मन में उमड़ती हुई भावनाओं के समंदर का एक द्वीप
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एक विज्ञान की गलियों में भटक कर रास्ता भूल कर साहित्य की गलियों में पहुंचा यायावर; रोटी के जुगाड़ से बचे हुए समय का शिक्षार्थी; मौलिकता ही मूलमंत्र, मन में जो घटता है उसमें से थोड़ा बहुत कलमबद्ध कर ले
काश! मैं पाषाण होता, मेरे ह्रदय पर कोई पाषाण तो नहीं होता, काल के आघात से विखर जाता, वेदना से छटपटाकर नहीं रोता ।। पूष की ठिठुरन होती, या जेठ की अंगार तपन, श्रावण का सत्कार होता, या होता पत
क्या देखे हैं कभी? धूल में नहाये लोग, जमीन के नीचे से उठकर जब तक नहीं छूने लगीं वो इमारतें, मीनारें, अट्टालिकाएं आकाश को, घेरे रहे उनको ये धूल में नहाये लोग ।। चेहरे बदलते रहे और वक़्त भी
कभी नहीं हटती है, रहती है सदा चिपककर वो लिजलिजी सी हठी छिपकली कभी इस दीवाल पर, या छत पर, या उस दीवाल पर. गिरगिट रहता बगीचे में या बाहर लॉन की घास पर हरसिंगार, सुदर्शन, नीम और तुलसी पर करता
धार तुम देते रहो रहोगे अभिशप्त, यदि करोगे सत्य का तिरष्कार, सकारात्मक-विचारवान बन, कर लो सत्य को स्वीकार; सत्य का स्वरुप ही है- निर्विकार स्वरुप, असत्य भ्रम का ज़ाल है, अज्ञान का प्रतिरूप;
वो बोगेनविलिया की बेल रहती थी उपेक्षित, क्योंकि थी समूह से दूर, अलग, अकेली, एक तरफ; छज्जे के एक कोने में जब देती थीं सारी अन्य लताएँ लाल, पीले, नारंगी फूल, वो रहती थी मौन, सिर्फ एक पत
दोहरी होती गयी हर चीज़ दोहरी होती जिंदगी के साथ. आस्थाएं, विश्वास, कर्त्तव्य आत्मा और फिर उसकी आवाज ।। एक तार को एक ही सुर में छेड़ने पर भी अलग-अलग परिस्थितियों में देने लगा अलग-अलग र
मेरी ये अभिलाषा है, कि अपनी दोनों मुठ्ठियों में एक मुठ्ठी आसमान भर लूं. मेरी ये अभिलाषा है, कि आकाश को खींचकर, मैं धरती से उसका मिलन कर दूं. मेरी ये अभिलाषा है, कि अब की चौमासे में, पहली बू
विपक्ष के 26 दलों के शीर्ष नेताओं ने बंगलुरु में महामंथन चालू कर दिया है जो कल सुबह 11 बजे तक चलने की उम्मीद है। विपक्ष इस तरह अपनी ताकत और एकता का प्रदर्शन करना चाहता है। इससे पहले पटना में 17 दलो
गर्व था मुझे मेरे, मन के विश्वामित्र पर, अभिमान था मुझे मेरे, चित्त के स्थायित्व पर, स्वच्छंद मृग सा घूमता था, डोलता था हर समय, स्वयं के ही अंतर्मन से, खेलता था हर समय। पर उसी क्षण द्वार पर, म
ये कहाँ सुधरने वाले हैं। देवी-देवताओं पर फ़िल्में बनाकर लोगों की धार्मिक भावनाओं को आहत करने से ये बाज नहीं आयेंगे। चाहे पी०के० हो या आदिपुरुष या किसी और फ़िल्म का कोई सीन, ये धार्मिक भावनाओं से खेल ह
आप जहाँ पाँव रखोगे, ये वहीँ अपनी पूँछ मानेंगे, इनकी यही फ़ितरत है, ये बिना डसे कहाँ मानेंगे। आपकी साधारण लब्धि भी इनके लिए कारण है एक, विष-वमन कर देंगे, वैसे है ये उदाहरण एक। आपके एक-एक शब्
जरासन्ध के पुत्रों ने देश को गाली बना दिया, सम्पन्न था सब संसाधन से खाने की थाली बना दिया। ये कंस कुलों के कुल-घातक कृष्णा को चोर बताते हैं, पर बैठे हैं जिस शाख पे ये उसको ही तोड़ चबाते हैं।
भीगे मन को भीगा सावन, सूखा-सूखा लगता है । मूक अधर, सूनी नजरों से, चौपाल भला कब सजता है । आँखों की कोरें भीगी हों तो क्या करना सावन का, मन में यदि न उम्मीदें हों तो क्या करना सावन का,
अरे ओ महात्मा ! याद है तुम्हें उस वस्त्रहीन को वस्त्र देने के बाद, अपने वस्त्रों को आजीवन सीमित कर लिया था तुमने । अरे ओ माधव ! स्मरण होगा तुम्हें उसके वस्त्रों के ह्रास का प्रयास, जब उसके
रूह बनकर उतरती है, रख लेता हूँ, आसमान से बरसती है, रख लेता हूँ, मुझ खाकसार को, क्या कायदा, क्या अदब, ये तो राम की रहमत है, लिख लेता हूँ। (C) @दीपक कुमार श्रीवास्तव " नील पदम्"
फिर से स्त्रियों का अपमान किया गया । मणिपुर के बाद मालदा। यहाँ पर तो सरकार की मुखिया खुद एक स्त्री हैं। एक तो स्त्री ऊपर से आदिवासी महिलाएं। इतनी कमजोर महिलाओं के ऊपर अपना जोर दिखाने का क्या मतलब।
आदमी जिस पेड़ की डाल पर बैठा है दिनोदिन उसे ही काट रहा है| लकड़ी (वैसे तो पेड़ लगा लो तो नवीनीकरण हो सकता है) एवं कोयला, पेट्रोल, डीज़ल जैसे फॉसिल फ्यूल एक न एक दिन समाप्त हो ही जाने
जब मैं तुमसे प्रश्न करूँगा, मुझे पता था यही कहोगे, साँसे तन से भारी होंगी, रोक रखोगे, बोझ सहोगे। शब्दों से परहेज़ तुम्हें है, शब्दों के संग नहीं रहोगे, तुम तो जादूगर हो कोई, आँखों से मन की
बिलकुल सूर्योदय के समय नदी के घुमाव के साथ-साथ सरसों के फूलों भरे खेत, आँचल लहरा दिया हो तुमने जैसे। सूरज की पहली किरणों से नहाकर नदी चमक उठी है कैसी बचपन युक्त तुम्हारी, निर्दोष हँसी हो जै
है वक़्त बड़ा शातिर, कमबख्त ज़माना है, सब बोझ अंधेरों का, जुगनू को उठाना है। आँधी को उड़ा करके, तूफाँ को जवाँ करके, वो बैठे हुए है क्यों, सूनामी उठा करके। एक आग लगाकर वो, कहते ये फ़साना है, दीपक
शतरंज की बिसात सी बनी है ज़िन्दगी, खुली हुई क़िताब के मानिंद कर निकल। भूल जा हर तलब, हर इक नशा औ जख्म, अब तो बस एक रब का तलबगार बन निकल। (c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव “नील पदम्” [चित्र साभार इ
कौन कहता है, सो रहा है शहर, कितने किस्से तो कह रहा है शहर। किसी मजलूम का मासूम दिल टूटा होगा, कितना संजीदा है, कितना रो रहा है शहर। ये सैलाब किसी दरिया की पेशकश नहीं, अपने ही आँसुओं में बह
पल्लू में उसके बंधे रहते हैं अनगिनत पत्थर, छोटे-बड़े बेडौल पत्थर मार देती है किसी को भी वो ये पत्थर। उस दिन भी उसके पल्लू में बंधे हुए थे ऐसे ही कुछ पत्थर। कोहराम मचा दिया था उस दिन उसन
समान नागरिक संहिता का अर्थ है कि समाज के सभी वर्गों के साथ, चाहे उनका धर्म जो भी हो, राष्ट्रीय नागरिक संहिता के अनुसार समान बर्ताव किया जाये जोकि सभी पर समान रूप से लागू होना चाहिये । देश के आजाद
बेटियाँ बहुत प्यारी होती हैं । बहनें भी बहुत प्यारी होती हैं । माँ-बाप और भाई आजीवन उनपर अपना स्नेह-प्यार लुटाते रहते हैं। पर, ये बेटियाँ या बहने आखिरकार होती तो लडकियाँ ही हैं जिन्हें दुनिया के
कारगिल युद्ध के दौरान दुश्मन ने धोखे से हमारी खाली पड़ी चौकियों पर कब्ज़ा कर लिया था जो कि रणनीतिक तौर पर बहुत महत्वपूर्ण थीं. …. इस युद्ध में भारत के कई वीर सपूत वीरगति को प्राप्त हुए थे…. ये उसी
कभी हुनर नहीं खिलता कभी जज्बा नहीं मिलता, हजारों बुलन्दियां होतीं, पर ये रुतबा नहीं मिलता। समन्दर हो जमीं हो या के हो आसमान की बातें, जो प्रिय कलाम ना होता इन्हें ककहरा नहीं मिलता। ये मेरे
कविता का संसार गढ़ना है, बन प्रेरणा चले आओ, हाँ, मुझे उड़ना है, तुम पँख बनकर लग जाओ । देखना है मुझे, उस क्षितिज के पार क्या है, जानना है मुझे, सपनों का सँसार क्या है । कल्पना के संसार में, तैर
जुबां पे दिलकश दिलफरेबी बातों का शहद, दिल में जहर-ओ-फरेब का समंदर हो ॥ मुस्कराहट के साथ फेरते हो नफरती तिलिस्म, सोचता हूँ कितने ऊपर औ कितने जमीं के अन्दर हो ॥ फूलों की डाल से दिखाई देते हो लेक
आम को फलों का राजा कहा जाता है….. और सच भी है… क्योंकि इसके जादुई स्वाद के तिलिस्म से कौन सम्मोहित नहीं होता….. कभी आम के ऐसे ही मौसम में कुछ पंक्तियाँ बन गईं थीं….. सुर्खाब की देखें सूरत , लो
इसकी तामीर की सज़ा क्या होगी, घर एक काँच का सजाया हमने । मेरी मुस्कान भी नागवार लगे उनको, जिनके हर नाज़ को सिद्दत से उठाया हमने । वक़्त आने पर बेमुरव्वत निकले, वो जिन्हें गोद में उठाया हमन
मेरे मन के शांत जलाशय से, ओ! वन की स्वच्छंद चँचल हिरनी तूने नीर-पान करके- शांत सरोवर के जल में ये कैसी उथल-पुथल कर दी। मैं शांत रहा हूँ सदियों से, यूँ ही एकांत का वासी हूँ, मैं देश छोड़ कर
फ़ितरत-ए-साँप आप जहाँ पाँव रखोगे, ये वहीँ अपनी पूँछ मानेंगे, इनकी यही फ़ितरत है, ये बिना डसे कहाँ मानेंगे। आपकी साधारण लब्धि भी इनके लिए कारण है एक, विष-वमन कर देंगे, वैसे है ये उदाहरण एक।
तेरा कंधे पे सर रखकर के, शुकराना अदा करना, रहे हरदम यही मंजर, मुझे कुछ याद ना रखना । घड़ी वो थी मुबारक, आपने बोला था शुक्रिया, एक बार बोले आप, खुदाया सौ बार शुक्रिया, इसी तरह नज़र-ए-इनायत हम पर तु
ऐ भाई ! जरा देख कर चलो जरा संभल कर चलो पर उससे पहले जाग जाओ | कब तक आँखें बंद कर काटते रहोगे वही पेड़ जिस पर बैठे हो तुम, ऐसा तो नहीं कि आरी चलने की आवाज तुम्हें सुनाई नहीं देती, या तुम्हारी
राष्ट्र के कवि हो तुम तुम कवि विशुद्ध हो, शब्दों के चितेरे तुम, स्पष्ट अभिव्यक्त हो । हरिगीतिका के दक्ष तुम, काव्य के प्रत्यक्ष तुम, हो पूज्यनीय व्यक्ति तुम नव चेतना जगा गये, इस तरह समृ
शब्द मुक्त न होते अधरों से वाक्य कंठ में अटक जाते, नहीं लेखनी होती जग में अक्षर न पृष्ठों पर आते। मन के उद्गारों की कैसे कोई छवि दिखला पाते, रचना कोई होती न जग में न चित्र, चल-चित्र ही बन