आमिर खान की ‘दंगल’ मसाला सिनेमा के मौजूदा लोकप्रिय खाँचे में बायोपिक यानी पहलवान महावीर फोगाट, उनकी बेटियों गीता फोगाट और बबिता फोगाट के जीवन की कहानी पर आधारित फ़िल्म है। गीता फोगाट और बबिता फोगाट भारत की नामी महिला पहलवान हैं ।
‘दंगल’ सिनेमाई किस्सागोई के कलात्मक तरीके से बेटी बचाओ, बेटी बढ़ाओ का नारा बुलंद करती फ़िल्म है।
‘दंगल’ खेल ों को बढ़ावा देने वाली फ़िल्म भी है।
लेकिन इन सबसे ऊपर और परे हटकर दंगल ज़िंदगी में लकीर का फ़क़ीर बनने के बजाय कुछ अलग सपने देखने, उन्हें पूरा करने के लिए हालात से जूझते हुए आगे बढ़ने और कामयाब होने की ज़िद और जुनून की कहानी है।
दलेर मेहंदी की बुलंद आवाज़ में 'माँ के पेट से मरघट तक ' गाने के बहाने दंगल फ़िल्म गागर में सागर की तर्ज़ पर ज़िंदगी की जद्दोजहद का फ़लसफ़ा बयान करती है। पग पग पर इंसान की ज़िंदगी हार जीत का दंगल ही तो है जहाँ कई बार आपके दाँव चलते हैं तो कई बार हालात आपको पटकनी दे देते हैं। आप फिर उठकर खड़े हो गये तो दंगल जीत सकते हैं लेकिन अगर डरकर बैठ गये तो हार तय है।
फ़िल्म के क्लाइमैक्स के दौरान एक ऐसा नाटकीय मोड़ आता है कि जब कुश्ती का मुक़ाबला जीत रही गीता फोगाट को दर्शक दीर्घा में बैठकर हौसला दे रहा उसका असली कोच, उसका पिता महावीर फोगाट मुकाबले के सबसे नाज़ुक मोड़ पर उसको सामने नज़र नहीं आता। धुन के पक्के बाप-बेटी के सपने के सच होने और धूल में मिलने के बीच कुछ प्वाइंट्स का फ़ासला है। गोल्ड का सपना देख रही गीता के बारे में कमेंट्री गूँजती है कि शायद सिल्वर से ही संतोष करना पड़ेगा। हार नज़दीक़ है, जीत दूर। जिस चेहरे से उसे हिम्मत का आसरा है, वो नदारद है, किसी अंधेरे बंद कमरे में अकेला कसमसाता हुआ।
निर्देशक ऐसे में सिनेमा हाल में दम साधे बैठे दर्शक के लिए नाटकीयता को चरम पर ले जाते हुए 'जिन खोजा तिन पाइयाँ गहरे पानी पैठ ' का दिलचस्प सिनेमाई रूपांतरण पेश करता करता है एक छोटे से फ्लैशबैक के ज़रिये। 2010 के कॉमनवेल्थ गेम्स में कुश्ती के उस मुक़ाबले के बीच ही गीता की याद में कौंधता है एक बीता हुआ लम्हा । हम देखते हैं कि बच्ची गीता पानी में लगातार नीचे जाते हुए, डूब सी रही है और उसका पिता महावीर फोगाट (आमिर खान)उससे कह रहा है - एक बात याद रखना बेटा हर जगह तने बचाने तेरा पाप्पा न आवेगा। मैं तने लड़ना सिखा सकूँ हूँ, लड़ना तने ख़ुद होगा।
कान में गूँजता ये संदेश कुश्ती के उस मुक़ाबले का , गीता फोगाट की ज़िंदगी का, महावीर फोगाट के सपने का और दंगल फ़िल्म का निर्णायक मोड़ साबित होता है क्योंकि उसके फ़ौरन बाद हम देखते हैं कि गीता फोगाट अपनी प्रतिद्वंद्वी पहलवान को पटकनी देकर कॉमनवेल्थ गेम्स में गोल्ड मेडल जीत लेती है।
एक तरह से फ़िल्म का यह छोटा सा दृश्य खुद्दार, जुझारू, ज़िद्दी ज़िंदगी के फ़लसफ़े की बेहतरीन पैकेजिंग भी है। जीवन के कुरुक्षेत्र में धनुष तो अर्जुन को ही उठाना है, तीर उसे ही चलाना है, कृष्ण केवल उसकी बुद्धि पर पड़ा मोह का पर्दा हटाने में मदद कर सकते हैं। बुद्ध ने जिसे अप्प दीपो भव कहा था-यानी अपने लिए उजाले की तलाश बाहर मत करो, अपना उजाला ख़ुद बनो।
दुनिया के अखाड़े में आपको अपनी लड़ाई अकेले ही, अपने हथियारों से , अपनी क़ाबलियत के सहारे ख़ुद लड़नी पड़ती है। दंगल के दाँव कोई दूसरा भले ही सिखा दे लेकिन ताल तो आपको ही ठोंकनी है। खोजने वाला गहरे पानी में उतर कर ही जीवन का मोती पाता है। जो डूबने से डरते हैं वो किनारे ही बैठे रह जाते हैं।