क्यों छू रही हैं यह परछाईयाँ ?,
अज़ब हालात में हैं यह तनहाईयाँ।
जाने ख़्वाहिशेँ मरी जा रही हैं क्यों?,
हिल रहा है यह तन और चल रही पुरवाईयाँ।
ग़रदिशे ज़िन्दगी है क्यों? ,
और दिलों में क्यों रुसवाईयाँ ?
तड़पती अब तो तमन्ना भी है,
अब दूर ना हो रही यह बेहरुखियाँ।
फ़ना क्यों ज़िन्दगी होती है सबकी ?,
फिर क्यों यह रह जाती हैं वेहोशियाँ?
आरज़ू तड़पती है क्यों तिल- तिल के ?,
और ज़िन्दगी में क्यों हैं नाकामियाँ ?
क्यों मर रहे हैं ऐसी आवारग़ी में ?,
वे समझते हैं उनकी महरवानियाँ।
ऊपर वाला भी तो मुस्कुराता होगा,
तुम ने जो की हैं ऐसी वेबकूफ़ियाँ।
तुमने काम कर लिए हैं अज़ीबो- ग़रीब,
फिर भी नहीं बरतते सावधानियाँ।
हम तो मर रहे हैं घुट- घुट के,
बाकी रह जाएगी यह निशानियाँ।
आदमी क्यों घुन रहा है हालातो से,
और नज़ाकत कर रही मेरी अंगड़ाईयाँ।
ज़ेबे पड़ रही छोटी हम सभी की,
दिन व दिन तेज़ तर्रार बढ़ती जा रही उफ़ यह
महंगाईयाँ।
सर्वेश कुमार मारुत