ऐसा क्यों हो
कि मेरे नीचे सदा खाई हो
जिस में मैं जहाँ भी पैर टेकना चाहूँ
भँवर उठें, क्रुद्ध;
कि मैं किनारों को मिलाऊँ
पर जिन के आवागमन के लिए राह बनाऊँ
उन के द्वारा निरन्तर
दोनों ओर से रौंदा जाऊँ?
जब कि दोनों को अलगाने वाली
नदी
निरन्तर बहती जाए, अनवरुद्ध?