मैं ने देखी हैं झील में डोलती हुई
कमल-कलियाँ जब कि जल-तल पर थिरक उठती हैं
छोटी-छोटी लहरियाँ।
ऐसे ही जाती है वह, हर डग से
थरथराती हुई मेरे जग को
घासों की तरल ओस-बूँदें तक को कर बेसुध
चूम लेती हैं उस के चपल पैरों की तलियाँ।
पर तुम ने-नहीं, तुम ने नहीं, उस ने!-देखा है कभी
कि कैसे पर्वती बरसात में
बिजली से बार-बार चौंकायी हुई रात में
तीखी बौछार की हर गिरती बूँद से भेंटने को
सारे पावस को ही अपने में समेटने को
ललकता है उसी झील का वही जल
हर बूँद की प्रति-बूँद, आकुल, पागल,
जैसे मेरा दिल? जैसे मेरा दिल..