नभ खुली आंखों से देखे,
दुःखी दिख रहे हैं सारे।
दूषित बसन यह कैसे छाय?,
भीड़ लगाए पर सब हारे।
शून्य का मन क्यों व्याकुल?,
और आंखों में छाय आंसू रे।
क्यों अश्रु गिराए ऐसे उसने?,
धरा पर टप-टप, टप-टप रे।
धरा व्याकुल विचलित सी फ़िरती,
भीग क्षीण तन-वसन-दामन रे।
तुषार आपतित पुञ्जित है ऐसे,
खंडित दर्पण-अर्पण सा रे।
रवि उठकर इठलाता शनैः- शनैः,
भोर हो चली अब तो रे।
इठलाता बिलखता प्यासित है देखो,
अब कुछ ना तो उसे फरे।
धरती सहमे दामन बचाये शर्माये,
होंठों पर होंठों को रखते हुए।
भानु भी अति मस्ती से पीता ही रहा,
लव-तन-केश-कपोल सारे।
धरा के उज्ज्वलित होंठों से,
तृप्त हो चला अब तो धीरे -धीरे।
तीनों पहर गुज़ारे हमदम ने,
इठलाते-फड़फड़ाते उमंगित मन में रे।
क्षण होता, ना बातूनी और अलसाया;
नन्हें-नन्हें पैरों पर चला जाता रे।
धरा रवि का भी क्षण आया,
दुःखित करुणामय युगल तब से रे।
पोटली बाँधती धरा क्यों है?,
अधर मुरझाये लालित भास्कर अब रे।
चला-चला,चला-चला दिग् परिवहन,
चढ़ चला बैठ पश्चिम गाड़ी से रे।
हाथ हिलाए होंठ छिपाए,
उसकी लालिमा भू को लख ना पाई रे।
अंश छोड़ा, कालित पहर और शांत निशा;
व्यथित आँखों में मोती से रे।
सर्वेश कुमार मारुत