डायरी दिनांक १३/१०/२०२२
रात के आठ बजकर दस मिनट हो रहे हैं ।
बाहर पटाखों की आवाज आ रही है। शायद चांद निकल आया है। वैसे छत पर जाकर देखा जा सकता है कि आस पास क्या चल रहा है। पर ऐसा करने का मन नहीं कर रहा। इस समय घर के भीतर और फिर कमरे के भीतर ही छिपने की इच्छा हो रही है।
आजकल प्रथाओं के पीछे के तथ्य भी महत्वहीन सा हो गये हैं। परिवारों में अशांति का माहौल एक दिन के व्रत से समाप्त नहीं हो सकता है। वास्तव में ये त्यौहार जो कि वर्ष में एक दिन मनाये जाते हैं, पूरे वर्ष के जीवन जीने का आदर्श होते हैं। हालांकि पूरे वर्ष में परिस्थितियां बदलती रहती हैं। फिर भी मूल उद्देश्य लगभग एक सा रहता है।
किसी परिचित की सफलता पर उसे बधाई देना व्यवहार का हिस्सा होता है। फिर भी कई बार ऐसा करना संभव नहीं होता। कई बार जब मनुष्य परिचित द्वारा की जाती अवहेलना का सही कारण समझ नहीं पाता तो वह भी उससे खुद व खुद दूरी बनाने लगता है। तथा जब एक समुचित दूरी बन जाती है, उसके बाद किसी भी परिस्थिति में उस दूरी को कम कर पाने में खुद को असमर्थ पाता है। यह उस व्यक्ति का अहंकार भी हो सकता है अथवा स्वाभिमान भी।
आज के लिये इतना ही। आप सभी को राम राम।