शब्द मुक्त न होते अधरों से
वाक्य कंठ में अटक जाते,
नहीं लेखनी होती जग में
अक्षर न पृष्ठों पर आते।
मन के उद्गारों की कैसे
कोई छवि दिखला पाते,
रचना कोई होती न जग में
न चित्र, चल-चित्र ही बन पाते।
क्या गूढ़ रहस्य हैं इस प्रकृति के
कैसे भला समझ पाते,
क्या तब भी मानव होते हम
या चौपाये कहलाते।
कितने अपरिचित, कितने अज्ञानी
कितने अव्यक्त हम रह जाते,
यदि हम अपने मन-मंदिर में शारदे
तेरी मूरत न ले आते।
(c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव “नील पदम्”