समान नागरिक संहिता का अर्थ है कि समाज के सभी वर्गों के साथ, चाहे उनका धर्म जो भी हो, राष्ट्रीय नागरिक संहिता के अनुसार समान बर्ताव किया जाये जोकि सभी पर समान रूप से लागू होना चाहिये ।
देश के आजाद होने से पहले १८४० की लोकी रपट में कहा गया कि भारत के अपराध कानून की एकरूपता होना आवश्यक है परन्तु ये भी संस्तुति की गई कि हिन्दू और मुस्लिमों को इस तरह के कानून से दूर रखना चाहिये । 1859 की ब्रिटिश क्वीन की उद्घोषणा में धार्मिक मामलों में पूर्ण हस्तक्षेप न करने का वादा किया गया था । इसलिए जब आपराधिक कानून संहिताबद्ध किये गए और पूरे देश के लिए एक समान हो गए परन्तु व्यक्तिगत कानून विभिन्न समुदायों के लिए अलग-अलग कोड द्वारा शासित होते रहे।
संविधान के प्रारूप के निर्माण के दौरान, जवाहरलाल नेहरू और डॉ. बी.आर. अम्बेडकर जैसे प्रमुख नेताओं ने समान नागरिक संहिता पर जोर दिया। हालाँकि, उन्होंने मुख्य रूप से धार्मिक कट्टरपंथियों के विरोध और उस समय जनता के बीच जागरूकता की कमी के कारण यूसीसी को राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों (डी.पी.एस.पी., अनुच्छेद 44) में शामिल किया। संविधान के अनुच्छेद 44 राज्य में कहा गया है कि राज्य अपने नागरिकों के लिए पूरे भारत में एक समान नागरिक संहिता (यूसीसी) प्रदान करने का प्रयास करेगा।
हिंदू कानूनों में सुधार के लिए डॉ. बी आर अंबेडकर द्वारा विधेयक का मसौदा तैयार किया गया था, जिसमें तलाक को वैध बनाया गया, बहुविवाह का विरोध किया गया, बेटियों को विरासत का अधिकार दिया गया। संहिता के तीव्र विरोध के बीच, चार अलग-अलग कानूनों के माध्यम से एक संस्करण पारित किया गया।
हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के तहत मूल रूप से बेटियों को पैतृक संपत्ति में विरासत का अधिकार नहीं दिया गया था। वे केवल संयुक्त हिंदू परिवार से भरण-पोषण का अधिकार मांग सकते थे। लेकिन 9 सितंबर 2005 को अधिनियम में एक संशोधन द्वारा इस असमानता को दूर कर दिया गया।
मुस्लिम पर्सनल कानून मुसलमानों के लिए अलग से पारित किया गया।
विशेष विवाह अधिनियम, 1954 में लाया गया जो किसी भी धार्मिक व्यक्तिगत कानून के बाहर नागरिक विवाह का प्रावधान करता था।
शाह बानो केस के तहत 1985 में न्यायायिक हस्तक्षेप किया गया था । शाह बानो नाम की 73 वर्षीय महिला को उसके पति ने तीन बार तलाक (तीन बार "मैं तुम्हें तलाक देता हूं" कहकर) तलाक दे दिया और गुजारा भत्ता देने से इनकार कर दिया। उसने अदालतों का दरवाजा खटखटाया और जिला न्यायालय और उच्च न्यायालय ने उसके पक्ष में फैसला सुनाया। इसके चलते उसके पति ने सुप्रीम कोर्ट में अपील करते हुए कहा कि उसने इस्लामी कानून के तहत अपने सभी दायित्वों को पूरा किया है। सुप्रीम कोर्ट ने 1985 में अखिल भारतीय आपराधिक संहिता के "पत्नी, बच्चों और माता-पिता के भरण-पोषण" प्रावधान (धारा 125) के तहत उनके पक्ष में फैसला सुनाया, जो धर्म की परवाह किए बिना सभी नागरिकों पर लागू होता था। इसके अलावा, इसने सिफारिश की कि एक समान नागरिक संहिता स्थापित की जाए। इस केस का प्रभाव ये हुआ कि इस ऐतिहासिक फैसले के बाद देशभर में चर्चाएं, बैठकें और आंदोलन हुए. तत्कालीन सरकार ने दबाव में आकर 1986 में मुस्लिम महिला (तलाक पर सुरक्षा का अधिकार) अधिनियम (एमडब्ल्यूए) पारित किया, जिसने आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 125 को मुस्लिम महिलाओं पर लागू नहीं किया।
अनुच्छेद 37 के अनुसार राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों को कोई भी अदालत किसी भी राज्य में लागू करने के लिए बाध्य नहीं कर सकती परन्तु गोवा एकमात्र भारतीय राज्य है जिसके पास एकसमान पारिवारिक कानून के रूप में यूसीसी है। पुर्तगाली नागरिक संहिता जो वहां आज भी लागू है, 19वीं शताब्दी में गोवा में पेश की गई थी और इसकी मुक्ति के बाद इसे हटाया नहीं गया था।
भारत में हिंदुओं, मुसलमानों, ईसाइयों, पारसियों के संहिताबद्ध व्यक्तिगत कानूनों का एक अनूठा मिश्रण है। सभी भारतीयों के लिए एक ही क़ानून पुस्तक में कोई समान परिवार-संबंधी कानून मौजूद नहीं है जो भारत में सह-अस्तित्व वाले सभी धार्मिक समुदायों के लिए स्वीकार्य हो। हालाँकि, उनमें से अधिकांश का मानना है कि यूसीसी निश्चित रूप से वांछनीय है और भारतीय राष्ट्रीयता को मजबूत करने और समेकित करने में काफी मदद करेगा। मतभेद इसके समय और इसे साकार करने के तरीके पर हैं।
राजनीतिक लाभ हासिल करने के लिए इसे एक भावनात्मक मुद्दे के रूप में उपयोग करने के बजाय, राजनीतिक और बौद्धिक नेताओं को आम सहमति बनाने का प्रयास करना चाहिए। सवाल अल्पसंख्यकों की सुरक्षा या यहां तक कि राष्ट्रीय एकता का भी नहीं है, यह तो बस प्रत्येक मानव व्यक्ति के साथ सम्मानपूर्ण व्यवहार करने का है, जिसे करने में व्यक्तिगत कानून अब तक विफल रहे हैं। तो देशवासियों समान नागरिक संहिता को लागू करने के लिए एकजुट होकर आगे बढ़ो भाई, शायद इसी में राष्ट्र-हित है ।
(c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव "नील पदम्"
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