"गाइ है सु हिंदू खावो। और मुसलमान सुअर खावो। नाजे हुडियार नांजे अैन खावो तो हुडियार कडा़हि विचि वाहो अर रांधो, जे हुंडियार हुंता सुअर होइ तो हिंदू मुसलमान रलि खावो। जे गाइ होइ तो हिंदू मुसलमान रेल खावो। जे सुअर होइ तो मुसलमान खावो जे गाइ होइ तो हिंदू खावो। क्यूँ ऊँ देवीमिश्र होइगा।”
“पूनम की चाँदनी रात में अबुल मुज़फ़्फ़र जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर बादशाह चीख़ रहे थे कि हिंदू गाय खाएँ। मुसलमान सूअर खाएँ। जो नहीं खाएँ तो हुडियार (नर भेड़) को कड़ाती में रांधो और जो हुडियार से सुअर हो जाए तो हिंदू मुसलमान मिल कर खाएँ , जो गाय हो जाए तो हिंदू-मुसलमान मिलकर खाएँ। । जो सुअर हो तो मुसलमान खाएँ और जो गाय हो तो हिंदू खाएँ तो कुछ दैवी चमत्कार होगा। ख़ौफ़ज़दा अमीर उमरा बादशाह सलामत के लफ्ज़ों को तो समझ रहे थे लेकिन इन लफ्ज़ों के पीछे के मायने को नहीं।“
इतिहास में 3 मई 1578 की तारिख में दर्ज ये हैरतअंगेज़ बयान है मुग़ल कालीन हिन्दुस्तान के अज़ीमुश्शान बादशाह अकबर का जिसमें शामिल नाराज़गी, मायूसी और छटपटाहट की मिलीजुली मनस्थिति को उस दौर के एक दस्तावेज लिखने वाले इतिहासकार ने 'हालते अजीब' करार दिया.
एबीपी न्यूज़ के समूह संपादक पत्रकार शाज़ी ज़मां का राजकमल प्रकाशन से छप कर आया नया उपन्यास 'अकबर' पढ़ते हुए लगता है मुग़ल शासन काल पर कोई भव्य पीरियड फिल्म देख रहे हों – के. आसिफ की मुग़ल-ए-आज़म से ज़्यादा प्रामाणिक और आशुतोष गोवारिकर की जोधा-अकबर से कहीं ज़्यादा भव्य . हालांकि पॉपुलर सिनेमा की छवियों के आधार पर मूल्यांकन का इरादा नहीं है लेकिन शायद ये इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े एक पत्रकार के तीन दशक के अनुभव और आदत का स्वाभाविक असर है कि उपन्यास में काफी विजुअल अपील है.
अकबर महान और अशोक महान भारत के इतिहास के वो राजसी किरदार हैं जो आज भी हमारे शासन तंत्र और समाज व्यवस्था के लिए प्रासंगिक बने हुए हैं और जिनके अध्ययन में इतिहासकारों, समाजशास्त्रियों, राजनीति और कूटनीति के जानकारों की दिलचस्पी लगातार बनी हुई है.
ये उपन्यास अकबर की शख्सियत के कई बेहद दिलचस्प पहलुओं को सामने लाता है. उपन्यास काफी गहन शोध के बाद लिखा गया है . 'शुरुआत' शीर्षक से इसकी भूमिका में शाज़ी ज़मां अकबर की उस ‘हालते अजीब’ का ज़िक्र करते हुए लिखते हैं कि बहुत मुमकिन है अकबर अपने दौर में आज के ज़माने की बीमारियों बाई पोलर डिसऑर्डर , डिस्लेक्सिया और टेम्पोरल मिर्गी के मरीज़ रहे हों.
हालाँकि हालते-अजीब के चौंकाने वाले वाकये के पीछे की कहानी का खुलासा उपन्यास में आगे बड़े दिलचस्प मोड़ पर होता है
हम इतिहास को किस्सों- कहानियों की शक्ल में जानते समझते हैं और किस्सों- कहानियों को भी इतिहास समझ लेते हैं. ऐसे में शाज़ी ज़मां का अकबर पर लिखा उपन्यास साहित्य की श्रेणी में रखा जाय या इतिहास लेख न के क्षेत्र में- ठीक ठीक तय करना मुश्किल है. खुद लेखक भी ये मानते हैं कि इसका कोई आसान जवाब नहीं है कि ये उपन्यास इतिहास से कितना दूर या कितना पास हैं. साथ ही वो किंचित व्यंग्य से ये भी कहते हैं कि आज तो ये भी कहना मुश्किल है कि जिसे इतिहास कह जा रहा है या कहने कि कोशिश कि जा रही है वो इतिहास के कितना पास या कितना दूर है.
हालाँकि उन्होंने ये दावा किया है कि इस उपन्यास की एक-एक घटना, एक-एक किरदार , एक-एक संवाद इतिहास पर आधारित है. इस सिलसिले में उन्होंने किताब की भूमिका में अबुलफज़ल के अकबरनामा और बदायुनी की मुन्तख़बुत्तवारीख समेत तमाम दस्तावेजों और अकबर के समकालीन रहीम, तानसेन, बनारसीदास , केशवदास वगैरह का हवाला भी दिया है और इनकी रचनाओं का ज़िक्र भी उपन्यास में जगह जगह आता है.
उपन्यासकार का मानना है कि इतिहास तथ्यों को तो दर्ज करता है लेकिन मनस्थितियों को दर्ज नही कर पाता. ज़ाहिर है वो छूट इतिहासकार के बजाय साहित्यकार के हिस्से में आती है. उस छूट के बहाने शाज़ी ज़मां पाठक को अकबर के दिलो दिमाग में चल रही उस खलल की झलक दिखाते हैं जो उन्हें तमाम सल्तनत हासिल कर लेने के बाद भी बेचैन किये रहती है, क्योंकि वो तारीख में एक बहुत कामयाब बादशाह से भी ऊँचे दर्जे की हैसियत हासिल करना चाहता था. रूहानी दुनिया के पेशवा वाली. दीन-ए-इलाही के पीछे भी यही सोच रही होगी.
एक मिसाल देखिये
“बादशाह सलामत कहा करते थे - फलसफे पर बहस हमें इतनी पसंद है कि बाकी सब तरफ से ध्यान बंट जाता है. हम ज़बरदस्ती खुद को सुनने से रोकते हैं, वर्ना ज़िम्मेदारिया नहीं निभेंगी."
सारे मोर्चे फतह करने वाला अकबर किस तरह इस मोर्चे पर नाकाम रहा और कैसे मायूसी के आलम में चुपचाप दुनिया से रुखसत हो गया कि उसका जनाज़ा भी एक चोर दरवाज़े से बाहर ले जाया गया, ये मार्मिक पहलू भी इस उपन्यास में बखूबी उभर कर आया है. अकबर को ईसाई बनाने की कोशिश में पच्चीस बरस की नाकामी के बाद ईसाई पादरी बोले ," जैसे जिए, वैसे मरे. न किसी को पता किस दीन में जिए, न किसी को पता किस दीन में मरे."
उपन्यास फ़िल्मी कतई नहीं है लेकिन एक कसी हुई फ़िल्मी पटकथा के सारे तत्त्व इसमें मौजूद हैं. इसे फ्लैशबैक शैली में लिखा गया है -एकदम गुलज़ार की फिल्मों की तरह- फ्लैशबैक के अंदर फ्लैशबैक वाली टेक्नीक अपनाते हुए लेखक ने एक अतीत दृश्य गढ़ते हुए उसके अंदर जैसे दृश्यों की लड़ी को पिरोया है. कहानी अकबर की है , उसमें बाबर और हुमायूँ के किरदार हर मोड़ पर आगे पीछे चहलकदमी करते हुए अपने किस्से सुनाते जाते है.
अकबर की तमाम बीवियों में से एक आमेर के राजपूत राजा भारमल की बेटी भी थीं. दिलचस्प बात ये है कि राजपूतों से रिश्ते बनाने की सलाह अकबर के पिता हुमायूँ को दी थी ईरान के शाह तहमास्प ने जिन्होंने हुमायूँ को समझाया कि उनके अमीरों में जो अफ़ग़ान हैं उन्हें करोबार में लगाएं और जो राजपूत हैं, उनसे रिश्ते बनाएं, शादी करें. जिन्हें मुग़ल-ए-आज़म के फ़िल्मी रास्ते से अकबर के इतिहास का इल्म हुआ होगा, उनके हिसाब से जोधाबाई अकबर की राजपूत रानी थीं . लेकिन अकबर उपन्यास में शाज़ी ज़मां इस काल्पनिक सत्य को ख़ारिज करते हैं. उपन्यास के अंत में एक ऐतिहासिक दस्तावेज की तरह चस्पा मुग़ल वंशावली के मुताबिक जोधाबाई दरअसल अकबर की बहू का नाम था- वो भी जोधपुर के राजा उदय सिंह की बेटी मानी बाई जिन्हें जोधबाई भी कहा गया और जो ताज बीबी के नाम से शाहजहां की मां के तौर पर जानी जाती हैं.
सर्व धर्म समभाव की सोच वाले मुग़ल बादशाह अकबर पर केंद्रित ये उपन्यास एक ऐसे समय में आया है जब हमारे समाज और सियासत में सहिष्णुता और बहुलता की संस्कृति के लिए जगह सिमटती जा रही है, सेक्युलर सोच उपहास का विषय है और रिश्ते प्यार और भरोसे के बजाय डर, शक़ और नफरत से ज़्यादा संचालित हो रहे हैं. ये उपन्यास अकबर , उसकी शख्सियत और उसके दौर की कहानी कहने के साथ साथ उसकी नीतियों की हमारे वर्तमान में प्रासंगिकता को नए सिरे से रेखांकित करता है.
उपन्यास में अकबर से जुड़े तमाम किरदारों अबुल फज़ल, फ़ैज़ी, तानसेन और बीरबल के बारे में भी दिलचस्प जानकारिया हैं. मसलन महेश पांडे को ख़िताब मिला था वीरवर का जो बीरबल में बदल गया.
'अकबर' उपन्यास अपनी दिलचस्प किस्सागोई, इतिहास और साहित्य की जुगलबंदी के नाते तो विलक्षण है ही, मौजूदा समय के हिसाब से एक ज़रूरी लेखकीय हस्तक्षेप होने के नाते भी महत्वपूर्ण है.