उनकी जुदाई की बातें कभी भी छुप नहीं सकती,
उनके नाम से ही तो मिरी साँसे उठती औ गिरती हैं।
अक़्सर मिरी हर साँस से उनका ही नाम उठता है।
कमबख्त क़ल्ब भी मेरा बनठन उछलता है।1
क़त्ल कर बैठे वे अपनी निग़ाहों से ए ख़ुदा,
अब्सार भी बड़े इत्मीनान से चलाए उसने।
ज़रा रहमत बरसाना कहीं ख़ाक न हो जाऊँ।।
मिरा क़ुसूर ही क्या था इत्तिफ़ाकन घुमाए हमने।।2
ख़ुदा बख़्श दे उनसे उल्फ़त मिरी नादानी का,
तौहीन भी की गयी मिरा मज़हम और ज़ात कहकर।3
क्यों नहीं मिलने आते हो मिरी झुमका बरेली में,
ज़रा तशरीफ़ तो लाएँ मिरी टूटी-फ़ूटी हवेली में।। 4
क्या करें उनको देखकर आहिस्ते से लगी,
इश्क़ की आग़ ऐसी लगी कि बुझे न बुझी।। 5
निकले काफ़िले भले ही भीड़ में अक़्सर,
पर क़दम हमने ही धीरे-धीरे बढ़ाना है।।6
वक़्त की चोटें भी अज़ीब होती हैं,
या तो बिख़र जाते हैं या इतिहास बनाते हैं।।7
वक़्त के ख़ेल में सिकन्दर भी हारा है।
अरे! कौन कहता है कि हम बादशाह हैंं। 8
कश्मकश में हूँ अरे! यह कश्मकश कैसी
कश्मकश ही ज़िन्दगी है फ़िर कश्मकश कैसी9
क्या करें मुक़म्मल ही नहीं होता रुक पाना।
दुनिया का दस्तूर ही ऐसा कि निभाना है।।10
@ सर्वेश कुमार मारुत