बिजनेस स्टैंडर्ड अख़बार के संपादकीय पन्ने पर ए के भट्टाचार्य का एक लेख छपा है। इनका कहना है कि देश में जितने IAS की ज़रूरत है, और जितने हैं, दोनों में 23 फीसदी का फासला है। यानी ज़रूरत से 23 फ़ीसदी कम IAS हैं। पिछले साल केंद्र और राज्यों में IAS की ज़रूरत का हिसाब लगाया गया तो पाया गया कि 1740 अफसर कम हैं। भट्टाचार्य ने लिखा है कि अगर इतनी कम क्षमता में प्रशासन का काम चल सकता है तो देश भर में समीक्षा होनी चाहिए कि क्या इससे भी कम में काम चल सकता है। पिछले साल दिसंबर में उत्तर प्रदेश ने आई ए एस अफ़सरों की ज़रूरत की समीक्षा की थी। उसके बाद यूपी के काडर की क्षमता में पांच प्रतिशत की वृद्धि की गई थी। बिहार में तो ज़रूरत से 37 प्रतिशत कम,राजस्थान में 14 प्रतिशत, छत्तीसगढ़ में 15 प्रतिशत की कमी है। पंजाब में 17 प्रतिशत, मध्य प्रदेश और उड़ीशा जैसे राज्यों में 18 से 19 प्रतिशत की कमी है। महाराष्ट्र, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश में 22 प्रतिशत कम आई ए एस हैं।
हिन्दी चैनलों को ऐसी ख़बरों से अब फुर्सत नहीं हैं। उनका दोष नहीं है। युवाओं को भी ऐसी ख़बरों में दिलचस्पी नहीं है। मेरी राय में युवाओं के इस लेवल को देखते हुए सरकार को आई ए एस की क्षमता में पचास प्रतिशत कमी कर देनी चाहिए। तब भी युवाओं को कुछ फर्क नहीं पड़ेगा। अगर यूपीएससी के परीक्षार्थियों को फर्क पड़ता तो वे इसी साल पहली मार्च की ख़बर पर चौकन्ना हो जाते। इंडियन एक्सप्रेस की ख़बर है कि 2017 के साल में सरकार 980 आई एस एस, आई पी एस और आई एफ एस बहाल करेगी। पांच साल में यह सबसे कम संख्या में होने वाली बहाली है। युवाओं को लगता है कि उन्हें सिर्फ कोचिंग करना अच्छा लगता है। यूपीएससी की वेकैंसी कम होती रहे, वो बस कोचिंग कर लें और थोड़ा कश्मीर और तीन तलाक पर अपने पूर्वाग्रहों को चमका लें, उनका काम हो जाएगा।
लाखो नौजवान यूपीएससी की परीक्षा देते हैं। क्या वाकई इन्हें इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि ज़रूरत से कम बहाली हो रही है और इस साल पांच साल में सबसे कम बहाली हो रही है। इससे पता चलता है कि यूपीएससी की तैयारी कर रहे लाखों छात्रों का लेवल क्या है। एक अगस्त 2010 को इंडिया टुडे के अमन शर्मा की एक रिपोर्ट है। यह रिपोर्ट इंटरनेट पर है। भारत में 3000 आई ए एस और आई पी एस अधिकारियों की कमी है जिसे सरकार भरने चलेगी तो 2025 आ जाएगा। इस बीच कितनों के सपने की हत्या हो जाएगी, बुढ़ा जाएंगे, इसका तो हिसाब ही नहीं है। रिपोर्ट के अनुसार सरकार भर्ती ही नहीं करना चाहती है। 2012 में यूपीए की सरकार थी, 2017 में मोदी सरकार चल रही है जो 2019 में आ रही है। यूपीएससी की तैयारी में लगे युवाओं को सरकार ये कह दे कि हम एक भी वेकैंसी नहीं निकालेंगे, आप बस तैयारी करते रहिए और आकर इम्तहान भी दीजिए तो भी हमारा युवा तीन चार साल यही करता रहेगा। उसे यह नहीं समझा आता कि नौकरियों के मामले में हर सरकार की एक ही नीति होती है।
ए के भट्टाचार्य ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि बिहार में 37 प्रतिशत अफसर की कमी है। 2012 में पत्रकार अमन शर्मा ने लिखा था कि बिहार में 40 प्रतिशत आई ए एस कम हैं। तब यूपीए सरकार के कार्मिक मंत्री वी नारायणसामी ने संसद में कहा था कि सरकार नई भर्तियां नहीं करेगी क्योंकि इससे पीरामीडिय ढांचा चरमरा जाएगा। ये कौन सा ढांचा है जो कम नौकरियों से बना रहता है। अमन शर्मा की रिपोर्ट में Institute of Public Administration (IIPA) का हवाला दिया गया है कि हर साल 180 अफसर अधिक बहाल हों तो 2020 तक यह कमी समाप्त हो जाएगी। लेकिन ज़्यादा भर्ती करने से क्वालिटी पर असर पड़ेगा। पिरामिड ढह जाएगा। इतना बड़ा देश अगर 180 अफसर ज्यादा भर्ती कर लेगा तो उससे गुणवत्ता ख़राब हो जाएगी, बात समझ में नहीं आती। ये सारे सरकारी रिपोर्ट सरकार की ही बात करते हैं। जनता की बात नहीं करते हैं। क्या भारत 180 अतिरिक्त अफ़सरों की बहाली करने में सक्षम नहीं हैं।
भारत का ही युवा एक ऐसा है जिसे नौकरी नहीं चाहिए। नारे लगाने के लिए टीवी चैनलों पर नए नए आयोजन चाहिए। क्या किया जा सकता है। मेरी समझ से बाहर की चीज़ है कि रोज़गार से जुड़ी ख़बरों से किसी को फर्क क्यों नहीं पड़ता। सरकार इस बात का ढोल पीट रही है कि चतुर्थ श्रेणी या जौन सी श्रेणी से इंटरव्यू हटा दिया ताकि सिफारिश ख़त्म हो. यह क्यों नहीं बताती कि कंपटीशन से होने वाली नौकरियों को भी घटा दिया है। बहरहाल, यूपीएससी की तैयारी कर रहे जवान इस लेख को न पढ़ें। उनका दो मिनट बर्बाद हो जाएगा। बेहतर है कि बिना वैकेंसी के भी वे तैयारी में लगे रहें। शुभकामनाएं।