"चक्रव्यूह में घूसने से पहले कौन था मैं, और कैसा था, ये मुझे याद ही नहीं रहेगा। चक्रव्यूह में घुसने के बाद मेरे और चक्रव्यूह के बीच सिर्फ जानलेवा निकटता थी, इस का मुझे पता ही नहीं चलेगा। चक्रव्यू से बाहर निकलने पर मैं मुक्त हो जाऊं भले ही, फिर भी चक्रव्यूह की रचना में फर्क ही ना पडेगा, मरो या मारों, मारा जाऊं या जान से मार दो इसका फैसला कभी नहीं हो पायेगा। सोया हुआ आदमी जब नींद में से उठकर चलना शुरू करता है, तब सपनों का संसार उसे दोबारा दिख ही ना पायेगा। उसे रोशनी में जो निर्णय की रोशनी है, सब कुछ सामान होगा क्या? एक पलड़े में नपुसंकता, दूसरे पलड़े में पौरुष और ठीक तराज़ू के कांटे पर अर्ध सत्य..."
ओम पुरी की फिल्म 'अर्धसत्य' का ये संवाद कहीं न कहीं खुद उनकी ज़िन्दगी की कशमकश की कहानी भी कहता है.
4 जनवरी की शाम हम लोग शाज़ी ज़मां साहब के उपन्यास 'अकबर' के लोकार्पण के मौके पर जुटे थे. वहां किसी ने लेख क से शिकायती अंदाज़ में कहा कि आपका उपन्यास बहुत abruptly ख़त्म हो जाता है. शाज़ी साहब का जवाब था कि ज़िन्दगी भी यूं ही abruptly ख़त्म हो जाती है. आज सुबह जब अभिनेता ओम पुरी के अचानक चल बसने की खबर मिली तो वो जुमला याद आ गया. हालाँकि दोनों बातों में ज़ाहिर तौर पर कोई जुड़ाव नहीं है. ओम पुरी के यूँ अचानक चले जाने से झटका सा लगा, जैसे फारूख शेख के न रहने पर लगा था . लगा कोई ऐसा शख्स चला गया जिससे आप खुद को कहीं न कहीं identify करते थे, व्यक्ति के तौर पर भी और कलाकार के तौर पर भी, क्योंकि उसने ज़्यादातर ऐसे वर्ग के किरदारों को जीवंत किया जिनकी आवाज़ और पहचान समाज में गुम हो चुकी थी.
ओम पुरी कमर्शियल सिनेमा के खांचे में चाइना गेट जैसी फिल्म तो कर सकते थे, लेकिन नसीर की तरह तिरछी टोपी वाले रोमांटिक हीरो नहीं बन पाए, ये मसाला सिनेमा की मांग वाले अभिनेता के तौर पर उनकी सीमा भी रही. ओम पुरी सार्थक सिनेमा के मुहाफ़िज़ थे , लेकिन पीछे कुछ सालों के अपने फ़िल्मी करियर में निरर्थक मनोरंजन की अंधी गली में, जिन्हें वो नाच गाने वाला सिनेमा कहते थे , एक बेगाने राहगीर की तरह कुछ अनमने से घूमते पाए जाते थे. वहां उनका घर नहीं था ये उन्हें भी मालूम था, लेकिन वो वहीँ अपना ठिकाना तलाश रहे थे. ज़िन्दगी और हालात से समझौते की ये मजबूरी, ये तकलीफ उनके दिल में थी और ज़ुबान पर भी आ जाती थी.
तीन सौ फ़िल्में, राष्ट्रीय पुरस्कार, पद्मश्री की उपाधि,देश विदेश में शोहरत और ढेर सारा अवसाद और अकेलापन. ओम पुरी बेहद ईमानदार शख्स थे. उनकी पत्नी ने जब उनके बारे में किताब लिखी और उसमे उनके तमाम रिश्तों का ज़िक्र किया तो मीडिया में कई चटखारेदार चर्चाओं का सिलसिला चल निकला. ओम पुरी ने कुछ भी छुपाया नहीं, सिर्फ इतना कहा - वो सब अर्धसत्य ही है. टीवी पर चर्चा के दौरान जब उन्होंने सरहद पर मारे गए एक जवान के बारे में टिप्पणी कर दी और उनको सब तरफ से गलियां पड़ने लगीं तो अपनी गलती मानते हुए वो उस जवान के गाँव उसके घर गए और कैमरों की परवाह किये बगैर फूट फूट कर रोये. बेहद ईमानदार और जज़्बाती इंसान ही ऐसा कर सकता है.
पॉलिटिकली समझदार भी थे और एक्टिव भी रहना चाहते थे. एक दौर में कोलकाता में सिटी ऑफ़ जॉय की शूटिंग के दौरान उन्होंने कहा था कि ज्योति बसु उनके हीरो थे. जब दिल्ली में बीजेपी नेता विजय गोयल ने अपने चुनाव प्रचार के ये फ़िल्मी सितारों को पुरानी दिल्ली कि गलियों में घुमाया और उस भीड़ में ओम पुरी भी नज़र आये तो मीडिया के सवालों और प्रगतिशील दोस्तों के तानों पर झेंप से गए थे. अन्ना हज़ारे के मंच से भी नज़र आये, अरविन्द केजरीवाल का खुल कर समर्थन किया , हाल के दिनों में कुछ बीजेपी कि तरफ भी रुझान दिखा , लेकिन किसी खूंटे से बंधे नहीं .