि केंद्र सरकार में बैठे भाजपा के किसी भी मंत्री के ऊपर भ्रस्टाचार का कोई आरोप नही है। केजरीवाल ने अरुण जेटली पर कुछ आरोप क्रिकेट को लेकर जरूर लगाये थे परंतु 10 - 10 करोड़ के दो मानहानि के केस ठुक जाने के कारण केजरीवाल की भी हवा फुस्स हो गई।
कल ही एक टीवी चैनल पर कांग्रेस के नये एवम युवा प्रवक्ता सिंधिया, चैनल के एंकर से जिस अन्दाज़ मे बात कर रहे थे उसने कांग्रेस के बचे खुचे चरित्र को भी उजागर कर दिया। पिता की विरासत से राजनीति में प्रवेश किये सिंधिया का हाल राहुल गांघी से भी बुरा होता जा रहा है,जिसे देश की जनता किसी भी दृष्टि से स्वीकार नही करती।
अब विपक्ष को सत्ताधारी दल के सामने मुकाबले में बने रहने की चुनौती है।अपनी उपलब्धियों का जश्न मना रही मोदी सरकार की अगर इन तीन वर्षों में कोई सबसे बड़ी राजनीतिक कामयाबी रही है तो वह विपक्ष को सियासी मुकाबले से लगभग बाहर रखना है। काग्रेस के सफाये के साथ साथ विपक्ष भी टूटता जा रहा है। बीते लोकसभा चुनाव में मोदी लहर में ध्वस्त हुआ विपक्ष अब भी चुनौती पेश करने के लिए खुद को खड़ा करने की जद्दोजहद से जूझ रहा है। विपक्ष के सामने मोदी के मुकाबिले चेहरे की तलाश के साथ ही जमीन पर भाजपा के सियासी विस्तार और प्रबंधन को समझने की बड़ी चुनौती है।
राष्ट्रपति चुनाव में गैर एनडीए पार्टियों की गोलबंदी के सहारे विपक्ष अपनी चुनौती को संघर्ष का रूप देने की कोशिश जरूर कर रहा है लेकिन अभी तक कोई ऐसी शक्ति बनते नज़र नही आ रही है। पिछले तीन साल में राजनीति के मैदान पर विपक्ष मजबूत वापसी करते हुई दिखाई नहीं पड़ा है। 2014 में सबसे पहले महाराष्ट्र और हरियाणा में कांग्रेस ने भाजपा के हाथों अपनी सत्ता गंवाई। यह सिलसिला जम्मू-कश्मीर, अरूणाचल प्रदेश, उत्तराखंड, झारखंड मणिपुर, असम से लेकर गोवा और देश केसबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में भाजपा की प्रचंड चुनावी कामयाबी तक बना हुआ है।
इन तीन वर्षों में दिल्ली और बिहार के चुनावों में जरूर भाजपा को झटका लगा, मगर विपक्ष मुश्किल वक्त में मिली इस संजीवनी का भी सियासी लाभ नहीं ले सका।राजनीति चुनौतियों के चक्रव्यूह में घिरी कांग्रेस के लिए पंजाब की जीत ने उम्मीद की किरण तो जगाई, मगर पार्टी इस रोशनी को आगे बढ़ाने की राह अब भी तलाश नहीं पाई है।
उत्तर प्रदेश चुनाव के नतीजों से जहां बसपा जैसी पार्टी के अस्तित्व को लेकर सवाल उठने लगे हैं, वहीं समाजवादी पार्टी हार के बाद भी अंदरूनी कलह से बाहर निकलती नहीं दिखाई दे रही है। विपक्षी महागठबंधन की मुखर रूप से पैरोकारी कर रही ममता बनर्जी के सामने भी पश्चिम बंगाल में भाजपा को पैठ बनाने से रोकने की नई चुनौती आन पड़ी है।
पश्चिम बंगाल की सत्ता से बाहर होने के बाद वामपंथी पार्टियों के लिए अब केवल केरल और त्रिपुरा का ही सहारा रह गया है। विपक्षी गठबंधन के दो अहम नेता जदयू प्रमुख बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव सूबे की अपनी अंदरूनी सत्ता सियासत को साधने की कसरत में ही बार-बार मशक्कत करते नजर आतें है।
आयकर विभाग की कार्यवाहियों से त्रस्त लालू यादव भाजपा और मोदी को कोसने से नही चूकते वही उनके द्वारा भ्र्ष्टाचार में लिप्त उनके पूरे परिवार को सलाखों के पीछे जाने का भय उन सबकी रातो की नींद हराम किये है।
ओडिशा में बीजद प्रमुख मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के लिए भी सूबे में उभरती हुई भाजपा सियासी मुसीबत बढ़ा रही है। तेलंगाना में सत्ताधारी टीआरएस और आंध्र प्रदेश की मुख्य विपक्षी पार्टी वाइएसआर कांग्रेस ने राष्ट्रपति चुनाव में एनडीए का साथ देने की बात कह यह साफ संदेश दे दिया है कि ये दोनों पार्टियां विपक्ष के महागठबंधन की किसी पहल से दूर रहेंगी।
राजनीति के मैदान में जद्दोजहद कर रहे विपक्ष ने वैसे कुछ अहम मुद्दों पर जरूर सरकार को चुनौती देने की इन सालों में कोशिश की है। इसमें सबसे पहली और बड़ी कामयाबी भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन की सरकार की कोशिश को रोकना रहा। विपक्ष ने राज्यसभा में अपनी ताकत के सहारे भूमि अधिग्रहण बिल को रोका वहीं सहिष्णुता, राष्ट्रवाद की भाजपा की परिभाषा पर सवाल उठाने से लेकर जीएसटी बिल में कुछ अहम बदलाव को शामिल कराने में भी कामयाबी पाई है।