एक पेड़ पर बैठा मुर्ग़ा,
कुकडूँ-कूँ कर रहा था।
वर्षात होने पर भी,
उष्ण गर्मी से मर रहा था।
मैंने पूछा अरे!भाई,
इतना क्यों कर रहे हो शोर।
मुर्गा कुकडूँ-कूँ करते हुए,
बोल पड़ा बहुत ज़ोर।
एक मुर्गी मुझे थी प्यारी,
जो आँख मारती थी।
मुझको भी अपने साथ-साथ,
कुकडूँ-कूँ कराती थी।
बेचारी गर्मी से अब,
बाहर नहीं निकल रही।
अब कैसे करूँ कुकडूँ-कूँ,
मेरी आवाज़ न निकल रही।।
-सर्वेश कुमार मारुत