क्या देखे हैं कभी?
धूल में नहाये लोग,
जमीन के नीचे से उठकर
जब तक नहीं छूने लगीं
वो इमारतें, मीनारें, अट्टालिकाएं
आकाश को,
घेरे रहे उनको ये
धूल में नहाये लोग ।।
चेहरे बदलते रहे
और वक़्त भी साथ-साथ,
नहीं बदली मगर
इन चेहरों की खासियत
धूल में नहाने की,
धूल में समाने की,
धूल को जोड़कर
बुलंदियां बनाने की,
तिनका-तिनका जोड़कर
इमारत बनाते लोग,
धूल में नहाये लोग ।।
आदत है, आवश्यकता है
इनकी ये धूल,
जीवन के हर मोड़ पर
समायी इनमे धूल
बचपन से जवानी
और जवानी से बुढ़ापे तक
या जब तक है शक्ति,
धूल में मिल जाने तक,
अपने सर पर धूल का
बोझा उठाये लोग,
धूल में नहाये लोग ।।
धूल का फांका भी,
धूल से रोटी भी;
धूल के ही दम पर,
उसकी नाक का मोती भी.
धूल के ही जोर पर,
धूल की ही चाहत में,
थक हार कर रात को
हंडिया चढाते लोग,
धूल में नहाये लोग ।।
धूल से ही उत्सव हैं,
पर्व हैं, त्यौहार हैं,
धूल में ही जीवन की
जीत है, हार है.
धूल भरी आंधियों से
रार लगाये लोग,
धूल में नहाए लोग.
दीपक कुमार श्रीवास्तव ” नील पदम् “